शंकर शरण

एक साथ दो समाचार अगल-बगल छपे हैं। पांच जुलाई को प्रकाशित इन समाचारों के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में एक पीठ ने चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया पारदर्शी होना जरूरी बताया और आगे इस पर सुनवाई की तारीख दे दी। दूसरी ओर उसी दिन सर्वोच्च न्यायालय की ही दूसरी पीठ ने न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठाए। जस्टिस कर्नन मामले पर फैसला देते हुए दूसरी पीठ ने कहा कि न्यायाधीशों के चयन की पद्धति सवालों के घेरे में है, जिसका समाधान निकालना चाहिए। मजे की बात यह है कि चुनाव आयुक्तों के मामले में न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि अभी तक सभी चुनाव आयुक्त सुयोग्य रहे हैं। जबकि न्यायाधीशों के बारे में यह बात स्वयं कई न्यायाधीश ही नहीं कहते। उलटे हाल में केंद्रीय कानून मंत्री यह कह चुके हैं कि जब तक न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका कर रही थी तब तक कर्नन जैसे न्यायाधीश नहीं हुए थे। इशारा साफ था कि जब से न्यायाधीशों की नियुक्ति स्वयं न्यायपालिका ने अपने हाथ ले ली है तभी से गुणवत्ता गिरी है। इस मामले में एक गंभीर तथ्य यह भी है कि सर्वोच्च न्यायालय की कोलेजियम पद्धति द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति की अनुशंसा करने में कोई विवरण, मिनट्स नहीं रखा जाता। अर्थात कोलेजियम की बैठक में क्या बातें हुईं, किन न्यायाधीशों ने प्रस्तावित नामों पर क्या कहा, किसी की अनुशंसा करने या न करने के पक्ष या विरुद्ध क्या बातें कही गईं आदि का कोई रिकॉर्ड नहीं रहता। यह कितनी विचित्र बात है, इसे स्वत: समझा जा सकता है।
यह आश्चर्यजनक है कि जहां बहुत निचले स्तर की सरकारी बैठकों तक की मिनट्स रखी जाती है ताकि निर्णय की प्रमाणिकता, गंभीरता, पारदर्शिता दर्ज रहे वहीं सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के जजों की नियुक्ति की अनुशंसा करने में कोई मिनट्स न रखे जाएं। ऐसा नहीं कि यह अनजाने हो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ न्यायाधीश ने इसकी मांग भी की और नहीं माने जाने पर कोलेजियम की बैठक में शामिल होने से इन्कार कर दिया, फिर भी बिना मिनट्स वाली प्रक्रिया यथावत है। क्या इससे स्पष्ट नहीं कि हमारे सर्वोच्च न्यायपालों के विचारों में गहरा अंतर्विरोध है? ध्यान दें कि यह कितना बड़ा अंतर्विरोध है कि दूसरों से नियुक्तियों में पारदर्शिता की मांग करना और दूसरी ओर स्वयं द्वारा की जाने वाली नियुक्तियों को एकदम छिपा हुआ रखना ताकि अगला सर्वोच्च न्यायाधीश भी न जाने सके कि किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की अनुशंसा किन आधारों पर किसने की थी। कई पूर्व और वर्तमान न्यायाधीश तक इस पर सवाल उठा चुके हैं। हमारे संविधान ने न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था कार्यपालिका को दी थी। वही व्यवस्था चार दशकों तक चलती रही, जब तक कि 1993 से सर्वोच्च न्यायालय ने उसमें अपने द्वारा अनुशंसा वाली कोलेजियम व्यवस्था न जोड़ दी। अब जबकि इसके परिणाम भी अच्छे नहीं आए तब तो इस पर ध्यान देना ही चाहिए। इस पर विचार करने से ही इन्कार करना, वह भी स्वयं दूसरे सर्वोच्च न्यायाधीशों के कहने के बावजूद, यह सचमुच एक अभूतपूर्व स्थिति है। याद रहे कि जस्टिस कर्नन से पहले भी कुछ न्यायाधीश अन्य न्यायाधीशों पर आरोप लगा चुके हैं, लेकिन इनकी कोई जांच-पड़ताल या विमर्श नहीं हुआ। इसके अलावा न्यायपालिका की अंदरूनी गिरावट पर सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व चीफ जस्टिस सव्यसाची मुखर्जी, जस्टिस काटजू, जस्टिस रूमा पॉल आदि ने प्रश्न उठाए हैं। उनकी बातें अनाधिकार नहीं हैं। चूंकि वे उसी तंत्र के दशकों अंग रहे इसलिए यह बात असंदिग्ध है कि न्यायपालिका की स्थिति और विशेषकर उच्च और सर्वोच्च न्यायाधीशों की नियुक्ति की चालू प्रक्रिया संतोषजनक नहीं है। पारदर्शी तो बिलकुल भी नहीं है।
यह न्यायिक नियुक्तियों की विडंबना है कि स्वयं न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्याय न दिखे, जबकि यह कहावत है कि न्याय होना ही नहीं, होते हुए दिखना भी चाहिए। न्यायपालिका की अपनी गड़बड़ियां को ठीक करने का उपाय सर्वोच्च न्यायपालों को करना चाहिए। यह उनके अपने अधिकार-क्षेत्र में है, पर इसके बजाय उलटे वे कार्यपालिका पर जब-तब तंज कसते रहते हैं। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर पारदर्शिता की बात करना वैसी ही चीज है। जबकि अपने विषय में वे मानने को तैयार नहीं कि खुद अपनी नियुक्ति करने जैसे अधिकार ले लेने और कार्यपालिका के कामों में अनावश्यक दखलंदाजी करने में कुछ भी गलत है।
हमारे उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में उत्तम और सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश होने चाहिए। ऐसा है या नहीं, इस प्रश्न से न्यायपालिका बच रही है। उच्चतर न्यायालयों के न्यायाधीश खुद तय करने की व्यवस्था अनुचित है। दुनिया में कहीं ऐसा नहीं है। न यह हमारे संविधान में है, न सामान्य बुद्धि से ठीक है। हमारे नेताओं ने अपने अज्ञान और दलगत क्षुद्रता में न्यायपालिका को वह अधिकार लेने दिया जो उसे संविधान ने नहीं दिया था। यदि इसे ‘न्यायिक स्वतंत्रता’ कह कर सही मानें तब उसी तर्क से विधानसभाओं की कार्रवाइयों में हस्तक्षेप का अधिकार न्यायालयों को कैसे है? यह तो विधायिका की स्वतंत्रता में अनुचित हस्तक्षेप हुआ। यदि उच्चतर न्यायपालिका अपने उत्तराधिकारी खुद तय कर रही है तो विधायिका और कार्यपालिका भी अपने उत्तराधिकारी क्यों न तय करे? न्यायाधीशों के कोलेजियम की तर्ज पर सांसदों का कोलेजियम देखे कि अगले सांसद कौन-कौन होंगे। आखिर न्यायिक स्वतंत्रता की तरह विधायिका, कार्यपालिका की स्वतंत्रता भी जरूरी है। सभी जगह मनुष्य ही काम करते हैं। मनुष्य वाली खूबियां-खामियां सब में होंगी। हमारे न्यायपाल उससे मुक्त नहीं हैं। अब तक विविध प्रकार के कई कर्नन यह दिखा भी चुके हैं। इसके अलावा अतीत में ऐसे-ऐसे न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट लाए गए जो हाईकोर्ट में ही रोजाना तीन घंटे लेट आते थे। सुप्रीम कोर्ट आकर भी उन का वही रवैया रहा। ऐसे न्यायाधीश भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे जिन्होंने पूरे कार्यकाल कभी कोर्ट में एक शब्द नहीं कहा, न कोई निर्णय लिखा। एक न्यायाधीश ने निर्णय लिखने में महीनों देरी पर कहा था कि उन्हें ‘निर्णय लिखने की तनख्वाह नहीं मिलती।’ यह सब दिखाता है कि उच्चतर न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार खुद ही ले लेने के बाद कोई अच्छा परिणाम नहीं मिला।
लोकतंत्र में सरकार के तीनों अंगों के बीच ‘शक्तियों का पृथक्करण’ (सेपेरेशन ऑफ पावर) होता है। यही अमेरिका में भी है, लेकिन वहां सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका प्रमुख अपने अधिकार से करता है। उसकी पुष्टि विधायिका करती है। न्यायाधीश खुद अपने उत्तराधिकारी की अनुशंसा नहीं करते। वहां सरकार का कोई अंग अपने को नियुक्त नहीं करता। विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका, तीनों की नियुक्तियां दूसरे करते हैं, लेकिन नियुक्त हो जाने के बाद उसके काम में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। यह तीनों अंगों की स्वतंत्रता के साथ-साथ निगरानी और संतुलन की व्यवस्था है। भारत में जो हो रहा है वह न्यायपालिका में आई विकृति है। न्यायाधीशों ने खुद अपने को नियुक्त, अनुशंसित करने और साथ ही रिटायरमेंट बाद विविध आयोगों, अधिकरणों में पुनर्नियुक्त होने, करने की ताकत अपने हाथ ले ली है। यह न्यायिक कार्य को प्रभावित करता है। कम से कम अब तो इस पर नए सिरे से विचार होना चाहिए।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं स्तंभकार हैं)