यह किसी से छिपा नहीं कि चीन दूसरे देशों को कर्ज के जाल में फंसाकर अपने हितों की पूर्ति करता है। हाल में इसकी एक और मिसाल तब देखने को मिली जब वह श्रीलंका के सामरिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण बंदरगाह हंबनटोटा को हथिाने में कामाब रहा। चीन ने श्रीलंका को बड़े पैमाने पर कर्ज दिा था। श्रीलंका उसे अदा नहीं कर पाा और इसके एवज में उसे बंदरगाह की कमान चीन को सौंपनी पड़ी। हिंद महासागर स्थित इस बंदरगाह के लिए चीन को मिली 99 साल की लीज एक तरह से इतिहास को ही आईना दिखा रहा है। एक सम चीन को अपने तमाम बंदरगाह पश्चिम के उपनिवेशवादी देशों को सौंपने पड़े थे। इसे चीन ‘सदी की सबसे बड़ी प्रताड़ना’ मानकर संताप करता है। इसकी शुरुआत 1839 से 1860 के बीच चले अफीम युद्ध के साथ हुई और 1949 में साम्वादिों के सत्ता संभालने तक जारी रही। अब चीन भी वही दोहरा रहा है। क्या हंबनटोटा को चीन को सौंपकर श्रीलंका के लिए भी उसी ‘प्रताड़ना के दौर’ की शुरुआत हो चुकी है? चीन के लिए हंबनटोटा को हड़पना उसकी वन बेल्ट वन रोड यानी ओबोर नीति का बहुप्रतीक्षित फल है। बुनियादी ढांचे से जुड़ी इस परिोजना को चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ‘सदी की सबसे बड़ी परिोजना’ करार दे चुके हैं। गरीब देशों की कुछ बुनिादी ढांचागत जरूरतों को पूरा करने की आड़ में चीन अपने पैसों और इंजीनिरिंग कौशल के दम पर ओबोर जैसी योजनाओं के माध्म से अपने सामरिक चंगुल में फंसा रहा है। मदद के बदले साङोदार देशों को अपने प्राकृतिक संसाधनों की पहुंच चीन के लिए सुनिश्चित करनी पड़ती है। इसमें खनिज संसाधनों से लेकर बंदरगाह तक शामिल होते हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन ने हाल में ओबोर के बारे में कहा कि इसका मकसद अपने खुद के कानून और प्रावधान त करना है। हंबनटोटा पर चीन की कुदृष्टि दोहरी विडंबना को जाहिर करती है। 1997 में उसे हांगकांग पर अपने अधिकार वापस मिले और वहां चीनी प्रभुसत्ता पुन: स्थापित हुई। 19वीं सदी में चीन इसे ब्रिटेन को लीज पर देने के लिए मजबूर हुआ था जिसे वह ऐतिहासिक अन्याय बताता आया है, लेकिन वही चीन अब हांगकांग शैली वाली औपनिवेशिक व्वस्था बनाने पर आमादा है। एक नए ‘हांगकांग’ के तौर पर हंबनटोटा चीनी राष्ट्रपति चिनफिंग के उसी वादे को दर्शाता है कि वह ‘चीनी राष्ट्र का पुनरोत्थान’ करेंगे जिसमें दूसरे अन्य छोटे देशों की संप्रुभता पर आघात होगा। चीन अब यूरोपी औपनिवेशिक काल में सीखी तिकड़मों का ही इस्तेमाल कर रहा है। उस सम चीनी राष्ट्रवादी क्रांति के नेता सन यात सेन ने कहा था, ‘जहां भारत ब्रिटेन की पसंदीदा पत्नी है तो चीन सभी बड़ी ताकतों की साझा रखैल।’ 99 साल लीज की अवधारणा भी यूरोपी औपनिवेशिक विस्तार से निकली है। चीन ने बहुत दूर की सोचते हुए ह रणनीति अपनाई है। श्रीलंका ने 1.1 अरब डॉलर की कर्ज माफी के एवज में हंबनटोटा बंदरगाह चीन को सौंप दिा। इससे कुछ वक्त पहले चीन की ही एक कंपनी ने ऑस्ट्रेलिया के डीप वाटर पोर्ट डार्विन का अधिग्रहण किा जो 1,000 से अधिक अमेरिकी मरीन्स का ठिकाना है। चीनी कंपनी ने 2015 में ह सौदा 38.8 करोड़ डॉलर में किा जिसमें उसे 99 साल की लीज मिली। 1बीजिंग ने अपनी कंपनिों को इसके लिए खूब प्रोत्साहित किया है कि वे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बंदरगाहों को खरीदने की हरसंभव कोशिश करें। बुरी तरह से कर्ज के बोझ तले ग्रीस ने भी भूमध्य सागर में स्थित पिरास का अपना प्रमुख बंदरगाह पिछले साल चीन को बेच दिा। अब चीन इस बंदरगाह को यूरोप में ओबोर के प्रवेश के ‘ड्रैगन हेड’ के रूप में विकसित कर रहा है। हंबनटोटा हिंद महासागर के प्रमुख व्यापारिक मागोर्ं के बीच में है। यह ध्यान रहे कि अंतरराष्ट्री मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाले कर्ज के उलट चीन से मिलने वाले कर्ज का गणित एकदम अलग है। चीनी अनुबंध उसी की एकतरफा शतोर्ं पर होते हैं। चीन किसी देश के रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण संसाधनों के दीर्घावधिक उपोग को ध्यान में रखकर ही कर्ज देता है। हंबनटोटा बंदरगाह का चीन को हस्तांतरण श्रीलंका के आत्मसम्मान और संप्रभुता पर भी आघात है। ह पुराने जमाने की बॉलीवुड फिल्मों की तरह है जहां कर्ज न चुका पाने के चलते कर्जदार को अपनी बेटी क्रूर साहूकार को सौंपनी पड़ती थी। चीन रियायती दरों पर कर्ज नहीं, बल्कि परिोजना आधारित कर्ज देता है, जिसमें न तो पारदर्शिता होती है और न ही पर्यावरण प्रभाव का आकलन। 1चीन एक तीर से दो शिकार करने की रणनीति पर काम कर रहा है। उसने घरेलू स्तर पर उत्पादन की असीम क्षमताएं हासिल कर ली हैं। वह बड़े पैमाने पर निर्यात करके अपने रणनीतिक हितों को साध रहा है। इसमें कूटनीतिक प्रभाव बढ़ाना, प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच बनाना, अपनी मुद्रा को बढ़ावा देना और प्रतिद्वंद्वी देशों के मुकाबले बढ़त हासिल करने जैसे पहलू शामिल हैं। ओबोर इसे अमली जामा पहनाने का मुख् जरिा है जो मुख्त: एक साम्राज्वादी परिोजना है। जहां यूरोपी औपनिवेशिक ताकतें नए बाजारों तक पहुंचने और उपनिवेश बनाने के लिए बाहुबल वाली कूटनीति का सहारा लेती थीं वहीं चीन बिना एक भी गोली दागे अपने कर्ज के जाल में फंसाकर दूसरे देशों को अपना दास बनाने पर तुला है। एक वक्त अंग्रेज चीन को अफीम का निर्यात करते थे। चीन से आसानी से मिलने वाले कर्ज की तासीर भी कुछ वैसी ही नशीली है। कोई देश एक बार कर्ज में फंसा तो फिर उस पर चीन का शिकंजा लगातार कसता ही जाता है। 1अपनी आक्रामक अर्थनीति के माध्म से चीन तेजी से दुनिा भर में पांव पसार रहा है। मिसाल के तौर पर जिबूती जब चीन के भीमका कर्ज के बोझ तले दब गा तो चीन ने वहां अपना पहला विदेशी सैन् अड्डा स्थापित कर लिा। जिबूती भले ही छोटा सा देश हो, लेकिन इसकी सामरिक महत्ता है। हां से कुछ ही दूरी पर अमेरिका का एक बड़ा नौसैनिक अड्डा है। चीनी कर्ज के भंवर में फंसे जिबूती को सालाना दो करोड़ डॉलर के बदले में चीन को जमीन लीज पर देनी पड़ी। तुर्कमेनिस्तान से गैस आपूर्ति के लिए भी चीन ने कर्ज का ही जाल बुना। तमाम अन् देश भी चीन के कर्ज-जाल में फंसे हैं जिनमें अर्जेंटीना, वेनेजुएला, केन्या, नामीबिा, जिम्बॉब्वे, कंबोडिया और लाओस जैसे देश शामिल हैं। जल्द ही इस सूची में और कई नाम जुड़ सकते हैं। जैसे अगर केन्या की वित्ती नैा डगमगाती है तो उसके सबसे व्स्त बंदरगाह मोंबासा का हश्र भी हंबनटोटा की तरह होगा। ऐसे देश निर्ण लेने की अपनी आजादी से लेकर अपनी बहुमूल् प्राकृतिक संपदा को भी गंवा रहे हैं। ऐसे में सबक ही है कि जो भी देश अभी तक चीनी कर्ज के मााजाल में नहीं फंसे हैं वे उसके साथ साझेदारी करने से पहले उसकी शर्तों पर पुनर्विचार अवश्य करें।

(लेखक सामरिक मामलों के जानकार और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो हैं)