भारत अपना 68वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। इन लगभग सात दशकों की यात्रा में तंत्र ने सुनियोजित तरीके से गण को पीछे छोड़ दिया है। जो तंत्र हमने गण की सेवा के लिए के लिए बनाया था वह गण का मालिक बन बैठा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि तंत्र की इस जकड़न को तोड़ना हर बीतते साल के साथ कठिन होता जा रहा है। इसी बीच उम्मीद जगाने वाली एक छोटी सी खबर अवश्य आई है। हाल ही में केंद्र सरकार ने एक आईएएस और दो आईपीएस अधिकारियों को खराब काम के लिए सेवा से हटा दिया है। भारतीय प्रशासनिक सेवा और पुलिस सेवा के अधिकारियों को हटाया भी जा सकता है और वह भी अक्षमता के आधार पर यह बात हमारी राजनीतिक नौकरशाही जैसे भूल ही गई थी। अपने देश में जनप्रतिनिधि, विधानसभा और लोकसभा से लेकर सरकारों तक का कार्यकाल सब कुछ अनिश्चित, अस्थायी है, लेकिन नौकरशाही स्थायी है। पिछले कई दशकों से एक हद तक वही तय करती है कि कौन सी सरकार चलेगी, दौड़ेगी या रेंगेगी? पिछले लगभग सात दशकों में बहुत कुछ अच्छा हुआ, देश आगे बढ़ा, लेकिन राजनीति और खासकर ससंदीय राजनीति में गिरावट का जो सिलसिला साठ के दशक के उत्तराद्र्ध और सत्तर के पूर्वाद्र्ध से शुरू हुआ वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। संसद जिस मकसद से बनी थी वह उसके अलावा बाकी सब कुछ करने को तैयार है। भारत के संविधान निर्माताओं ने दिशा निर्देशक सिद्धांत तय करते समय यह अपेक्षा की थी कि समय के साथ कार्यपालिका उन्हें लागू करने का उपाय करेगी और संसद उसमें सहायक बनेगी। संसद कानून बनाने के बजाय कानून बनने से रोकने का मंच बन जाएगी, इसकी कल्पना तो उन्होंने नहीं ही की थी।
आजकल न्याय व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस, कानून और प्रशासनिक सुधारों की बात खूब हो रही है, पर राजनीति में सुधार की चर्चा कुछ चुनाव सुधारों तक ही सीमित रह जाती है। संसद के काम काज में सुधार की तो बात ही नहीं होती। पचास और साठ के दशक की संसद और आज की संसद में तकरीबन जमीन-आसमान का फर्क आ गया है, लेकिन उसे चलाने के नियम और परंपराएं वही हैं। किसी भी संस्था के जीवंत बने रहने के लिए जरूरी है कि समय, काल और परिस्थिति के अनुसार उसकी कार्यप्रणाली में बदलाव होता रहे। संसदीय समितियों की व्यवस्था शुरू होने के बाद तो संसद जैसे अपनी प्रासंगिकता ही खोती जा रही है। सारी गंभीर चर्चा संसदीय समितियों में हो जाती है। उसके बाद वही सांसद सदन में आकर जो करते हैं उससे लोगों में राजनीति और संसद दोनों के प्रति निराशा का भाव आता है। प्रतिस्पद्र्धी राजनीति की नकारात्मकता स्थिति को बद से बदतर बना रही है।
संविधान निर्माताओं ने जब देश के लिए एक स्थायी नौकरशाही की व्यवस्था की थी तो उसके पीछे एक मकसद यह था कि सरकारों के बदलते रहने के बावजूद प्रशासन में एक सातत्य बना रहे, लेकिन नौकरशाही की जकड़न समस्याएं बढ़ा रही है। इसका एक बड़ा और ताजा उदाहरण है गंगा की सफाई। तीन दशक से यह काम हो रहा है। हर सरकार इस वादे के साथ सत्ता में आती है कि उसके कार्यकाल में यह काम हो जाएगा। सरकारों के रवैये से निराश और नाराज होकर सर्वोच्च न्यायालय ने गंगा की सफाई के अभियान की निगरानी खुद करने का फैसला किया, लेकिन मंगलवार को सर्वोच्च न्यायालय ने यह काम राष्ट्रीय हरित अधिकरण को सौंप दिया। गंगा तीस साल से साफ होने का इंतजार कर रही है तो उसके दो ही बड़े कारण हैं : एक, नौकरशाही की यथास्थिति बनाए रखने के लिए अड़ंगेबाजी और दूसरे, राजनीतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति की कमी। इस मंत्रालय का जिम्मा उमा भारती के पास है। उनके मुताबिक उन्होंने गंगा का काम प्रधानमंत्री से मांग कर लिया है, लेकिन जिस रफ्तार से काम हो रहा है उससे लगता है अगले दस साल में भी यह पूरा होने वाला नहीं है।
गणतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता आम लोगों के हाथ में होती है। वह जनप्रतिनिधियों को चुनकर उन्हें अधिकार सौंपती है। सत्ता में आने के बाद जनप्रतिनिधि यथास्थिति की व्यवस्था के अधीन हो जाता है। उसकी सारी ताकत उसे बनाए रखने में लगती है, क्योंकि इसमें सबका निहित स्वार्थ है, गण के अलावा। गण बार-बार सरकार बदलता है। कई बार तो वह पार्टियों को नेतृत्व बदलने पर भी मजबूर करता है, लेकिन वह हर बार ठगा जाता है। इस नाकामी और निराशा के बावजूद वह हिम्मत नहीं हारता, प्रयास करना नहीं छोड़ता। देश में, समाज में और हालात में बदलाव और भविष्य को सुनहरा बनाने के लिए वर्तमान में वह हर तरह की तकलीफ उठाने को तैयार है। बशर्ते उसे भरोसा हो कि इस रात की सुबह होगी। यह भी कि जो उसे इस रास्ते पर चलने को कह रहा है उसकी नीयत साफ है। आम लोगों के बर्दाश्त की सीमा कितनी है, यह मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले ने दिखाया। प्रधानमंत्री ने लोगों से पचास दिन मांगे और लोग चुपचाप तमाम तकलीफें सहते हुए लाइन में लगे रहे। इस विश्वास के साथ कि भविष्य के लिए कुछ अच्छा हो रहा है। पूरे देश के किसी कोने से कोई अप्रिय घटना की खबर नहीं आई। जिससे भी पूछा गया उसने यही कहा कि परेशानी तो हो रही है, पर अच्छा काम हुआ है।
वैसे तो हमारे संविधान में जनमत संग्रह की कोई व्यवस्था नहीं है, लेकिन संसदीय जनतंत्र में चुनाव नतीजे अक्सर सरकार के फैसलों पर जनमत संग्रह के रूप में ही लिए जाते हैं। पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोआ और मणिपुर में चुनाव हो रहे हैं। मोदी समर्थकों और विरोधियों, दोनों की नजर उत्तर प्रदेश पर है। उत्तर प्रदेश के नतीजे से यह भी तय होगा कि मोदी सरकार बाकी के कार्यकाल में कैसे चलेगी? उत्तर प्रदेश में हार सरकार को कदम पीछे खींचने के लिए न सही तो ठिठकने के लिए अवश्य मजबूर करेगी ही। इससे यथास्थितिवादी ताकतें मजबूत होंगी। यह दीगर बात है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत को उसके विरोधी नोटबंदी के फैसले से अलग करके दिखाने की कोशिश करेंगे और हार को नोटबंदी के खिलाफ जनमत के रूप में। भाजपा इसका उलटा करेगी।
गण और तंत्र की चर्चा में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत-हार जितनी गौड़ है उतनी ही उसके विरोधियों की। दांव पर उससे बड़े मसले हैं। उत्तर प्रदेश तय करेगा कि मोदी ही नहीं आगे आने वाले कई दशकों तक कोई प्रधानमंत्री इस तरह के मौलिक बदलाव के बारे में सोचेगा या नहीं? मोदी के समर्थक और विरोधी दोनों ही समानरूप से इस चुनाव को मोदी की जीत या हार से आगे देखने को तैयार नहीं हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव हमेशा से ही राष्ट्रीय राजनीति के लिए बहुत अहम रहा है, पर इस बार का चुनाव पार्टियों और नेताओं की दशा ही नहीं देश की दिशा भी तय करेगा। यह लड़ाई गण और तंत्र की है।
[ लेखक प्रदीप सिंह, राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं ]