जगमोहन सिंह राजपूत

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद वहां नई सरकारों का भी गठन हो गया। चुनाव के पहले कितने ही सुहावने वायदे किए जाते हैं, आशाएं जगाई जाती हैं और इस सारी प्रक्रिया में जितना समय, ऊर्जा, धन और अन्य संसाधन लगते हैं उसका अब सभी को अनुमान है। जो दिखाई देता है वह भी और जो छुपकर होता है उसे भी लोग जानते हैं। चुनाव जीतने के बाद प्राय: जीता हुआ प्रत्याशी परिवार सेवा और स्वजन सेवा में लग जाता है और हारे हुए गायब हो जाते हैं। मतदाता सब कुछ भलीभांति जानते हुए भी हर चुनाव में परिवर्तन की आशा फिर से संजोता है। अपने हर नए जन प्रतिनिधि से यह अपेक्षा करता है कि वह जन सेवा को प्राथमिकता देगा, लोगों की पहुंच उस तक बनी रहेगी और उस पर कदाचरण का कोई आरोप नहीं लगेगा। पिछली सदी के पांचवें और छठे दशक में अधिकांश जनप्रतिनिधि इन सामान्य अपेक्षाओं पर प्राय: खरे उतरते थे। आज स्थिति उलट है। पांच साल बाद जो आंकड़े सामने आते हैं वे चुने हुए जनप्रतिनिधिओं की आय या संपत्ति में दो सौ से पांच सौ गुने तक की वृद्धि को उजागर करते हैं। अभी तक तो अनुभव यही रहा है कि अधिकांश चुने हुए प्रतिनिधियों का अपने मतदाताओं से संबंध लगभग नगण्य हो जाता है। हालांकि इस ओर संचार माध्यमों ने अधिक ध्यान देना बंद कर दिया है। जिस ढंग से और जिस सीमा तक तमाम धुरंधर नेताओं ने विमुद्रीकरण के प्रभाव को समझाने में भूल की वह यही दर्शाता है कि जब कोई दल लोगों से विशेषकर सामान्य लोगों से कट जाता है तब प्रबुद्ध और अनुभवी मतदाता उसे कितने शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता के गलियारों से उठाकर बाहर फेंक देता है।
जिन डॉ. मनमोहन सिंह को देश ने महान अर्थशास्त्री के रूप में सराहा और दस वर्ष प्रधानमंत्री के रूप में सहा उन्होंने संसद में विमुद्रीकरण पर जो ‘भयानक’ बयान दिया उसकी धज्जियां उत्तर प्रदेश के अनपढ़ ग्रामीणों ने 11 मार्च 2017 के चुनाव परिणामों से उड़ा दीं। जो देश की वास्तविक स्थिति से दूर हो चुके हैं उनसे आर्थिक, सामाजिक एवं अन्य बड़ी समस्याओं के समाधान की आशा में सात दशक निकल गए और अभी तक भुखमरी एवं कुपोषण तक से यह देश आजाद नहीं हो सका है। अनेक सामान्य और छोटी समस्याओं का समाधान भी आज तक खोजा नहीं जा सका है। उज्ज्वला योजना ने भारत के हर गांव और कस्बे में आशा की ज्योति जगाई है। यह एक साहसपूर्ण नवाचार है। उत्तर प्रदेश के गांवों में जाकर पता लगा कि पिछली सरकार नहीं चाहती थी कि यह योजना सफल हो। उसे चुनाव जीतना था। ऐसे में केंद्रीय सरकार की हर योजना को असफल करना उसका अलिखित उद्देश्य बन गया। लोगों ने इस मंशा को समझा और ऐसा करने वालों को धूल चटा दी। अगर गैस का सिलिंडर कुछ घरों में जा सका तो उसके लिए वहां लोगों को धनरााशि देनी पड़ी, जबकि वह निशुल्क था। इस एक उदाहरण से मूल समस्या उजागर होती है कि प्रशासन कैसे व्यक्तियों के हाथों में है? आखिर अधिकारी प्रेरणा और निर्देश कहां से लेते हैं? जनप्रतिनिधियों की ईमानदारी की साख कितनी बची है? एक वाक्य में कहा जाए तो सबसे अधिक विचारणीय प्रश्न तो भविष्य की पीढ़ी को तैयार करने का ही है। ऐसे युवा तैयार करने का जो चरित्र, कर्मठता, सेवाभावना और ईमानदारी से ओतप्रोत हों। जो देश इसमें कमजोर हो जाता है उसकी विकास की सारी प्रक्रिया सही रास्ते पर आ ही नहीं पाती है। उसके अपने लोग ही उसे पथभ्रष्ट करने में पीछे नहीं रहते हैं। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध समाजशास्त्री गुन्नार मिर्डल ने आज से लगभग पचास साल पहले अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एशियन ड्रामा’ में कहा था कि विकासशील देशों के लिए ऊर्जा का स्नोत है ‘शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय’। यदि शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान गतिशीलता एवं भविष्य दृष्टि के साथ अपने कार्यक्रम निर्मित करें, शिक्षा की गुणवत्ता और कौशल की प्रवीणता में अपना-अपना अग्रणी स्थान बनाएं और समग्र व्यक्तित्व विकास का उदाहरण प्रशिक्षुओं के समक्ष रखें तो उसका प्रभाव हर भावी अध्यापक पर पड़ेगा। वह गुणवत्ता और अपने आचरण के महत्व को समझेगा, उसे जीवन में उतारेगा एवं स्कूलों में जाकर अपना प्रभाव हजारों छात्रों पर स्वत: ही छोड़ेगा।
पाचों राज्यों में नई सरकारें क्या नया विचार तथा दृष्टिकोण भी ला पाएंगी और क्या वे उसे क्रियान्वित कर पाएंगी? सबसे बड़ा प्रश्न तो मुख्यमंत्री और हर मंत्री की व्यक्तिगत ईमानदारी से जुड़ा होगा। इसके जो मापदंड नरेंद्र मोदी ने व्यक्तिगत उदाहरण द्वारा देश के सामने रख दिए उनसे कम स्वीकार करने को लोग अब तैयार नहीं। कम से कम अब भाजपा शासित राज्यों में सब को मोदी जैसा मुख्यमंत्री चाहिए। मुख्यमंत्रियों की जिम्मेदारी न केवल अपने प्रति होगी, वरन अपने मंत्रियों और अधिकारियों के प्रति भी होगी। लोगों की अपेक्षाएं कितनी मर्मस्पर्शी होती हैं इसे तो गांवों में जाकर ही समझा, जाना और पहचाना जा सकता है। उत्तर प्रदेश में लोगों को बड़ी आशाएं हैं कि ‘मोदी की सरकार’ के बाद पुलिस और कचहरी में वसूली खत्म हो जाएगी, बिजली के टूटे खंभों को खड़ा करने के लिए गांववालों को चंदा करके नजराना नहीं देना होगा और उससे भी बड़ी बात बिजली आएगी और रोज आएगी। अस्पतालों में डॉक्टर और दवाई मिलेगी, सूखा राहत का पैसा, जिसका पता ही नहीं चलता है कि कहां गया, ढूंढ़ा जाएगा और लोगों को दिया जाएगा। गन्ना किसानों के साथ लगातार होता रहा अन्याय बंद होगा। उत्तर प्रदेश में सरकारी शिक्षा अब केवल भ्रष्टाचार का पर्याय मात्र बनकर रह गई है। कुछ बच्चों को लैपटॉप बांटने से शिक्षा नहीं सुधर जाती है। सामंतशाही की प्रवृत्तियां समाप्त होनी ही चाहिए। हर बच्चे को उसके नैसर्गिक अधिकार मिलने ही चाहिए। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा सबसे पहले आते हैं। उत्तर प्रदेश के युवाओं ने नया इतिहास रचा है। उन्होंने जाति-धर्म से ऊपर उठकर अपनी समझ के आधार पर मतदान किया है। यह प्रजातांत्रिक मूल्यों की पुन: प्रतिष्ठापना की दिशा में मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है, यदि नई सरकार अपने उत्तरदायित्व का निष्ठा से निर्वाह करने में समर्थ हो सके। जातिगत आधार पर की गई अनगिनत नियुक्तियों को परिवर्तित करना ही होगा। सरकारी भर्तियों में लेन-देन बंद करना होगा और लोगों को इस पर विश्वास में लेना होगा। सभी के बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की सर्वोपरि अपेक्षा को पूरा करने की तैयारी सभी नई सरकारों को युद्ध-स्तर पर करनी चाहिए।
[ लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं ]