डॉ. सूर्यकांत

भारत में टीबी यानी क्षय रोग को नियंत्रित करने के लिए पिछले लगभग 50 वर्षों से लगातार प्रयास किए जा रहे हैं फिर भी वह एक गंभीर समस्या बनी हुई है। इसकी भयावहता को देखते हुए पिछले दिनों भारत सरकार ने टीबी को 2025 तक नियंत्रित करने की घोषणा की। रॉर्बट कॉच ने 24 मार्च 1882 को टीबी के जीवाणु की खोज की और यह खोज टीबी को समझने और इस बीमारी के इलाज में मील का पत्थर साबित हुई। इसीलिए टीबी को कॉच की बीमारी भी कहते हैं। इस खोज की याद में हर साल 24 मार्च को हम विश्व टीबी दिवस के रूप में मनाते हैं। 1943 से पहले जब टीबी की कोई दवा नहीं थी तो इसका इलाज मुख्यत: अच्छा भोजन, अच्छी चिकित्सकीय देखभाल और शुद्ध हवा द्वारा होता था जिसे सेनेटोरियम इलाज कहा जाता था। अच्छा भोजन और शुद्ध हवा का वर्णन आयुर्वेद में भी मिलता है। टीबी की पहली दवा स्ट्रेप्टोमाइसिन की खोज वैक्समैन नामक वैज्ञानिक ने 1943 में की थी। उसके बाद अन्य दवाओं की खोज हुई जिसके कारण हम टीबी को विकसित देशों में पूरी तरह से नियंत्रित करने के नजदीक आ गए, परंतु एचआइवी नामक बीमारी के आने के कारण विकसित देशों में यह दोबारा बढ़ने लगी। टीबी की बढ़ती संख्या देखकर डब्ल्यूएचओ ने 1993 में वैश्विक आपातकाल घोषित कर दिया। 2015 में संपूर्ण विश्व में 1.04 करोड़ टीबी के नए मरीज पाए गए जिनमें से 59 लाख पुरुष, 35 लाख महिलाएं और 10 लाख बच्चे थे। 2015 में ही टीबी से कुल 14 लाख मौतों में से चार लाख लोगों में एचआइवी संक्रमण भी पाया गया। डब्ल्यूएचओ रिपोर्ट के अनुसार 2015 में भारत में दुनिया में पाए जाने वाले मामलों में सबसे अधिक मामले 27 फीसद पाए गए।
भारत विश्व में टीबी रोग से सबसे अधिक प्रभावित देश है। विश्व में इसका हर चौथा मरीज भारतीय होता है। विश्व में प्रतिवर्ष 14 लाख मौतें टीबी से होती हैं। इनमें से एक चौथाई से अधिक अर्थात चार लाख 80 हजार मौतें अकेले भारत में होती हैं। टीबी से मरने वाला हर पांचवां व्यक्ति भारतीय होता है। भारत में हर तीन मिनट में इससे दो मौतें होती हैं। करीब एक हजार प्रतिदिन। इसीलिए टीबी अत्यधिक जानलेवा बीमारी मानी जाती है। डब्ल्यूएचओ ने टीबी नियंत्रण को इस तरह परिभाषित किया है कि टीबी की व्यापकता 0-14 साल के लोगों के समूह में एक फीसद से कम हो जो भारत में 40 फीसद है। भारत सरकार टीबी की बीमारी से लड़ने के लिए पूरी तरह से कटिबद्ध है। 1962 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय टीबी कार्यक्रम की शुरुआत की थी जिसे 1992 में विफल घोषित कर दिया गया। राष्ट्रीय टीबी कार्यक्रम के विफल होने के प्रमुख कारण थे बजट में कम धन का आवंटन, दवाइयों की कमी, सूक्ष्मदर्शी की खराब गुणवत्ता, कमजोर संस्थागत व्यवस्था आदि। अंतत: 1993 में संशोधित राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम (आरएनटीपीसी) को शुरू किया गया जो पूरी तरह से 1997 से कार्यरत हुआ। यह कार्यक्रम डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित डॉट्स प्रणाली (जिसमें मरीज उचित देखरेख में दवा खिलाई जाती है) पर आधारित है, लेकिन इसके 23 वर्ष बीत जाने के बाद भी टीबी की समस्या हमारे देश में एक गंभीर समस्या बनी हुई है। भारत द्वारा टीबी को समाप्त नहीं कर पाने के कई कारण हैं। जैसे कि टीबी का जीवाणु कई वर्षों तक व्यक्ति के अंदर निष्क्रिय अवस्था में बिना किसी लक्षण के रह सकता है। अनुकूल परिस्थिति के आने पर यह पुन: सक्रिय होकर बीमारी पैदा करता है।
कुपोषण, एचआइवी, मधुमेह, महिलाओं में कम उम्र में गर्भधारण और बार-बार गर्भधारण, पर्दा प्रथा, भीड़, धूम्रपान तथा अन्य नशे, साफ-सफाई की कमी, स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ न ले पाना जैसे सामाजिक और मानवीय कारण भी हैं। इलाज के बीच-बीच में रुक जाने जैसी वजहों से टीबी की दवाइयां बेअसर होने लगी हैं। सालों से भारत सरकार ने आरएनटीसीपी के साथ मिलकर लोगों में स्वास्थ्य जागरूकता को बढ़ाने और टीबी को नियंत्रित करने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। इससे 2006 में पूरे भारत में डॉट्स लागू हो पाया। टीबी की दवाओं के बढ़ते बेअसर होने के कारण 2010 में डॉट्स प्लस कार्यक्रम को गंभीर किस्म की टीबी (एमडीआर)के इलाज के लिए शुरू किया गया। साल 2015 में ही आरएनटीसीपी ने डब्ल्यूएचओ के स्टॉप टीबी कार्यक्रम के अंतर्गत निर्धारित प्राथमिक एवं द्वितीय चरण के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया जिसके चलते 2015 के अंत के साथ ही डब्ल्यूएचओ द्वारा चलाया जा रहा यह कार्यक्रम समाप्त कर दिया गया। अब डब्ल्यूएचओ ने 2016 से 2030 के लिए सस्टेनेबल डेवलेपमेंट गोल्स योजना को प्रारंभ किया है जिसका लक्ष्य टीबी को समाप्त करना है। इसके तहत प्रतिदिन 15000 मरीजों को मुफ्त में देखा जा रहा और जिनमें से 3500 मरीजों का इलाज शुरू किया जाता है। पिछले दो दशक में टीबी के इलाज में तीन गुनी सफलता मिली है इससे 42 फीसद मौतों में कमी आई है। मृत्युदर 38 प्रति लाख से घटकर 22 प्रति लाख हो गई है।
टीबी और एमडीआर टीबी को पता लगाने के लिए कई आधुनिक विधियां खोजी जा चुकी हैं। भारत सरकार ने ‘निक्षय’ को सफलता पूर्वक सम्मिलित किया है। यह एक ऑनलाइन साफ्टवेयर है जिसमें अधिक से अधिक मरीजों की पहचान होती है और उनका तुरंत इलाज शुरू हो जाता है। गैर सरकारी संगठनों के सहयोग से टीबी का इलाज सुदूर गांवों तक पहुंचाया जा चुका है। आरएनटीसीपी ने पब्लिक प्राइवेट मिक्स सेवा की शुरुआत की है। जिससे मरीजों की पहचान और उचित इलाज संभव होगा। इन सब प्रयासों के बाद भी 22 मौतें प्रति लाख हो रही है। अर्थात तीन लाख मौतें प्रतिवर्ष। यह स्थिति योजना बनाने वाले से लेकर योजना को लागू करने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता को अपने अंदर झांकने के लिए मजबूर कर देती है। टीबी जैसे भयानक रोग से मुक्ति के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति से लेकर सामाजिक जागरूकता में बदलाव की जरूरत है। यह जरूरी है कि एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान टीबी की बीमारी को उचित प्राथमिकता दी जाए, क्योंकि यह सिर्फ एक चिकित्सकीय बीमारी नहीं है, बल्कि सामाजिक समस्या भी है। कुशल, निपुण एवं उचित प्रशिक्षण प्राप्त डॉक्टर को ही टीबी के मरीजों का इलाज करने की छूट होनी चाहिए। इलाज के दौरान रोगी का नियमित विश्लेषण और देखरेख भी आवश्यक है, क्योंकि टीबी के रोगी शुरुआती उपचार में फायदा दिखने के बाद अक्सर दवा बंद कर देते हैं या अनियमित कर देते हैं।
[ लेखक इंडियन चेस्ट सोसाइटी के अध्यक्ष हैं ]