सैयद अता हसनैन

पिछले साल 18 सितंबर को सीमापार से आए चार आतंकियों ने कश्मीर स्थित उड़ी के सैन्य मुख्यालय पर तड़के हमला कर दिया था जिसमें 20 जवान शहीद हो गए थे। हालांकि ऐसे हमले पहले भी हुए थे, लेकिन उड़ी हमला इसलिए ज्यादा गंभीर था, क्योंकि यह छद्म ताकतों द्वारा छद्म लोगों के समर्थन से ऐसे समय अंजाम दिया गया था जब 8 जुलाई, 2016 को आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद कश्मीर एक बार फिर अराजकता और अव्यवस्था के बुरे दौर में घिर गया था। यह दुर्भाग्यपूर्ण हमला इस बात की पूर्व खुफिया जानकारी के बावजूद हुआ कि चार आतंकवादी नियंत्रण रेखा के गहन चौकसी वाले क्षेत्र में घुसपैठ कर इस बेहद प्रतिष्ठित बेस पर हमला कर सकते हैं, जिसके संचालन का एक बार मुझे सौभाग्य मिला था। बहरहाल ऐसी नकारात्मक घटनाओं की बरसी को उन कमियों-कमजोरियों को तलाशने-खोजने और उन्हें दूर करने के अवसर के रूप में लेना चाहिए जिनके कारण दुश्मनों को देश को आघात पहुंचाने का मौका मिल जाता है। साथ ही ऐसे विश्लेषण किसी एक पक्ष के बजाय संपूर्णता में और रणनीतिक, प्रक्रियागत और सामरिक जैसे विभिन्न स्तरों पर होने चाहिए, क्योंकि हमें न सिर्फ एक घटना, बल्कि इसकी पूरी श्रृंखला को रोकने के लिए उपाय करने हैं। हालांकि यह अच्छी बात है कि हमारी रणनीतिक तैयारियां ऐसी हैं कि जरूरत पड़ने पर नियंत्रण रेखा और उसके आसपास सिर्फ पांच मिनट में हम जवाबी कार्रवाई कर पलटवार कर सकते हैं।
हमारे सैन्य बल भारत में या भारत से बाहर सुरक्षा के मोर्चे पर मिल रही अनियमित धमकियों को लेकर जागरूक हैं। भारतीय सैन्य बलों को मिलने वाली सुविधाओं की आलोचना या जवानों पर हमले से विरोधियों को ठीक-ठाक प्रचार-प्रसार मिल जाता है और अधिकारियों के अहंकार की भावना उन्हें बढ़ावा देती है। ऐसे में जब लेफ्टिनेंट जनरल फिलिप कैंपोस की रिपोर्ट अभी लागू होने के क्रम में है तो तब देश की प्रशासनिक प्रक्रियाओं को देखते हुए सुरक्षा उपायों से जुड़ी अपेक्षाकृत छोटी योजनाओं को लागू करना आसान नहीं है। हालांकि सेवा मुख्यालय की सुरक्षा को हाल ही में कई तरह से चाकचौबंद किया गया है, लेकिन सच्चाई यह है कि सुरक्षा घेरे को मजबूत बनाने के लिए जब 1999 में पहली बार कथित फिदायीन हमले की धमकी मिली थी तभी से इस तरह की सैकड़ों परियोजनाएं अभी भी धूल फांक रही हैं। दुर्भाग्य से अभी तक उस पर कोई विचार नहीं हो सका है। इस निष्क्रियता और सुरक्षा से खिलवाड़ की कीमत देश अपने बहुमूल्य जवानों की जान से चुका रहा है। यहां यह कहना बिल्कुल जायज होगा कि कोई भी सरकार या सुरक्षा प्रणाली इस बात की सौ फीसद गारंटी नहीं दे सकती है कि वह नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी, घुसपैठ या प्रदेश में आतंकी हमलों पर रोक लगा देगी। ऐसे में संस्थाओं और संगठनों के लिए सबसे जरूरी यह है कि वे ऐसी नकारात्मक घटनाओं से सीख लें और जहां भी जरूरत हो वहां लगातार सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता करते रहें, परंतु क्या सच में ऐसा हो रहा है? दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि नहीं। भारत के पास नियमितता का अभाव है, क्योंकि अधिकारीगण अपनी-अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों के मद में डूबे रहते हैं। हालांकि सरकार ने कुछ मामलों जैसे अपनी और राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए सैन्य बलों का विकेंद्रीकरण और उनको सशक्त बनाकर बेहतर काम किया है। अब सरकार को साल 2001 से सबक लेते हुए यह काम लगातार करते रहना चाहिए, क्योंकि उस समय शुरुआत में तो सरकार ने सैन्य बलों के सशक्तीकरण के कुछ प्रयास किए, लेकिन जल्द ही उत्साह ठंडा पड़ गया। ऐसा प्रतीत होता है कि करगिल रिव्यू कमेटी और समकालीन मंत्री समूहों की रिपोर्टों के अधिकांश हिस्से जो लागू नहीं हो सके थे उन्हें फिर से नए मंत्री समूहों और विशेषज्ञों द्वारा मौजूदा संदर्भ में परखने की जरूरत है।
हालांकि सरकार और सेना सहित दूसरे सुरक्षा बल पिछले वर्ष से घाटी में चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में अपने चुस्त-दुरुस्त अभियानों के जरिये चरमपंथी हिंसा के ज्वार को नियंत्रित करने में सफल रहे हैं, लेकिन नियंत्रण रेखा की सुरक्षा के संबंध में भी यही बात विश्वास के साथ नहीं कही जा सकती है। सैनिकों को गोली मारने और सिर काटे जाने की घटनाएं बताती हैं कि नियंत्रण रेखा पर तैनात सुरक्षा बलों के प्रशिक्षण में कुछ खामी है और वहां जरूरी बुनियादी ढांचे का अभाव है। संघर्ष विराम ने नियंत्रण रेखा से जुड़े अभियानों के बारे में सेना की समझ को प्रभावित किया है जो कि इसमें खास तरह की विशेषज्ञता रखती है। ऐसे में पाकिस्तानी सेना की ओर से होने वाली गोलीबारी का सीमावर्ती लोग लगातार शिकार हो रहे हैं। हाल में जब राजनाथ सिंह ने नियंत्रण रेखा का दौरा किया तब स्थानीय लोगों ने उनसे सामुदायिक बंकर के निर्माण की मांग की। संघर्ष विराम के प्रति हमारी प्रतिबद्धता या आक्रामक कार्रवाई करने की इच्छा में कमी हमारी प्रतिक्रियात्मक क्षमताओं को कुंद कर रही है। लिहाजा ये सारे बंकर प्राथमिकता के आधार पर सभी प्रभावित क्षेत्रों में बनाए जाने चाहिए।
उड़ी हमले के दस दिन के भीतर सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देकर अच्छा काम किया। हालांकि यह सोचना कि पाकिस्तानी सेना द्वारा प्रायोजित ऐसे हर आतंकी हमले के बाद ऐसी जवाबी कार्रवाई की उम्मीद करना हास्यास्पद होगा। बहरहाल ऐसी घटनाओं से निपटने में सरकार और सेना, दोनों इन दिनों कुछ ज्यादा सक्षम नजर आ रही हैं। तमाम लोग इस बात से सहमत नहीं होंगे, लेकिन सरकारी प्रोत्साहन से नियंत्रण रेखा के पार जाकर ऐसे ऑपरेशन को अंजाम देने से सेना के आत्मविश्वास में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। मैं दावे के साथ कहना चाहूंगा कि इसी विश्वास के कारण सेना ने डोकलाम में चीन के दबाव का डटकर सामना करने के लिए सरकार को सलाह देने का साहस किया होगा। पाकिस्तानी मीडिया में डोकलाम में भारत के रुख से वहां के सामरिक विशेषज्ञ चकित रह गए थे। इससे पता चलता है कि जब नेता, सैनिक और राजनयिक एकजुट होकर काम करें तो हर मोर्चे पर हमारी जीत होगी। अपने हालिया सिंगापुर और इजरायल दौरे में मुझे अहसास हुआ है कि सामरिक मोर्चे पर हम लोग क्यों पिछड़े हुए हैं। हम अकादमिक, सैन्य, राजनयिक तबके के लोगों और गवर्नेंस के विशेषज्ञों को एक मंच पर नहीं ला पाते हैं। उनकी साझा शक्ति का दोहन नहीं कर पाते हैं। यहां सभी अलग सोचते और प्रयास करते हैं। लिहाजा उनकी कोशिशें व्यर्थ चली जाती हैं। याद रखें कि एकता में ही शक्ति होती है।
पिछले एक वर्ष में कमियां दूर हो गई हैं और क्षमता में इजाफा हुआ है, यह समझना सामरिक नासमझी होगी, लेकिन आज हमारी सोच और प्रतिक्रिया देने का ढंग काफी हद तक बदल गया है। ऐसे में 2005 से 2010 के दौरान विकसित हुई सैन्य कायाकल्प रणनीति पर पुनर्विचार करने का यह सबसे बेहतर समय है। इससे हमारी सेना पूरी तरह बदल जाएगी। ऐसे महत्वपूर्ण दृष्टिकोण को ठंडे बस्ते में रखने की प्रवृत्ति सिर्फ हमारी सुरक्षा संबंधी क्षमताओं को ही निस्तेज करती है।
[ लेखक सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हैं)