हर साल बरसात के मौसम में मेंढक टर्र-टर्र का शोर मचाकर कुछ कहने की कोशिश करते हैं। इसी तरह चुनावों के दौरान भी कुछ बरसाती मेंढक सियासी सतह पर आकर जोर-जोर से शोर मचाना शुरू कर देते हैं। वे कुछ ऐसी प्रतीति कराते हैं कि ‘मुस्लिम वोट धर्मनिरपेक्ष हैं, हिंदू वोट सांप्रदायिक हैं। हिंदुस्तानियत कायम रहे और संविधान की जय-जयकार हो।’ इन दिनों नेता या प्रशासनिक अधिकारी नहीं, बल्कि जमीयत-ए-इस्लामी हिंद, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद संविधान के सबसे बड़े पैरोकर बने हुए हैं। पिछले एक साल से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ‘संविधान की रक्षा, धर्म की रक्षा’ के बैनर तले सिलिसिलेवार ढंग से सम्मेलन आयोजित करता आ रहा है। उनके मुताबिक अगर इस्लाम खतरे में है तो संविधान भी निश्चित रूप से खतरे में आ जाएगा। उनके लिए संविधान और इस्लाम अलग-अलग नहीं हैं। पिछले हफ्ते एक उर्दू अखबार में ‘मुसलमानों का इम्तिहान’ शीर्षक से एक खबर प्रकाशित की। उसका मजमून कुछ ऐसा था, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले चरण में मुसलमानों की कड़ा इम्तिहान होना है। जरा कल्पना कीजिए कि अगर किसी अन्य भाषा के अखबार ने ‘हिंदुओं का इम्तिहान’ शीर्षक से ऐसी खबर लगाई होती तो पूरे देश में कितना बड़ा बखेड़ा खड़ा हो जाता? संभवत: सरकार उस अखबार को निशाने पर ले लेती या फिर उसे सांप्रदायिक करार दे दिया जाता, मगर जब उर्दू अखबार ऐसा करे तो यह धर्मनिरपेक्ष हो जाता है। दरअसल लोगों के दिमाग पर एक विचारधारा का भूत हावी है। भारत में इस तथाकथित विचारधारा को ही धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है। धर्मनिरपेक्षता भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बड़े खतरे के रूप में उभरी है। हर एक नेता, पुलिस अधिकारी, पत्रकार और यहां तक कि प्रत्येक धर्मगुरु जानता है कि धर्मनिरपेक्षता भारत की मूल आत्मा पर चोट कर रही है, मगर हर कोई यही दर्शा रहा है कि सब कुछ दुरुस्त है।
पुलिस अधिकारी कानून व्यवस्था को चलाने के लिए धर्मनिरपेक्षता को मूल मंत्र मानते हैं। जब कमलेश तिवारी ने इस्लाम के पैगंबर पर कुछ कहा तो पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया, मगर उन्हीं पुलिस अधिकारियों के सामने न जाने क्या मुश्किल आ गई कि वे बिजनौर के उस इस्लामिक फतवेबाज को छू भी नहीं पाए जिसने तिवारी का सर कलम करने वाले के लिए 51 लाख रुपये के इनाम का ऐलान किया। धर्मनिरपेक्षता एक तरह से भारत का राष्ट्रीय खेल बन गई है जिसमें हर कोई भाग ले रहा है, हर कोई अंदाजा लगा रहा है, सभी तालियां बजा रहे हैं और हकीकत से मुंह चुरा रहे हैं। यह हकीकत बड़ी ताकतवर है। यह दिमाग पर हावी हो जाती है। एक उर्दू अखबार में 7 फरवरी को प्रकाशित आलेख में मुहम्मद जसीमुद्दीन निजामी ने भारत में धर्मनिरपेक्षता के चलन की बड़ी दिलचस्प मिसालों के साथ व्याख्या की। एक चोर मंदिर में घुस आता है। भगवान के प्रति पूर्ण आस्था के साथ ही वह पवित्र तौर-तरीके भी अपनाता है, मगर उसका मूल मकसद हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां चुराना है। तभी उसका ध्यान मंदिर की ओर बढ़ रहे कदमों की ओर जाता है। वह देखता है कि एक आदमी बिना जूते उतारे ही मंदिर में घुसा आ रहा है। इस पर चोर कुपित हो जाता है। वह उसे चेताता है कि ‘अगर मैं पूजा न कर रहा होता तो मैं मंदिर को अपवित्र करने की इस कोशिश की तुम्हें जरूर सजा देता।’ यहां चोर धर्मनिरपेक्ष है। यही भारतीय समाज की सच्चाई है जहां धर्मनिरपेक्ष विचारधारा की डोर एक तरह के चोरों ने संभाल रखी है। इन दिनों धर्मनिरपेक्ष नजरिये में दलित-मुस्लिम एकता बेहद जरूरी मानी जा रही है। बीती 21 जनवरी को मुंबई में एक सम्मेलन के दौरान मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना खलीबुर रहमान नोमानी ने दलित नेता वामन मेश्राम से हाथ मिलाते हुए समान नागरिक संहिता पर कोई भी कानून बनाने को लेकर खुलेआम चेतावनी देते हैं। ध्यान दें कि 1986 में भी शाहबानो मामले में ऐसी ही धर्मनिरपेक्षता उच्चतम न्यायालय के फैसले पर भारी पड़ गई थी।
एक दूसरे उर्दू दैनिक में सेवानिवृत्त न्यायाधीश सुहेल सिद्दीकी के हवाले से लिखा गया है कि वक्त की जरूरत है कि मुसलमान दलितों के साथ मिलकर अपनी समस्याओं का हल निकालें। आत्मतुष्टि के साथ सिद्दीकी ने कहा कि उन्होंने चुपचाप सैकड़ों अल्पसंख्यक संस्थानों को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दिया और कभी इस बाबत किसी अखबार को बताना मुनासिब नहीं समझा। एक अन्य उर्दू दैनिक में अपनी तरह के अनोखे आलेख में सूफी धर्मगुरु सैयद आलमगीर अशरफ ने कुछ अरब मान्यताओं का हवाला दिया। उन्होंने लिखा, ‘भारतीय लोगों और देश के लोकतंत्र का मर्म यही है कि यहां चुनाव धर्म, रंग और नस्ल के आधार पर नहीं लड़े जाते। इसके बावजूद मतदान से कुछ दिन पहले इस्लाम खतरे में पड़ जाएगा और हिंदू भी मुश्किल में आ जाएंगे। केवल चुनाव ही हैं जो मुसलमानों के इस्लाम और हिंदुओं को तमाम खतरों से महफूज रखेंगे।’ दलित-मुस्लिम एकता पर टीका-टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा, ‘ऐसा गठजोड़ आवश्यक हो गया है, लेकिन इसका मकसद किसी खास व्यक्ति या पार्टी को हराना नहीं, बल्कि सच, न्याय, तरक्की और इंसानियत की जीत के लिए जरूरी है।’
धर्मनिरपेक्षता के दो मायने हैं। पहला तो यही कि विचारों के आंदोलन के रूप में यह समाज पर धर्म के अत्यधिक प्रभाव को घटाता है। इस स्वरूप में धर्मनिरपेक्षता रूढ़िवादी धर्मांधता को कुंद करती है और लोगों को धार्मिक जकड़नों से मुक्त कर तार्किक रूप से जीने के लिए सशक्त माध्यम बनती है। इसका दूसरा अर्थ संविधान से जुड़ा है। धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक अर्थ का यही मतलब है कि भारतीय राज्य नीति-निर्माण को धार्मिक आग्रहों से मुक्त रखेगा। आप धर्मनिरपेक्षता के इन दोनों अर्थों से असहमति नहीं जता सकते, लेकिन धर्मनिरपेक्षता का तीसरा अर्थ एक बड़ा मसला है। व्यावहारिक अर्थ में धर्मनिरपेक्षता हमारे नजरिये पर असर डालती है। अपने व्यावहारिक अर्थों में धर्मनिरपेक्षता राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बड़े खतरे के रूप में सामने आई है। मेरे पास मेरे नाती-पोतों के बाद वाली पीढ़ियों के लिए एक संदेश है। तुम्हारे दौर में धर्मनिरपेक्षता के चलते हिंदुओं को वैसे ही देश के कुछ और हिस्सों से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ेगा जैसे हमारे दौर में कश्मीर से हिंदुओं को मजबूरन विस्थापित होना पड़ा।
मौजूदा दौर में पश्चिम बंगाल में धर्मनिरपेक्षता वैसे ही उफान मार रही है जैसा उफान उसमें 1986 में देश की सबसे बड़ी अदालत के खिलाफ आया था। शाहबानो मामले में धर्मनिरपेक्षता ने सफलतापूर्वक संसद सदस्यों को खारिज कर दिया था। पश्चिम बंगाल के मालदा और अन्य इलाकों से आ रही खबरों के अनुसार जो लोग खुद को धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार बता रहे हैं वे ही पुलिस अधिकारियों से ठग और अपराधियों जैसा सुलूक कर रहे हैं। सरकार के पास भी धर्मनिरपेक्षता का कोई समाधान नहीं है। धर्मनिरपेक्षता भारतीय गणतंत्र को दीमक की तरह चट कर रही है, जिसे चुनावों के दौरान जरूरी खाद पानी मिलता रहता है।
[ लेखक तुफैल अहमद, नई दिल्ली स्थित ओपन सोर्स इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं ]