नवाज शरीफ के लिए सेना प्रमुख चुनना अपना बॉस चुनने जैसा है। जब जुल्फिकार अली भुट्टो ने बहुतों को दरकिनार कर जियाउल हक को चीफ बनाया था तो इसलिए कि वह आज्ञाकारी किस्म के जनरल लगते थे। इन्हीं नवाज शरीफ ने परवेज मुशर्रफ को मोहाजिर होने के नाते चीफ बनाया और तख्तापलट के शिकार हुए। राहिल शरीफ तो गैरराजनीतिक सैन्य राजपूत पृष्ठभूमि से थे, फिर भी वह नवाज शरीफ को हाशिये पर ले आए। अब उन्होंने कमर बाजवा को सेना प्रमुख बनाया है, शायद इसलिए कि वह भी उनकी तरह पंजाबी-खत्री हैं, जो कशगर-ग्वादर चीनी राजमार्ग के अर्थशास्त्र को बेहतर समझ सकेंगे। वह आतंकियों के विरुद्ध हैं और सरकार के लिए समस्या नहीं बनेंगे। लेकिन सत्ता तो सर चढ़ने पर बोलती है। चाहे राहिल शरीफ हों या बाजवा, हमारे प्रति पाकिस्तान की घोषित नीतियों में कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। जरूरी हो चला है कि कश्मीर को अब पाकिस्तान की सोच के दायरे से बाहर ले जाया जाए। इसके लिए नीतिगत पुनर्विचार आवश्यक है। कश्मीर का समस्याग्रस्त क्षेत्र उतना बड़ा नहीं जितना नक्शे पर दिखता है। इस देश ने अभी तक कश्मीर के लिए शक्ति की भाषा नहीं बोली थी। हम जीतने के बाद भी पराजितों की तरह व्यवहार करने के आदी रहे हैं। सर्जिकल स्ट्राइक इस दिशा में ली गई निर्णायक पहल है। जहां तक हमारी कश्मीर नीति का प्रश्न है, नेहरू ने अपने मित्र शेख अब्दुल्ला के दम पर कश्मीर में जनमत संग्रह की घोषणा की थी। जब शेख ने अपना असली रंग दिखाते हुए संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी प्रतिनिधि एवं सीनेटरों से आजादी की बातें प्रारंभ की तो नेहरू की कश्मीर नीति तत्क्षण ही असफल हो गई। जनमत संग्रह अर्थहीन हो चुका था। उस असफल कश्मीर नीति को हम आजादी के 70 वर्षों बाद भी ढोते चले आ रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर का वर्तमान स्वरूप डोगरा शासन की देन है। जम्मू मूलत: डोगरा राज्य है, कश्मीर विजित प्रदेश है। तीसरा क्षेत्र, गूजर बकरवालों का पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्र है, जो प्राकृतिक व सांस्कृतिक, दोनों स्वरूपों में कश्मीर घाटी से भिन्न, जम्मू के अधिक करीब है। चौथे क्षेत्र, गिलगिट बाल्टिस्तान और हुंजा का कश्मीर घाटी से कोई साम्य नहीं है। वह पहले बौद्ध क्षेत्र था, अब शिया मुस्लिमों का इलाका है और पांचवा लद्दाख बौद्ध सांस्कृतिक क्षेत्र है। इस प्रकार कश्मीर के 5 क्षेत्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्र बनते हैं। इनमें गिलगिट-बाल्टिस्तान व पश्चिमी पर्वतीय कश्मीर का अधिकांश भाग पाकिस्तान के कब्जे में है। उपरोक्त पांच भागों में से चार क्षेत्रों के साथ भारत की कोई समस्या है ही नहीं। यदि कोई समस्याग्रस्त क्षेत्र है तो वह कश्मीर की घाटी है। वहीं पर आजादी का पूरा स्वांग खेला जा रहा है। अब तक हमने इन पांच हिस्सों को बराबर की हैसियत नहीं दी और न ही उनकी आंतरिक, प्रशासकीय, वित्तीय स्वायत्तता की समीक्षा कर समान स्तर देने पर विचार किया।
पश्चिमी कश्मीर में पाक अधिकृत कश्मीर के जिले नीलम, मुजफ्फराबाद, बाघ, पुंछ, सुधन, कोटली, मीरपुर, भिंबर हैं और शेष कुपवाड़ा, उड़ी, पुंछ राजौरी भारत के पास है। यदि पाक अधिकृत कश्मीर और भारतीय पश्चिमी कश्मीर को जोड़ दिया जाए तो इस संयुक्त पश्चिमी कश्मीर में कुल सम्मिलित जिले 12 और आबादी 65 लाख होती है। यह संपूर्ण संयुक्त पश्चिमी कश्मीर, घाटी से अलग मूलत: एक प्रदेश जैसा है, जो आबादी में कश्मीर घाटी के लगभग बराबर है। फिलहाल खंडित रूप में ही सही इसे एक अलग राज्य की मान्यता देने पर विचार किया जाना चाहिए। पाक अधिकृत क्षेत्र के विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र अथवा किसी अन्य एजेंसी के माध्यम से मार्ग तलाशने का उपक्रम किया जा सकता है। यह संकेत वहां आम जनता तक पहुंचे कि संयुक्त कश्मीर हमारा लक्ष्य है।
एक अलग पश्चिमी राज्य का गठन कश्मीर समस्या के समाधान की राह में मील का पत्थर साबित होगा। इसके अलावा जम्मू-डोडा क्षेत्र को भी वित्तीय व योजनागत स्वायत्तता देते हुए श्रीनगर के वर्चस्व से मुक्त किया जाए। इस प्रकार हमारे पास कश्मीर के प्रतिनिधित्व के लिए सत्ता के तीन समानांतर केंद्र हो जाएंगे। इससे विकास व प्रगति के रास्ते खुलेंगे और उपेक्षित रहे क्षेत्रों में नेतृत्व का स्वत: विकास प्रारंभ हो जाएगा। हमारी कश्मीर नीति दशकों से एक मनोवैज्ञानिक जड़ता की शिकार है और यह जड़ता हमारे विकल्पों को प्रभावित कर रही है। आज हमारे पास विकल्पहीनता की स्थिति है। जहां तक वार्ताओं से समाधान की बात है, पाकिस्तान से वार्ताओं का लाभ तभी होगा जब शक्ति-संतुलन में परिवर्तन के प्रभाव से पाकिस्तान के लिए यथास्थिति को स्वीकार करना आकर्षक विकल्प हो जाए। उससे अभी हम कोसों दूर हैं। पाकिस्तान के लिए कश्मीर समस्या के समाधान का समय तेजी से व्यतीत हो रहा है। उनकी निगाहों के सामने भारत क्षेत्रीय आर्थिक-सामरिक शक्ति का रूप ले रहा है। सार्क समूह में पाकिस्तान का कोई मित्र नहीं है। भारत-अफगानिस्तान धुरी आकार ले रही है। अच्छा होगा अगर वार्ताओं के लिए इंतजार कर लिया जाए। दूसरा बिंदु चीनी व्यापारिक राजमार्ग (सी-पेक) का है, जिसके प्रभाव से पाकिस्तान पनामा जैसा नहर अर्थव्यवस्था आधारित देश बनने की ओर अग्रसर हो रहा है। सी-पेक मार्ग एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के विकल्पों को बहुत सीमित कर देगा। शिमला समझौते में अलिखित रूप से हमने युद्धविराम रेखा को कश्मीर की विभाजक रेखा मान लिया है इसीलिए हम सी-पेक का विरोध मात्र राजनयिक स्तर पर ही कर पा रहे हैं। यह व्यापारिक मार्ग जो चीन के लिए अधिक महत्वपूर्ण है, पाकिस्तान को अपने ही देश में दूसरे दर्जे की हैसियत में ले आएगा। चीन का यह विशाल निवेश अंतत: पाकिस्तान की सार्वभौमिकता को प्रभावित करेगा। पाकिस्तान का आतंकवाद चीन के हितों के विपरीत जा रहा है। अब पाकिस्तान की नीतियों के निर्धारण में चीन की महत्वपूर्ण भूमिका का मार्ग प्रशस्त हो गया है।
अगर हम कश्मीर की आंतरिक प्रशासनिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन कर सके तो सिर्फ कश्मीर घाटी ही बचती है जहां की आबादी का एक हिस्सा पाकिस्तानपरस्ती की सोच रखता है। फारुक अब्दुल्ला जैसों के विरोध के बावजूद हमारी नीति कश्मीर के विभाजन की न होकर एकीकरण की होनी चाहिए। यह तो भविष्य के गर्भ में है कि चीन के सीधे दखल के कारण पाकिस्तान की आंतरिक शक्तियां क्या समीकरण बनाएंगी। हां, यह जरूर है कि भविष्य में कशगर-ग्वादर राजमार्ग पर दौड़ते ट्रकों के मद्देनजर पाकिस्तान को चीन की सहमति के बगैर कश्मीर को लेकर युद्ध का माहौल बना पाना संभव न होगा। मध्यपूर्व में आइएसआइएस का तिलिस्म टूटने को है। भारत, चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान जैसी शक्तियों और पृष्ठभूमि में अमेरिका की उपस्थिति से यह इलाका शक्ति-राजनीति की नई बिसात बनने जा रहा है। अगर हमने अपनी चालें सही नहीं चलीं तो डर है कि कश्मीर कहीं बड़े मोहरों के खेल का केंद्रबिंदु न बन जाए।
[ लेखक कैप्टन आर. विक्रम सिंह, भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य हैं ]