अगले दो-तीन दिन में संसद के बजट सत्र की तिथियां घोषित हो सकती हैं। इसी के साथ सत्तापक्ष की ओर से यह उम्मीद जताई जाएगी कि इस सत्र में रेल बजट-आम बजट पेश होने के साथ ही लंबे समय से अटके विधेयकों को भी संसद की मंजूरी मिल जाएगी। उसकी ओर से यह अपील भी की जाएगी कि विपक्षी दल जनहित और राष्ट्रहित में जीएसटी और अन्य अनेक विधेयकों को पारित कराने में सहयोग करें। इसके जवाब में विपक्षी दलों की ओर से सरकार को तरह-तरह की नसीहत और हिदायत देने के साथ ही यह भी कहा जाएगा कि वह अपना अहंकारी रवैया छोड़े। जीएसटी विधेयक पर कांग्रेसी नेताओं की ओर से यह सुनने को मिलेगा कि हमारी शर्तों को मानो और विधेयक पारित कराओ। जीएसटी विधेयक को लेकर कांग्र्रेस की तीन शर्तों में एक यह भी है कि टैक्स दरों को संविधान संशोधन विधेयक में शामिल किया जाए। यह निहायत बेतुकी मांग है, क्योंकि दुनिया में कहीं भी टैक्स दरें संविधान का हिस्सा नहीं। कांग्र्रेस की ओर से यह शिकायत भी की जाएगी कि यह सरकार न तो संवाद पर भरोसा करती है और न ही विपक्ष को अहमियत देती है। हालांकि शीतकालीन सत्र के दौरान खुद प्रधानमंत्री ने सोनिया और मनमोहन को चाय पर बुलाया था, लेकिन उन्हें चाय पिलाना बेकार रहा। नेशनल हेराल्ड मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को प्रधानमंत्री कार्यालय के दबाव-प्रभाव में दिया गया फैसला करार देकर कांग्रेस ने संसद के भीतर-बाहर तमाशा करना शुरू कर दिया। आश्चर्यजनक रूप से कई अन्य दलों ने भी कांग्रेस का साथ दिया। ऐसा ही तमाशा पिछले से पिछले यानी मानसून सत्र में भी किया गया था।

मानसून सत्र में हंगामे का बहाना बना था ललित मोदी का मामला और व्यापम प्रकरण। उस समय कांग्रेसी नेता और खासकर राहुल गांधी इस जिद पर अड़ गए थे कि सुषमा स्वराज, शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे के इस्तीफे के बगैर संसद नहीं चलने दी जाएगी। मानसून सत्र समाप्त होते ही खुद राहुल ही यह भूल गए कि वह किन मामलों में किन नेताओं का इस्तीफा मांग रहे थे? उनके साथ अन्य विपक्षी नेता भी स्मृतिलोप का शिकार हो गए। इस पर गौर करें कि जो कांग्रेस सुषमा, वसुंधरा और शिवराज के इस्तीफे की मांग को लेकर सिर के बल खड़ी थी वही अब केरल के अपने मुख्यमंत्री ओमेन चांडी के इस्तीफे की मांग को सिरे से खारिज कर रही। यह तब है जब उनके खिलाफ कहीं अधिक गंभीर आरोप हैं और उन्हें उच्च न्यायालय से पूरी तौर पर राहत नहीं मिल सकी है। यह भी देखें कि केरल में जिन वाम दलों के नेता चांडी का इस्तीफा मांग रहे हैं वही पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की चिरौरी कर रहे हैं कि वह उनके साथ मिलकर चुनाव लड़े।

एक समय जैसे राशन की दुकानों में चीनी, चावल बंटता था वैसे ही अब संसद और विधानसभाओं में विधायी कामों का निस्तारण होता है। जिन विधेयकों पर व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत जताई जाती है और उन्हें इस या उस समिति के हवाले करने की मांग की जाती है उन्हें ही कई बार बिना चर्चा के पारित कर दिया जाता है। पिछले सत्र में ऐसा खूब हुआ। जुवेनाइल जस्टिस एक्ट समेत कई विधेयकों को मंजूरी देते समय ऐसी हड़बड़ी दिखाई गई मानों वह संसद का आखिरी सत्र हो। जैसा हर सत्र के पहले होता है, बजट सत्र शुरू होने के पहले भी एक निरर्थक सर्वदलीय बैठक होगी। इसमें सभी दल कथित तौर पर संसद चलने देने का भरोसा जताएंगे, लेकिन इसी के साथ ऐसी खबरें भी आएंगी कि अमुक-अमुक मसलों पर सरकार को घेरेंगे विपक्षी दल। कोई भी इसके प्रति सुनिश्चित हो सकता है कि बजट सत्र के शुरुआती दो-तीन दिन तो सिर्फ हंगामा ही होगा। आश्चर्य नहीं कि कांग्रेसी सांसदों ने तख्तियों पर लिखे जाने वाले नारे तय कर लिए हों। बजट सत्र में जिन मसलों को लेकर संसद बाधित होने की आशंका है उनमें एक तो हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या है। यह एक ऐसा मसला है जिस पर संसद में बहस होनी ही चाहिए और इस मकसद से होनी चाहिए कि भविष्य में अन्य कोई रोहित सरीखा सामने न आने पाए, लेकिन इसमें शायद ही किसी की दिलचस्पी हो। रोहित की आत्महत्या की तरह तमिलनाडु की तीन छात्राओं की आत्महत्या का मामला भी गंभीर है, लेकिन उसकी सुध शायद इसलिए न ली जाए, क्योंकि एक तो वे दलित नहीं थीं और दूसरे उनकी आत्महत्या के लिए केंद्र सरकार को निशाने पर नहीं लिया जा सकता। नेशनल हेराल्ड मामले में सोनिया-राहुल एवं अन्य को 20 फरवरी को फिर अदालत में पेश होना है। अगर उन्हें राहत नहीं मिली तो फिर पिछले सत्र की तरह से संसद ठप रखने के लिए हर दिन एक नया बहाना खोजा जा सकता है।

आज देश के समक्ष जो गंभीर चुनौतियां हैं उनमें सामाजिक विषमता, गरीबी, बेरोजगारी, आतंकवाद आदि प्रमुख हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से संसद में राजनीतिक दलों का व्यवहार भी एक बड़ी चुनौती बन गया है। संसद एक तो चलती नहीं है और अगर चलती भी है तो गंभीर मसलों पर सार्थक बहस के नाम पर या तो गड़े मुर्दे उखाड़े जाते हैं या फिर तू तू-मैं मैं होती है। संसदीय प्रणाली अपने मौजूदा स्वरूप में देश के लिए बोझ बन गई है, फिर भी इस तरह की बातें करके लोगों को बहलाया जा रहा है कि संसद महान है। सर्वोपरि है। संसद संविधान की सबसे बड़ी संस्था है। अगर ऐसी संस्था का एक हिस्सा यानी राज्यसभा दूसरे हिस्से यानी लोकसभा से बदला लेने पर आमादा दिखे तो वह देश का भला कैसे कर सकती है? राज्यसभा ऐसे बर्ताव कर रही जैसे 2014 में देश की जनता ने एक बड़ी गलती कर दी थी और उसे ठीक करने का दायित्व उसके सिर आ गया है। मौजूदा संसदीय प्रणाली को दुरुस्त करने का समय आ गया है, लेकिन हम इतने सुस्त शिथिल राष्ट्र हैं कि सड़ी गली व्यवस्था को तब तक ढोते रहते हैं जब तक उसमें सड़ांध न पैदा हो जाए।

[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]