शैली गुप्ता

सभी इससे परिचित हैं कि भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, ठीक वैसे ही जैसे यह कि हमारा देश दुनिया भर में ताजमहल और अपनी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर के लिए विख्यात है, लेकिन यदि मौजूदा दौर में भारत के सबसे अहम योगदान की बात करें तो सबसे पहले उन सस्ती दवाओं का नाम आएगा जो गरीब देशों को किफायती कीमतों पर उपलब्ध कराई जाती हैं। कीमतों के किफायती होने का यह अर्थ नहीं कि उनकी गुणवत्ता से कोई समझौता किया जाता है। किफायती एवं उच्च गुणवत्ता वाली इन दवाओं को जेनेरिक दवाएं कहा जाता है। इनकी बदौलत करोड़ों लोग बीमारियों की जद से बाहर निकलकर अपनी जिंदगी की डोर को कई साल लंबा खींच चुके हैं। इनसे करोड़ों लोगों के प्राण बचे हैं। दुनिया के गिने-चुने विकासशील देशों को ही गुणवत्तापरक जेनेरिक दवाएं बनाने में महारत हासिल है और भारत उनमें प्रमुख नाम है। भारत ने वर्ष 2005 तक दवाइयों के पेटेंट को मंजूर नहीं किया था और इससे उसकी जेनेरिक दवा कंपनियां दुनिया में कुछ सर्वाधिक सस्ती जीवनरक्षक दवाइयों का उत्पादन करने में सक्षम थीं। ‘विकासशील देशों की औषधिशाला’ के रूप में प्रसिद्ध भारत ने 2001 में एचआइवी की दवाओं के दाम गिराने में अहम भूमिका निभाई।
एचआइवी के उपचार में काम आने वाली जिस दवा एंटीरेट्रोवायरल्स के लिए किसी मरीज को जहां साल भर में 10,000 अमेरिकी डॉलर तक चुकाने होते थे उसकी कीमत अप्रत्याशित रूप से घटकर 300 डॉलर के स्तर पर आ गई। इससे दुनिया भर में 1.70 करोड़ लोगों का इलाज संभव हो सका। एक प्रमुख चिकित्सा सेवा प्रदाता के तौर पर मेडिसिंस सेंस फ्रंटियर्स (एमएसएफ) अनेक बीमारियों में काम आने वाली सस्ती एवं गुणवत्तापरक दवाओं के लिए मुख्य रूप से भारत पर ही आश्रित है। एचआइवी के उपचार में भी एमएसएफ जिन दवाओं का उपयोग करता है उनमें से 97 प्रतिशत दवाओं का स्रोत भारत है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों के पालन के लिए भारत ने 2005 में अपने पेटेंट कानून में संशोधन किया और दवा निर्माण संबंधी पेटेंट को मंजूरी देनी शुरू की। तब संसद ने जनस्वास्थ्य संबंधी सुरक्षा उपाय सुनिश्चित करने के लिए केवल वास्तविक आविष्कार के पेटेंट एकाधिकार को स्वीकृति दी। पेटेंट कानूनों में नवोन्मेषी दवाओं के पेटेंट और जनस्वास्थ्य की जरूरत के बीच तालमेल बिठाने का प्रयास हुआ। भारत में जनस्वास्थ्य संबंधी कवायद के लिए जेनेरिक दवाओं की प्रतिस्पर्धा पर जोर दिया गया। इस प्रतिस्पर्धा ने गुणवत्ता और किफायत को सुनिश्चित किया। इसके उलट अमेरिका जैसे देशों के पेटेंट कानून दवा कंपनियों का आंख मूंदकर पक्षपात करते हैं।
बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां भारत में निर्मित सस्ती दवाओं को अपने मुनाफे के लिए खतरा मानती हैं। इन कंपनियों के दबाव में विदेशी सरकारें कूटनीतिक वार्ताओं और द्विपक्षीय एवं क्षेत्रीय व्यापार समझौतों की दुहाई देकर भारत को पेटेंट व्यवस्था की ओर झुकने पर मजबूर कर रही हैं। क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) भी ऐसा ही समझौता है। इसकी शुरुआत 2012 में हुई थी। इसमें आसियान के 10 देशों के अलावा भारत, चीन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान और दक्षिण कोरिया भी शामिल हैं। इसके जरिये बड़ी दवा कंपनियां सस्ती जीवनरक्षक दवाओं तक आसान पहुंच की राह में अवरोध पैदा करने की कोशिश कर रही हैं। अन्य व्यापार समझौतों की तरह इसमें भी बंद कमरों में ही बात होती है। जनस्वास्थ्य के विशेषज्ञों की भी कोई राय नहीं ली जा रही है। इंटरनेट पर लीक हुए इसके मसौदे के मुताबिक जापान और दक्षिण कोरिया द्वारा प्रस्तावित प्रावधान विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के प्रावधानों से भी सख्त हैं और कंपनियों के पेटेंट अधिकारों को बढ़ावा देते हैं। इनमें पेटेंट की वर्तमान 20 वर्ष की सीमा को 25 साल तक बढ़ाने का प्रस्ताव भी है। दूसरे प्रस्तावित नुकसानदेह प्रावधान के अनुसार इसमें ‘डेटा एक्सक्लुसिविटी’ को शामिल किया जाएगा जिससे जेनेरिक दवाइयों का पंजीकरण और बिक्री 5 साल के लिए स्थगित हो जाएगी। यह एक तरह से पिछले दरवाजे से बड़ी कंपनियों का एकाधिकार बनाने की कोशिश है। इनमें पुरानी दवाइयां भी शामिल होंगी, जिन्हें पेटेंट नहीं मिल सकता। यदि दोनों प्रावधान स्वीकार कर लिए गए तोे बाजार में सस्ती जेनेरिक दवाइयों के प्रवेश में देरी होगी और दवाओं के दाम लंबे समय तक ऊंचे बने रहेंगे। भारत में जहां लोग स्वास्थ्य खर्चों का 70 प्रतिशत हिस्सा अपनी जेब से चुकाते हैं और विरले ही स्वास्थ्य बीमा लेते हैं वहां जीवनरक्षक दवाओं के अत्यधिक महंगे होने से कमजोर वर्गों की उन तक पहुंच और भी मुश्किल हो जाएगी। देश में जनस्वास्थ्य संबंधी उभरती चुनौतियों और टीबी, हेपेटाइटिस एवं कैंसर के बढ़ते बोझ के मद्देनजर जनस्वास्थ्य कार्यक्रम में सस्ती दवाइयों की उपलब्धता सुनिश्चित करना वक्त की जरूरत हो चली है।
वर्तमान आर्थिक परिवेश में आरसीईपी व्यापार समझौते की सराहना की जा रही है कि इससे बड़े पैमाने पर निवेश होगा बुनियादी सुविधाएं मजबूत होंगी और नौकरियों की संख्या बढ़ेगी, मगर जनकल्याण के क्षेत्रों में इन कंपनियों की भूमिका को अनदेखा किया जा रहा है। जनस्वास्थ्य के मसले को लुकाछिपी के जरिये वाणिज्यिक उद्यम में तब्दील करने की इस मुहिम से दवाइयों को अन्य लाभदायक वस्तुओं की तरह माना जाएगा। इससे एकाधिकार कायम होगा और दवाइयां ऊंची कीमत पर बेची जाएंगी। परिणामस्वरूप भारत का कम लागत वाला दवा उद्योग मुनाफे पर नजरें गड़ाए रखने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भेंट चढ़ जाएगा। आरसीईपी में बढ़े हुए बौद्धिक संपदा के प्रावधानों से अनेक विकासशील देशों की जनस्वास्थ्य व्यवस्था खंडित हो सकती है और न सिर्फ भारत में, बल्कि एशिया और अफ्रीका के विकासशील तथा पिछड़े देशों में जनस्वास्थ्य की रक्षा के लिए सरकारों की क्षमताओं पर रोक लग सकती है। अब तक भारत इन नुकसानदेह पेटेंट प्रावधानों के खिलाफ दृढ़ता से खड़ा रहा है। एमएसएफ सरीखे संगठनों को उम्मीद है कि आसियान देशों के साथ भारत तब तक इस समझौते पर सहमत नहीं होगा जब तक कि वे सभी प्रावधान हटाए नहीं जाते जो अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों के परे हैं। साथ ही जनस्वास्थ्य से जुड़ी चिंताओं का भी ध्यान रखा जाए। भारत जैसे देश से यही अपेक्षा है कि वह अपनी जनस्वास्थ्य संबंधी जरूरतों के साथ पेटेंट व्यवस्था में संतुलन बनाए रखेगा।
[ लेखिका भारत में एमएसएफ एक्सेस कैंपेन की डिप्टी हेड हैं ]