सैयद अता हसनैन

राजपूताना राइफल्स के 23 वर्षीय लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की दक्षिण कश्मीर में आतंकियों द्वारा हत्या पर देश भर में उपजा आक्रोश दर्शाता है कि भारत में उन कश्मीरियों को बेपनाह प्यार मिलता है जो आज भी भारतीयता के भाव से भरे हुए हैं। कश्मीर घाटी में अभी माहौल बहुत गर्माया हुआ है। जहां अलगाववादियों की पकड़ मजबूत हो रही है तो भारत के पक्ष में आवाजें कमजोर पड़ रही हैं। असल में यह फैयाज जैसे जांबाज लोग ही होते हैं जो इन बातों की परवाह किए बिना अपनी भारतीय पहचान पर गर्व करते हुए उन्हें चुनौती देते हैं जिसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर सबसे बड़ी कुर्बानी के रूप में चुकानी पड़ती है। कुलगाम के गरीब किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले फैयाज की पढ़ाई अनंतनाग में हुई। रोमांच और फौजी वर्दी के आकर्षण ने उन्हें सेना से जुड़ने को प्रेरित किया। कड़ी परीक्षा पास कर वह राष्ट्रीय रक्षा अकादमी यानी एनडीए पहुंचे। वहां उम्दा खिलाड़ी की ख्याति अर्जित की और आखिरकार राजपूताना राइफल्स यानी आरआर में उनकी तैनाती हुई। उनकी तैनाती भी बेहद बहादुर मानी जाने वाली 2-राजपूताना राइफल्स बटालियन में हुई जिसने करगिल युद्ध के दौरान असाधारण पराक्रम से टोलोलिंग पहाड़ी को जीता। दिसंबर, 2016 में तैनाती के बाद फैयाज ने पारिवारिक शादी में शरीक होने के लिए पहली बार छुट्टियां ली थीं। दक्षिण कश्मीर में आवाजाही के लिए यह माकूल वक्त नहीं है और सावधानी के बिना तो बिलकुल भी नहीं। कुछ दिन पहले ही इसी इलाके में आतंकियों ने पांच पुलिसकर्मियों और दो बैंक सुरक्षाकर्मियों की हत्या की थी। वे सब भी स्थानीय कश्मीरी ही थे। मीर बाजार टाउनशिप के पास भी आतंकियों ने दो स्थानीय पुलिसकर्मियों और दो नागरिकों को भी मौत के घाट उतार दिया। अतीत में भी पुलिसकर्मी आतंकी समूहों का निशाना बनते रहे हैं। खासतौर से परिवार के साथ वक्त बिताने या पैतृक स्थानों पर मौजूदगी के दौरान उन पर घात लगाकर हमले किए गए।
हालांकि ऑफ ड्यूटी निहत्थे पुलिसकर्मियों को निशाना बनाने की क्रूरता वाले मामले बहुत आम नहीं थे। सेना में कश्मीर घाटी के सैनिकों की अच्छी-खासी तादाद है। इनमें तमाम पूर्व सैनिक भी शामिल हैं जिनमें अधिकांश जेएके लाइट इंफैंट्री या जेएंडके राइफल्स से हैं। वर्ष 2003 में रोजगार अवसरों को बढ़ाने के लिए सेना ने भूमिपुत्रों की अवधारणा पर कई टेरिटोरियल सेनाएं बनाईं। इनमें भर्ती किए गए कुछ सैनिकों को उनके घरों में ही निशाना बनाया गया और इस रुझान ने जितनी तेजी से जोर पकड़ा उतनी जल्दी ही दम भी तोड़ दिया। जम्मू-कश्मीर पुलिस को योजनाबद्ध रूप से निशाना बनाने की घटनाएं बुरहान वानी की मौत के बाद साल 2016 के अंत से देखने को मिलीं। इसका मकसद पुलिस का हौसला पस्त करना था ताकि पुलिसकर्मी खुद को सेना का सक्षम सहयोगी बनाने से रोकें। यह सबक 2010 के विरोध प्रदर्शनों से लिया गया था। फिर भी निशाना बनाकर हत्याएं नहीं की जा रही थीं। इस साल पुलिस महानिदेशक को हिदायत देनी पड़ी कि पुलिसकर्मी अपने गांव जाने से परहेज करें। हालांकि खुफिया रिपोर्ट सैन्य कर्मियों के खिलाफ किसी सुनियोजित अभियान का संकेत नहीं करतीं। जम्मू-कश्मीर में सीमा-पार प्रायोजित छद्म आंतरिक संघर्ष में कुछ अघोषित नियम रहे हैं। एक तो यही था कि ऑफ ड्यूटी वाले स्थानीय पुलिसकर्मियों और सैनिकों पर हमले से परहेज किया जाए। देश के खिलाफ हथियार उठाने वाले ये लोग भी जानते थे कि सरकार अपनी पूर्ण सैन्य शक्ति का उपयोग नहीं करेगी, लिहाजा उन्हें भी एक सीमा के दायरे में रहना होगा। वे देश की ताकत से भी भली-भांति वाकिफ रहे कि अगर उन्होंने अपनी दहलीज लांघी तो उसके क्या नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं। ऑफ ड्यूटी वाले निहत्थे पुलिसकर्मियों और सैनिकों पर अकस्मात हमला और वह भी स्थानीय झगड़े की आड़ में कभी उकसावे के तौर पर नहीं देखा गया। क्या इसमें बदलाव आ रहा है और अगर आ रहा है तो क्यों?
इसका जवाब है-हां। आतंक का स्वरूप बदल रहा है और एहतियात की पुरानी दीवार दरकती दिख रही है। ऐसी चीजें तभी होती हैं जब अभियान में कामयाबी पास दिखने लगे। या ऐसा तब भी होता है जब दुश्मन खेमे को लगे कि सफलता की राह में कुछ अस्थाई दुश्वारियां भी आ गई हैं। यहां अस्थाई अवरोध इस रूप में पैदा हुआ है कि तमाम युवा कश्मीरियों ने राष्ट्रीय स्तर पर कई बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं। खेलों से लेकर सांस्कृतिक गतिविधियों, सिविल सेवा, आइआइटी जैसे तमाम मंचों पर कश्मीरी युवाओं ने स्वप्निल सफलता हासिल की है। ऐसी सफलताओं से कश्मीरी मुख्यधारा में आगे बढ़ेंगे। भारत हमेशा से यही चाहता रहा है जबकि अलगाववादी इस प्रक्रिया को पटरी से उतारने पर आमादा रहते हैं। केवल इन्हीं क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि सेना, बीएसएफ, सीआरपीएफ और पुलिस की भर्तियों के दौरान भी कश्मीरी युवाओं की भीड़ उमड़ने से भी अलगाववादियों और उनके आकाओं के पेट में मरोड़ उठने लगती है। बुरहान वानी के शहर त्राल का हाल ही देख लीजिए। हिजबुल मुजाहिदीन के लिए तमाम आतंकी देने वाले इस शहर ने भारतीय सेना के लिए उससे कहीं ज्यादा सैनिक दिए हैं। ऐसे में कश्मीर घाटी से संबंध रखने वाले कई विश्लेषक मानते हैं कि बड़ी तादाद में खामोश लोग अवसरों की बाट जोह रहे हैं। ये वे लोग हैं जिनके पास सामने आने का साहस नहीं है। मुख्यधारा से जोड़ने वाला अभियान, रोजगार के अवसरों की सौगात और जरा से हृदय परिवर्तन से उनमें हिम्मत भरी जा सकती है। पाकिस्तान और उसके हिमायती आश्वस्त हैं कि स्थानीय समाज से नए नायकों का उभार और मुख्यधारा का यह संबंध काफी हद तक संभव है जो उनकी शातिर योजनाओं के लिए नुकसानदेह है। दक्षिण कश्मीर में आतंकी जड़ें मुख्य रूप से स्थानीय स्तर पर ही पोषित हुई हैं और उसमें नरमी का भाव अब बदल रहा है जिसमें लोगों को यही संदेश दिया जा रहा है कि या तो हमारे साथ मिलकर काम करो वरना खामियाजा भुगतो। हालिया घटनाएं स्थानीय आतंकी समूहों के इसी डर और अपने लक्ष्य के नजदीक होने की गफलत का ही नतीजा हैं। ये रुझान कैसे बड़े खतरे का रूप अख्तियार कर सकते हैं? यह समझना बड़ा आसान है। दक्षिण कश्मीर में सेना और पुलिस की समुचित मौजूदगी नहीं है। असल में सेना का पूरा ध्यान सीमा पार से होने वाली घुसपैठ रोकने पर लगा होता है जो इलाका उत्तरी कश्मीर में आता है। वहीं सोपोर, हंदवाड़ा, बारामूला और पट्टन जैसे शहरों पर भी ध्यान देना बेहद जरूरी हो जाता है और ये भी उत्तर में ही पड़ते हैं। कश्मीर में पुलिस के स्तर पर व्यापक बदलाव की दरकार है। अनुभवी पुलिसकर्मियों को जल्द से जल्द दक्षिण कश्मीर में तैनात किया जाए। सेना को भी पीरपंजाल श्रेणी के नीचे से सेना को बुलाकर दक्षिण कश्मीर में आतंकियों की आवाजाही पर नकेल कसने की जरूरत है।
आतंकी जिन सीमाओं को लांघ रहे हैं उससे दो और मोर्चों पर खतरा बढ़ने की आशंका है। पहला खतरा तो अल्पसंख्यकों की सुरक्षा से जुड़ा है। चिट्ठी सिंहपुरा और नंदीमार्ग को नहीं भूलना चाहिए। दूसरा संभावित खतरा अमरनाथ यात्रा और भारतीय पर्यटकों को हो सकता है। ये बेहद गंभीर मसला है जिस पर उतनी ही गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। मुश्किल घड़ी में एक मौके ने भी दस्तक दी है। लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की शहादत अलगाववादियों के लिए ताबूत में कील भी साबित हो सकती है। यह सुनिश्चित करने के लिए सरकार को हवा का रुख भांपना होगा। हवा के रुख को मोड़ना कभी भी आसान नहीं होता, लेकिन यह भी मत भूलिए कि कोई भी बड़ी चीज रातोंरात नहीं तैयार हो जाती।
[ लेखक सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हैं ]