समस्त संसार में कई प्रकार के संघर्ष हो रहे हैं। इनके दैनिक घटनाक्रमों को मन-मस्तिष्क में भरकर रखना सांसारिक सामान्य ज्ञान व विद्वता के लिए आवश्यक हो सकता है, परंतु आध्यात्मिक और क्षणभंगुर जीवन की कसौटी पर यह समस्त ज्ञान व विद्वता वैचारिक अपशिष्ट के समान है। जब कोई व्यक्ति दुनिया में कई प्रकार की उथल-पुथल के उपरांत अशक्त, रोगी होकर मृत्यु के द्वार पर खड़ा होता है, तो उसके लिए असांसारिक और पारलौकिक जिज्ञासाएं ही रुचि का विषय होती हैं। तब वह भौतिक दुनिया को एक सम्मोहक स्वप्न से अधिक नहीं समझता। धर्म-अध्यात्म की वास्तविक व्याख्या यही है। सनातन धर्म इसी अकाट्य तथ्य पर आरूढ़ होकर क्षणभंगुर जीवन की मौलिक और रचनात्मक व्याख्या करता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से पूर्ण व्यक्ति इसी सिद्धांत को महत्वपूर्ण समझता है। ऐसे व्यक्ति को अपना जीवन मूल्यवान होने के साथ-साथ मूल्यहीन भी लगता है। किसी मानव का जीवन मूल्यवान तब बनता है, जब वह अपने आत्मिक उद्देश्यों को किसी संकोच के बगैर पूरा करता जाता है। इसी प्रकार जीवन मूल्यहीनता से तब ग्रसित होता है, जब न चाहते हुए भी आत्मिक उद्देश्यों के प्रतिकूल कार्यों में लिप्त रहना पड़ता है। आत्मिक उद्देश्य से तात्पर्य व्यक्ति द्वारा स्वयं को समाज, मानव कल्याण के उन सभी कार्यों के प्रति समर्पित कर देने से है, जो उसकी आत्मा उससे करने का आह्वान करती है। प्राय: यही होता है कि हम परोपकार के सैद्धांतिक आकर्षण तक ही सीमित रह जाते हैं। जबकि परोपकार का महत्व कर्म में ही समाहित है। धन, संसाधन, परिश्रम, शरीर के माध्यम से दूसरे मानव की सहायता करना ही परोपकार है।
किसी की सहायता का माध्यम बन जाने के बाद नि:संदेह हम उस सहायता-कर्म का एक आध्यात्मिक विश्लेषण करें तो वह जीवन की एक व्यावहारिक आध्यात्मिक समीक्षा होगी। हम सभी का यही सोचना होता है कि जीवन में भावनाओं के स्तर पर रिक्तता का बोझ न हो। चाहे अमीर आदमी हो या गरीब दोनों स्तर पर वह किसी न किसी बात से असंतुष्ट व दुखी रहता है। इस पीड़ा से बचने का एक ही उपाय है और वह है आत्मिक उद्देश्य के प्रति समर्पित होना। रचनात्मक व्यक्ति के लिए जीवनावधि बहुत छोटी है। वह इस समयकाल का सर्वोत्तम सदुपयोग सांसारिक होकर नहीं बल्कि आत्मिक होकर ही कर सकता है।
[ विकेश कुमार बडोला ]