एमजी रामचंद्रन की मृत्यु के बाद उपजे शून्य को भरने में जयललिता काफी कम समय में ही पूरी तरह कामयाब रही थीं और 1991 में उनके नेतृत्व में अन्नाद्रमुक रिकॉर्ड 44.39 प्रतिशत के वोट शेयर के साथ 168 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़कर 164 सीटों पर जीत दर्ज करने में सफल रही थी। जयललिता ने न सिर्फ एमजीआर की पत्नी जानकी रामचंद्रन को काफी पीछे छोड़ा, बल्कि बिखरे पार्टी जनों को अपने नेतृत्व में साथ जोड़ने में भी पूरी तरह से सफल रहीं। आज जयललिता चेन्नई के अपोलो अस्पताल में नाजुक अवस्था में हैं। राष्ट्रीय दलों के वरिष्ठ नेताओं तक को उनसे सीधे मिलने नहीं दिया जा रहा है और उन्हें सिर्फ डॉक्टरों से जयललिता का हाल जानकर वापस लौटना पड़ रहा है। ऐसे में संशय के बादल और ऊहापोह के बीच कई सवाल उठने स्वाभाविक हैं और इनमें सबसे अहम सवाल यह है कि क्या जयललिता के खासम सिपहलसार, राज्य के वित्तमंत्री और अभी जयललिता के मंत्रालयों के प्रभारी पनीरसेल्वम के लिए आने वाले दिन क्या चुनौतीपूर्ण नहीं होंगे? क्या शशिकला पनीरसेल्वम के नेतृत्व में शांति से पीछे खड़ी रहेंगी? हाल ही में पार्टी से निकाली गईं राज्यसभा सदस्य पुष्पा ने भी शशिकला पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं। पुष्पा तमिलनाडु की नादर जाति से आती हैं और इसकी तमिलनाडु की राजनीतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण भूमिका है।
शशिकला ने हाल ही में पार्टी के कई विधायकों को चेन्नई बुलाया था। अभी द्रमुक के पास 98 विधायक हैं और अन्नाद्रमुक 134 विधायकों के साथ 235 सदस्यों वाली तमिलनाडु विधानसभा में बहुमत में है। द्रमुक से टूटकर निकली अन्नाद्रमुक में एक बार विघटन हो चुका है और दो-फाड़ होने की प्रक्रिया दोबारा नहीं होगी, इस बारे में विश्वास के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। अन्नाद्रमुक ने 1989 में हुए विघटन के बाद जानकी रामचंद्रन और जयललिता के नेतृत्व में दो अलग गुट के तौर पर आम चुनाव लड़ा था और उन्हें जबरदस्त हार का मुंह देखना पड़ा था। हालांकि दो साल बाद ही 1991 में हुए चुनाव में जयललिता के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की और जयललिता के नेतृत्व पर मान्यता की मुहर लग गई।
दूसरी ओर आज के बदलते राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस भी तमिलनाडु में अपनी खोई हुई पकड़ को वापस पाने के तिकड़म में जुटेगी। 1967 की हार के बाद से कांग्रेस आज तक वहां मजबूत पकड़ बनाने में नाकामयाब रही है। इधर भाजपा भी दक्षिण में नई जमीन की तलाश में वर्षों से आंखें बिछाए बैठी है। नि:संदेह वह नए बदलते समीकरण में कभी भी नया राजनीतिक दांव खेलने से पीछे नहीं रहेगी।
स्वभाव से गंभीर पनीरसेल्वम जयललिता की अनुपस्थिति में दो बार मुख्यमंत्री का पद संभाल चुके हैं, लेकिन शशिकला और जयललिता की सलाहकार नौकरशाह शीला बालाकृष्णन की जोड़ी क्या पनीरसेल्वम को शांति से काम करने देगी? एम्स की विशेष टीम और लंदन के डॉक्टर रिचर्ड बेले द्वारा जयललिता की दोबारा जांच के बाद उनकी तबीयत को लेकर अटकलें बढ़ी हैं और ऐसे में पनीरसेल्वम को जयललिता के मंत्रालयों के कार्याभार सौंपे जाने के बाद उनकी नंबर दो की हैसियत को स्पष्टता मिली है। वैसे इस वर्ष चुनाव जीतने के बाद जयललिता ने पनीरसेल्वम को वित्तमंत्री तो बनाया था, लेकिन लोक निर्माण विभाग जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय को उनसे अलग रखा गया था, जबकि इससे पहले 2011 से 2016 की पिछली जयललिता सरकार ने वित्त मंत्रालय के साथ-साथ लोक निर्माण विभाग की जिम्मेदारी भी पनीरसेल्वम को दे रखी थी। इसी वजह से ऐसी अटकलें लगाई गईं कि अब पनीरसेल्वम जयललिता के खास सिपहसालार नहीं हैं और उनके रिश्तों में दूरियां बढ़ी हैं। इन सारी अटकलों पर पनीरसेल्वम को जयललिता के मंत्रालयों के प्रभार मिलने के बाद विराम लगा है। 2001 में भी जब पनीरसेल्वम को जयललिता ने पहली बार मुख्यमंत्री का पद सौंपा था तब भी कई राजनीतिक विश्लेषक उनके इस निर्णय से अचंभित हुए थे, क्योंकि तब तत्कालीन वित्तमंत्री सी. पुनैयन और के.ए. सेनगोटायन जैसे कद्दावर व विश्वसनीय नेताओं की बजाय जयललिता ने पनीरसेल्वम पर भरोसा जताया था। 2014 में भी जयलललिता ने अपनी गद्दी दोबारा पनीरसेल्वम को ही सौंपी थी।
यहां पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या पनीरसेल्वम अन्नाद्रमुक को उतनी सहजता से आगे बढ़ा पाएंगे जैसे कि जयललिता ने एमजीआर के बाद पार्टी को संभाला और आगे बढ़ाया था? पनीरसेल्वम 2001 की तुलना में 2014 के अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल में ज्यादा संतुलित और आक्रामक रहे थे और उनके आत्मविश्वास में भी सकारात्मक बढ़ोतरी हुई थी, लेकिन जयललिता के करिश्माई व्यक्तित्व के आगे पनीरसेल्वम का व्यक्तित्व कहीं टिकता नहीं है। हालांकि उनका अपना व्यक्तिगत प्रभाव थवाड़ जाति से निकली उपजाति मारवाड़ पर काफी अच्छा है। पनीरसेल्वम मारवाड़ उप-जाति से आते हैं और शशिकला व उनके बीच के रिश्तों में खटास भी इसलिए है कि शशिकाला भी थवाड़ जाति से निकली उप-जाति कलाड़ से आती हैं और थवाड़ जाति पर अपनी पकड़ कभी कमजोर नहीं होने देना चाहती। शशिकला ने कभी भी पनीरसेल्वम को कमजोर करने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं दिया है। पनीरसेल्वम के परिवार पर भ्रष्टाचार के लगे आरोपों को हवा देने के मौके को शशिकला ने कभी भी नहीं छोड़ा। पनीरसेल्वम के पुत्र, भाई व दामाद पर आरोप लगने के बाद जयललिता ने पनीरसेल्वम के रिश्तेदारों को पार्टी के सभी महत्वपूर्ण पदों से निकाल दिया था। जयललिता की गाज पनीरसेल्वम के 2014 के कार्यकाल के दो मंत्रियों ऊर्जामंत्री नाथम विश्वनाथन और शिक्षा मंत्री पालानियपन्न पर भी गिरी थी और इस सारे सियासी प्रकरण में शशिकला की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी। जयललिता की सियासी सक्रियता पर मंडरा रहे संकट के बादल राष्ट्रीय दलों के लिए एक मौका है और इसलिए कांग्रेस तमिलनाडु के हालात पर नजदीकी नजर रख रही है। वेंकैया नायडू, अरुण जेटली और अमित शाह के तमिलनाडु दौरे को भी इसी राजनीतिक चश्मे से देखा जाना चाहिए।
[ लेखक राजीव मिश्र, आइओटी इंफोटेनमेंट के प्रबंध निदेशक हैं और लोकसभा टीवी के सीईओ रह चुके हैं ]