जब नोटबंदी के तीन सप्ताह बाद भी आम जन हलकान, बैंक परेशान और टीवी पर सरकारी प्रवक्ता पहलवान बने दिख रहे हैं तब काले धन को सफेद करने का अवसर देने वाला आयकर कानून में संशोधन का विधेयक आ गया। इस विधेयक ने कई और सवालों को जन्म दे दिया है। इस सबके बीच सब ईमानदार लोगों का यह अहसास और गहरा हुआ है कि यदि लोकतंत्र की अर्थव्यवस्था को सही तरह से आगे बढ़ना है तो उसे असमान वितरण और काली पूंजी, इन दो खामियों से मुक्ति पानी होगी। यह भी हम सब जानते हैं कि आजादी के सत्तर साल बाद का भारत अभी भी एक निर्माणशील इमारत है जिसका कोई आखिरी, आदर्श नक्शा नहीं, लेकिन जनता बहुत अक्लमंद और दूरदर्शी माने गए बड़े नेताओं से तो यह उम्मीद करती ही है कि उनके पास जनता के लिए कोई स्वस्थ सामयिक दर्शन जरूर होगा। इसी भरोसे के तहत बैंकों के राष्ट्रीयकरण या पहले के मुद्रा-निरस्तीकर (1947 और 1978) लागू करने को, असुविधा और कुल लागत में बढ़ोतरी के बावजूद लोगों ने स्वीकार किया। ताजा नोटबंदी को भी पूरी तरह न समझते हुए भी अपनी तमाम आशंकाओं को परे कर आम जन ने इसे फिर सही माना और बैंकों तथा एटीएम मशीनों के आगे लगी विशाल कतारों में शांति से अपनी बारी का इंतज़ार करने लगी, लेकिन तीन सप्ताह के बाद भी असहज दशा के खात्मे की संभावना नहीं दिख रही।
जिस बैंकिंग क्षेत्र की गोपनीयता भंग होने के डर से पहले भरोसे में लेकर नई मुद्रा वितरण के माकूल इंतजाम नहीं कराए जा सके थे वह अब नए नोटों की कमी और अचानक बढ़ गए काम के भारी वजन से हलकान है। आकलन है कि न तो देश में निरस्त किए गए नोटों (जो कुल का 85 फीसद थे) की कमी को चंद दिनों में पूरा किया जा सकेगा और न ही आमजन महीनों तक रोजमर्रा की जरूरतों के लिए एटीएम से छोटे नोट निकाल सकेंगे। यह समय बुआई और शादी का सीजन है पर शायद इसके लिए भी मूल योजना में कोई सुरक्षा हाशिया नहीं छोड़ा गया था। इससे गांवों में करोड़ों किसानों के लिए भारी संकट खडा हो गया है। वे आज बीज, यूरिया तथा खेत मजूरों को दिहाड़ी देने लायक जरूरी कैश फटाफट नहीं पा सकते। उधर शहरों में भी खुदरा खरीदारी, हारी-बीमारी या शादी के लिए बड़ा कैश निकालना असंभव है। रातोंरात नए बैंक तथा एटीएम लगवाना असंभव है। उसमें अभी कई माह लगेंगे। अब किसान को प्रमाणपत्र लाकर 500 के पुराने नोटों से सरकारी भंडारों से बीज खरीदने की इजाजत दे दी गई है पर इससे वहां की उस प्रशासकीय मशीनरी तथा बाबूशाही की ताकत और भी बढ जाएगी जिसके भ्रष्टाचारी तौर-तरीकों से भरपूर काली कमाई पैदा होती रही है। इस सुनहरे मौके पर भी वे जरूरतमंदों को तड़पाते हुए अपनी ताकत से अतिरिक्त वसूली का मौका छोडेंगे, इसका भरोसा नहीं।
ब्याह की तैयारी करते परिवारों की दिक्कतें जान कर जनहित में नितांत नाकाफी ढाई लाख रुपये की राशि निकालने की छूट दी गई पर नौ ऐसी शर्तों के साथ जो तमाम तरह की सरकारी खानापूर्ति यानी सरकारी बाबुओं की अड़ंगेबाजी को अनिवार्य बना कर उनकी अपनी ही कमाई के खर्च पर तमाम तरह की जवाबदेही का दर्द बढ़ा रहीं। बड़ी मुश्किल से कम किए गए काली कमाई और भुगतान की शिथिलता पैदा करते रहे सरकारी कोटा लाइसेंस परमिट राज में यह सब एक नई जान फूंक सकता है। विडंबना यह कि नोटों के रूप में (पूंजी के कुल 5 फीसदी हिस्से की) मक्खी को मारने के लिए जहां इतनी बड़ी तोप दागी गई वहीं निर्माणक्षेत्र और सर्राफा जैसे क्षेत्रों के खिलाफ, जहां बिना काले पैसे पत्ता नहीं हिलता, कोई हरकत होती नहीं दिखती। उतावली से बिना तैयारी उन पर भी सर्जिकल स्ट्राइक करना काफी खतरनाक हो सकता है। अमेरिका की ही तरह भारतीय बैंकिंग व्यवस्था ने भी सफेद काले निर्माण क्षेत्र को लगातार लोन मुहैया करा रखे हैं। अमेरिका में 2008 में जब निर्माणक्षेत्र का सतरंगी बबूला फटा था तो लीमैन ब्रदर्स सरीखे बड़े बैंक ही नहीं, यूरोप के सदियों की साख वाले बड़े बैंक भी दिवालिया हो गए थे और अब तक वहां की अर्थव्यवस्था उस सदमे से नहीं उबर सकी है। जहां आम लोगों की मेहनत की कमाई डूब गई वहीं शातिर बड़ी मछलियां इस दिवालियेपन से और भी मालामाल हो गईं। तभी यह भी सामने आया था कि काली कमाई से फल फूल रहे निर्माण क्षेत्र में आई उछाल से लाखों रोजगार निकलते हैं और बैंक ही नहीं, सीमेंट, इस्पात तथा बिजली सरीखे क्षेत्रों की तरक्की भी जुड़ी होती है। यह क्षेत्र डूबा तो सबका भट्टा बैठ जाता है। अब यदि हम बेल्लारी के खदान राजा और सभी दलों के करीबी रेड्डी साहब की बेटी की शाही शादी पर नजर डालें तो उपरोक्त क्षेत्र बीमारी का लक्षण साबित होते हैं, वजह नहीं। दरअसल चुनावी चंदा ही कालेधन का सबसे बडा हिमनद है जो उस 550 करोड़ की शादी लायक पैसा पैदा करता है। हर चुनाव के दौरान चंदे के लिए देश में कालेबाजारियों की भारी पूछ होती है और एवज में चुनाव जीतने वाले उनको लगातार कानून के खिलाफ संरक्षण देते रहते हैं। यही श्रृंखला राजनीति और आपराधिक उपक्रमों के बीच का वह गठजोड़ कायम रखने को सरकारी हलकों में भ्रष्ट अफसरों की ऐसी तिकड़मी फौज तैयार कराती है जो काली कमाई और उसके अधिपतियों पर छापे डालने की बजाय उनको सैल्यूट भरती है।
नोटबंदी सरीखे सीमित कदमों से काला धन नहीं मिटाया जा सकता। बेनामी चुनावी चंदे को अवैध बना कर सभी दलों को सूचनाधिकार कानून की जद में लाने तथा दलगत कोष को पारदर्शी और दल-नेता को जवाबदेह बनाने की जरूरत है। इसी के साथ सदा लोलुप सरकारी बाबुओं से जनता को जोड़नेवाली ( नकद भुगतान की ) प्रणाली को शनै: शनै: खत्म कर डिजिटल तथा वेब माध्यमों से ट्रेन टिकटों की बिक्री की तरह ऑन लाइन भुगतान सहज संभव बनाया जाए और डाटा चोरी रोकने के पुख्ता उपाय किए जाएं। अभी तो वह व्यवस्था है जो शादी का सर्टिफिकेट पाने, मकान की रजिस्ट्री कराने, ट्रक परमिट लेने, टोल देने जैसे तमाम कामों के लिए बाबूशाही की मुट्ठी गर्म करना लगभग अनिवार्य बनाए हुए है। बहुमत से सत्ता में आई सरकार के लिए यह सब कठिन भले हो, लेकिन यदि उसकी नीयत साफ हो तो असंभव नहीं।
[ लेखिका मृणाल पांडे, प्रसार भारती की पूर्व प्रमुख एवं स्तंभकार हैं ]