सुरेंद्र किशोर
झारखंड से एक अच्छी खबर आई है। मीट सप्लायर की हत्या के आरोप में भाजपा सरकार की पुलिस ने एक भाजपा नेता को गिरफ्तार कर लिया है। लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कड़े रुख के बाद यह कदम उठाया गया है। राज्य के बिगड़े माहौल में ऐसी गिरफ्तारी शांतिप्रिय लोगों को सुकून देने वाली है, लेकिन लोगों को पूरा सुकून तभी मिलेगा जब आरोपी के खिलाफ ईमानदारी से सुबूत जुटाए जाएं और अदालत से यथाशीघ्र उसे वाजिब सजा भी दिलवा दी जाए। याद रहे कि गत 29 जून को रामगढ़ में बीफ के शक में भीड़ ने मांस से भरी वैन को जला दिया था और ड्राइवर अलीमुद्दीन की पीट-पीट कर हत्या कर दी थी।
इस तरह की छिटपुट खबरें पूरी देश से आती रहती हैं। इन घटनाओं के कारण ही भीड़ की हिंसा का मसला सुर्खियों में है। ऐसी कुछ घटनाओं के पीछे ‘भावनाएं’ रहती हैं तो कुछ अन्य के पीछे सिर्फ आपराधिक प्रवृति। कुछ घटनाओं में दोनों तत्व एक साथ विराजमान होते हैं। अधिकतर मामलों में हिंसक तत्वों का मनोबल इसलिए बढ़ा रहता है, क्योंकि वे समझते हैं कि उन्हें अंतत: कोई न कोई सत्ताधारी बचा ही लेगा। कुछ मामलों में ऐसे तत्वों की इच्छा पूरी भी हो जाती है और कुछ में उन्हें सजा भी मिल जाती है। इसमें दोराय नहीं कि कई बार जघन्य अपराधी लचर कानून-व्यवस्था के कारण ही सजा से बच जाते हैं। आपराधिक तत्वों की सक्रियता को देखते हुए पुलिस की व्यवस्था एवं न्यायिक प्रणाली नाकाफी साबित हो रही है। इस नाकाफी को लेकर बातें तो खूब हो रही हैं, लेकिन कोई ठोस काम नहीं हो रहा है।
राजनीति के अपराधीकरण और सांप्रदायीकरण के इस दौर में अनेक मामलों में तरह-तरह के नेतागण तरह-तरह के रंगों के सांप्रदायिक तत्वों को सजा से बचाने की कोशिश करते रहते हैं। इस देश में जब कभी जहां कानून का शासन कड़ाई से लागू करने की कोशिश हुई है वहां हर तरह के अपराधी चूहों की तरह बिल में छिप गए हैं। 2006-10 और बाद के भी कुछ वर्षों में बिहार में ऐसा ही कुछ हुआ था। कानून-व्यवस्था की मशीनरी तब अपना काम सही तरह कर रही थी। तब न सिर्फ सामान्य अपराधियों और माफियाओं की जान सांसत में थी, बल्कि सांप्रदायिक तत्वों और माओवादियों की सक्रियता भी घटी थी। यदि झारखंड की ताजा गिरफ्तारी की तरह ही पूरे देश में ऐसे लोगों को सख्ती के साथ उनकी उचित जगह पर पहुंचा दिया जाए तो 2006-10 वाली बिहार की स्थिति पूरे देश में कायम हो सकती है। यहां यह कहना जरूरी है कि अब बिहार में भी 2006-10 वाली स्थिति नहीं रह गई है, अपराध के आंकड़े चाहे जो कह रहे हों।
दरअसल कानून-व्यवस्था को लेकर आजादी के बाद से ही लापरवाही बरती गई है। आजादी के बाद उत्तराधिकार के रूप में हमें अंग्रेजों की दी हुई एक दुरुस्त सरकारी मशीनरी मिली थी। नेताओं की लापरवाही और स्वार्थ के चलते जब तक उस मशीनरी को काम करने दिया गया तब तक तो कानून-व्यवस्था लगभग ठीक-ठाक रही, लेकिन जब पुरानी पीढ़ी के आदर्शवादी नेता और कार्यकर्ता एक-एक कर गुजरने लगे तो मशीनरी को भी धीरे-धीरे प्रदूषित कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार के लिए सरकार को कई साल पहले निर्देश दिए थे, लेकिन वे कहीं लागू नहीं किए गए। उन्मादी भीड़ की हिंसा से चिंतित प्रधानमंत्री पुलिस सुधार लागू करने की हिम्मत जुटाएं तो शायद उन्हें सांप्रदायिक और उन्मादी तत्वों के साथ-साथ आर्थिक अपराधियों से भी लड़ने में सुविधा होगी। आज स्थिति यह है कि सड़क पर किसी की गाड़ी में थोड़ी खरोंच लग जाने पर भी लोग एक-दूसरे को मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें कानून का भय नहीं होता। विजय माल्या ही नहीं, बल्कि सड़क पर किसी को मारने पर उतारू व्यक्ति भी यह समझ रहा है कि उसे अंतत: कोई न कोई सत्ताधारी व्यक्तिबचा ही लेगा या फिर वह गवाहों को खरीद कर या फिर जांच अधिकारी को खुश करके सजा से बच जाएगा। जब हम भारत में यह देखते हैं कि रसूखदार लोग अपने किए की सजा पाने से बच गए तब दुनिया के कई सभ्य देशों से अलग तरह की खबरें आती रहती हैं। किसी देश के राष्ट्रपति की अल्पवयस्क बेटी शराब पीने के आरोप में दंडित हुई तो कहीं प्रधानमंत्री का बेटा किसी अन्य अपराध में आरोपित हुआ। अपने देश में जब कोई नेता किसी जघन्य अपराध में भी जांच एजेंसी की गिरफ्त में आता है तो वह तथ्यों पर बात करने के बजाय राजनीतिक और भावनात्मक बयान देने लगता है। वह जोर-जोर से कहने लगता है कि उसके खिलाफ बदले की भावना से काम हो रहा है। यह भी देखा गया है कि कई बार सरकार बदलते ही उस पर से केस उठा लिए जाते हैं या कमजोर कर दिए जाते हैं। नतीजतन इस देश में अन्य तरह के अपराधों में लिप्त लोगों का भी मनोबल बढ़ जाता है।
ताजा आंकड़ों के अनुसार देश में सिर्फ 45 प्रतिशत आरोपितों को ही अदालतों से सजा मिल पाती है, जबकि अमेरिका में यह प्रतिशत 93 और जापान में 99 है। आजादी के तत्काल बाद के सत्ताधारी नेतागण शुरूआती दौर में ही इस मामले कठोर रुख अपना सकते थे, पर उन्होंने कैसा रुख अपनाया उसके दो उदाहरण यहां पेश हैं: पचास के दशक की बात है। बिहार के एक सत्ताधारी विधायक सिवान से सड़क मार्ग से पटना जा रहे थे। रास्ते में दिघवारा रेलवे क्रासिंग पर ट्रेन आने वाली थी इसलिए फाटक बंद था। विधायक जी काफी जल्दबाजी में थे। उन्होंने ट्रेन आने से पहले ही फाटक खोल देने का आदेश दिया। गेटमैन ने उनकी बात नहीं मानी। विधायक ने गेटमैन को जबरन अपनी गाड़ी में बैठा लिया। उसे पीटते हुए कुछ दूर ले गए।
बाद में उसे एक सुनसान स्थान में कार से उतार दिया। उस घटना की तब खूब चर्चा हुई पर नेता जी का कुछ नहीं बिगड़ा। इससे अन्य दबंग नेताओं का दुस्साहस बढ़ा। दूसरी घटना घटना दिल्ली की है। दक्षिण भारत के एक केंद्रीय मंत्री के बिगड़ैल पुत्र ने दिल्ली के पास के एक राज्य में किसी की हत्या कर दी। वह गिरफ्तार हो गया। केंद्रीय मंत्री मदद के लिए प्रधानमंत्री के यहां गए। उन्होंने मदद से इन्कार कर दिया, फिर वह मंत्री एक अन्य ताकतवर केंद्रीय मंत्री के पास गए। वह संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री के गहरे दोस्त थे। दोनों में बातचीत हुई। मंत्री पुत्र को जमानत मिल गई। मंत्री ने लड़के का तुरंत पासपोर्ट भी बनवा दिया और वह विदेश चला गया।
कोई भी समझ सकता है कि उपरोक्त घटनाओं का कानून व्यवस्था पर कैसा असर पड़ा होगा? समय बीतने और राजनीति में भारी गिरावट आने के साथ अब स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की हार्दिक अपील के बावजूद ऐसे अपराध भी नहीं रुक रहे हैं जिससे देश का तानाबानाबिगड़ने का खतरा है। प्रधानमंत्री को राज्यों के साथ मिलकर तरह-तरह के अपराधियों के खिलाफ भी कोई सर्जिकल स्ट्राइक करानी चाहिए।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं ]