दिल्ली ने बदलाव के लिए मतदान किया है। चार राज्यों के नतीजे सामने आने के बाद कम से दिल्ली के मामले में यही बात आम तौर पर कही जाएगी और यह सही भी है। लेकिन सवाल यह है कि दिल्ली में किस तरह के बदलाव के लिए वोट दिया गया है। हां, दिल्ली ने यह बदलाव तो किया कि अब यहां सत्ताधारी दल कांग्रेस नहीं, बल्कि भाजपा होगी, लेकिन जो असली बदलाव हुआ है वह आम आदमी पार्टी द्वारा जीती गई सीटों की संख्या में देखा जाना चाहिए। तमाम एजेंसियों और समाचार संगठनों द्वारा किए गए चुनाव पूर्व और चुनाव बाद सर्वेक्षणों में आम आदमी पार्टी की सफलता की बात कही गई थी, लेकिन बहुत अधिक अनुमान आम आदमी पार्टी के 10-15 सीटों से अधिक स्थान हासिल करने के नहीं थे। यह सही है कि आम आदमी पार्टी ने अपने खुद के सर्वे में पार्टी को 47 सीटें मिलने की बात कही थी, लेकिन इसे भी बहुत लोगों ने उपहास का विषय बनाया। अब जब आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में उम्मीद से दोगुनी सीटें जीत ली हैं तो यह साफ हो गया है कि इस राज्य में किस तरह का बदलाव हुआ है और इस बदलाव का क्या मतलब है तथा देश की राजनीति में इसका क्या असर हो सकता है। बहस अब इसी मसले पर होनी चाहिए।

आप का उदय एक अर्थ में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का प्रतिफल है। इसे राजनीतिक शासन प्रणाली पर सिविल सोसाइटी के असर के परीक्षण के तौर पर भी देखा जा सकता है। स्थापित राजनीतिक दल एक लंबे अर्से से इस तरह के सभी आंदोलनों को राजनीतिक मैदान में उतरने और जनादेश हासिल करने की चुनौती देते रहे हैं। ऐसे आंदोलनों से अपेक्षा की जाती थी कि उन्हें राजनीति में उतरने के बाद ही राजनीतिक दलों के कामकाज पर टिप्पणी करने का अधिकार है। आप के प्रवेश ने कम से कम अभी के लिए इस पुरानी दलील को तोड़ दिया है।

तीन पहलू हैं जो इस चुनाव को खास और भारत के चुनावी इतिहास में मील का पत्थर बनाते हैं। एक तो स्पष्ट रूप से आप का राजनीति में चौंका देने वाला प्रवेश है और दूसरा पहलू है मतदान प्रतिशत में उल्लेखनीय वृद्धि। मतदान में अभूतपूर्व वृद्धि चुनाव वाले सभी पांच राज्यों में हुई। एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त के अनुसार पिछले 21 चुनावों से ऐसा ही हो रहा है। दिल्ली में मतदान प्रतिशत 2008 के 56.7 प्रतिशत से बढ़कर 2013 में 66 प्रतिशत हो गया। तीसरा पहलू नोटा की उपस्थिति है। जनता को यह अधिकार सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से मिला, जिसके आधार पर वह चुनाव में उतरने वाले सभी प्रत्याशियों को खारिज कर सकती है।

चुनाव में लगातार बढ़ रहे मतदान प्रतिशत के अनेक कारण हैं, जिनमें मतदाता सूची की साफ-सफाई और मतदाताओं को जागरूक करने के लिए चलाए जाने वाले आक्त्रामक अभियानों की प्रमुख भूमिका है। इन सभी का दिल्ली में भी खासा असर हुआ। मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी में एक पहलू यह अंतर्निहित है कि लोगों में राजनीतिक और चुनावी जागरूकता बढ़ रही है। पिछले अनेक वषरें से यह सिलसिला धीरे-धीरे ही सही, लेकिन लगातार चल रहा है। इस तरह की जागरूकता बढ़ने के पीछे आधारभूत कारण वर्तमान राजनीतिक वर्ग के खिलाफ लोगों में गुस्सा बढ़ना भी है। समय-समय पर चुने गए प्रतिनिधि यह कहते आए हैं कि यदि वह एक बार जीत गए तो अगले चुनाव होने तक वे कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं। इस गुस्से के लिए सत्ता में रही सभी राजनीतिक पार्टियां जिम्मेदार हैं। इसका जो प्राथमिक कारण है वह यही कि सभी राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का पूर्ण अभाव है। इन पार्टियों में उम्मीदवारों को टिकट इनाम के तौर पर दिया जाता है और मतदाताओं द्वारा उन्हें चुने जाने के पहले ही पार्टी जीता हुआ मान लेती है। मतदाताओं के प्रति वफादारी के अभाव के कारण ही लोगों में राजनेताओं के प्रति गुस्सा पैदा होता है। सरकारों के लगातार कुशासन के उदाहरण के कारण मतदाताओं और नागरिकों में निराशा पैदा होती है। यही कारण है कि विभिन्न राज्यों में समय-समय पर बदलाव की तीव्र इच्छा देखी जा सकती है। मीडिया रपटों से पता चलता है कि नोटा यानी नापसंदगी के अधिकार का प्रयोग अभी 0.6 फीसद से 10 फीसद के आसपास है। यह आंकड़े बहुत आश्वासन नहीं देते। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक यह नहीं निर्धारित किया है कि यदि नापसंदगी के पक्ष में अत्यधिक मतदान होता है तो क्या किया जाएगा अथवा होगा? चुनाव आयोग ने भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अक्षरश: मानने का निर्णय किया है, न कि उसकी मूल भावना को। आगामी चुनावों में नापसंदगी के बटन का पूरा प्रभाव देखने को मिलेगा और इस बात की पूरी संभावना है कि नापसंदगी के बटन का विकल्प होने के कारण आगे मतदान प्रतिशत में और अधिक इजाफा हो।

इस चुनाव में संभवत: सबसे महत्वपूर्ण पहलू आम आदमी पार्टी का विकल्प के रूप में उभरना है। अब सबसे अधिक अहम सवाल यह है कि यह पार्टी आने वाले समय में खुद को किस रूप में उभारती है। यह कसौटी दिल्ली में चुने गए उसके उम्मीदवारों के व्यवहार से ही आरंभ हो जाएगी। उसे यह याद रखना होगा कि दिल्ली वासी चाहे जो सोचते और महसूस करते हों, लेकिन दिल्ली देश नहीं है और जब तक वह उन अपेक्षाओं को नहीं पूरा कर पाएगी जो उसने जगा दी हैं तब तक उस पर वैसे ही व्यवहार से गुजरने का खतरा मंडराता रहेगा जो इस चुनाव में स्थापित दलों के साथ हुआ। दिल्ली भले ही पूरा देश न हो, लेकिन यह एक लंबे समय से भारत के लिए शक्ति का प्राथमिक केंद्र रहा है। लिहाजा दिल्ली की घटनाओं में देश की समूची राजनीतिक-सामाजिक प्रक्त्रिया पर असर डालने की क्षमता होती है। इस परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि दिल्ली के चुनाव नतीजे देश में नई राजनीति की शुरुआत हो सकते हैं। अगर यही रुझान पूरे अन्य विधानसभा चुनावों और आम चुनाव में भी जारी रहता है तो दिल्ली के इन चुनावों को देश के राजनीतिक और चुनावी इतिहास में लंबे समय तक याद रखा जाएगा।

[लेखक जगदीप एस. छोकर, आइआइएम अहमदाबाद में कार्यवाहक निदेशक रहे हैं और ये इनके निजी विचार हैं]

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