प्रसन्नता एक सकारात्मक मनोदशा है। हमारी मन:स्थिति जैसी होती है, वैसे ही भौतिक, रासायनिक परिवर्तन भी शरीर में घटते हैं। हमारी मनोदशा काफी कुछ जीवन की परिस्थितियों से जुड़ी होती है। प्रसन्नता या खिन्नता भी इस पर निर्भर होती है कि प्रतिकूल और अनुकूल घटनाओं से हमारा मन कितना उत्तेजित होता है। अधिकतर लोगों की खुशी देर तक नहीं टिकती। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनकी यह स्थिति बाहरी वस्तुओं, व्यक्तियों और परिस्थितियों के कारण होती है। सामान्य व्यक्ति की खुशी का आधार संपत्ति, शक्ति, प्रतिभाएं योग्यताएं और समाज से प्राप्त हुईं मान्यताएं, प्रतिष्ठा आदि ही होती हैं। इनके लिए दूसरों पर निर्भरता अनिवार्य है। आम तौर पर व्यक्ति परिस्थितियों का दास होता है। व्यक्ति अपनी खुशी का आधार छिन जाने की आशंका से ग्रस्त रहता है। उसे जो प्राप्त है उससे अधिक पाने की कामना जन्मती है। यह लोभ, लालच और महत्वाकांक्षा तनाव और भय का कारण बनती है। परिणामस्वरूप खुशी जल्दी ही तिरोहित हो जाती है। केवल आंतरिक खुशी स्थायी हो सकती है और ऐसी खुशी बाहरी तत्वों पर निर्भर नहीं हो सकती। जो व्यक्ति अपने भीतर जितना गहरे उतरता है, वह उतना ही सहज प्रसन्न होता है। बाहरी तत्वों पर हमारी निर्भरता जितनी घटती जाती है, हमारी आंतरिक खुशी उसी मात्रा में बढ़ती चली जाती है।
हमारी खुशी हमेशा सापेक्ष होती है। अगर आप वाह्य कारणों से खुश होते हैं, तो उदासी भी आएगी ही। आज सुख है तो कल दुख होगा। आज आशा की किरण दिखेगी तो कल खिन्नता व हताशा की भावदशा होगी, किंतु ध्यान में जानी गई आनंदपूर्ण अवस्था की कोई विपरीत दशा नहीं है। साधना इस खुशी को रिलेटिव सापेक्ष दृष्टिकोण से परे ले जाना सिखाती है। संसारी व्यक्ति की खुशी एक उन्मादपूर्ण अवस्था है। जो अंदर है, उसे बाहर खोजने चले तो सिवाय अर्थहीन भटकन के कुछ हाथ नहीं लगता। आपके आंतरिक आनंद के स्वामी स्वयं आप हैं। बाहर का कोई परिवर्तन उसमें हेरफेर नहीं कर सकता। इसलिए प्रबुद्ध लोग खुशी का अनुभव अपनी अंतरात्मा में करते हैं। साक्षी की अंतर्यात्रा से साधक की भावनाओं में सुनिश्चित रूपांतरण घटता है, क्योंकि वह असली और स्थायी खुशी अनुभव करने लगता है।
[ मां ओशो अनु ]