परमात्मा सभी सत्ताओं में व्यक्त और अव्यक्त रूप में विद्यमान है। इसी स्वाभाविकता के कारण वह सभी सत्ताओं में अपरिवर्तनीय रूप में विराजमान है। इस परम एकता की अवस्था में जब हम उन्हें देखने जाते हैं तो सारे वस्तु भेद मिट जाते हैं। वास्तविकता में आध्यात्मिक साधकों के लिए वह प्रथम और अंतिम शब्द है। पदार्थ विज्ञान विश्लेषणात्मक है। इसलिए पदार्थ पर शोध और अनुसंधान बाहर से होता है, किंतु जो अखंड है, उस क्षेत्र में अनुसंधान करने के लिए और आध्यात्मिक अर्थ ग्रहण करने के लिए अंतरविश्लेषण करना ही होगा, दूसरा कोई उपाय नहीं। यह ईश्वरीय सत्ता स्थायी रूप से सभी वस्तुओं में स्थित है और इसलिए उन्हें देखने के लिए स्वयं को सूक्ष्मतम में प्रतिष्ठित करना पड़ेगा, गहरे से गहरे में जाना पड़ेगा। जो सद्गुरु हैं, परम सत्य के ज्ञाता हैं, जिनसे हम ब्रह्म ज्ञान सीखेंगे, वे हमें समझा देंगे कि आत्मा मन के कई स्तरों से अत्यंत सूक्ष्म हैं। मन के ये स्तर परिवर्तनशील और क्षणजीवी हैं।
आत्मा ही शाश्वत है। इसलिए आध्यात्मिक ज्ञान से जिस आनंद को हम प्राप्त करेंगे, वह शाश्वत आनंद होगा। इसलिए उसे ‘ब्रह्मानंद’ कहा जाता है। अस्थायी वस्तुओं से आनंद नहीं प्राप्त किया जा सकता है। अस्थायी और कालबद्ध वस्तुएं आएंगी और चली जाएगी, कभी वे हमें हंसाएंगी और कभी रुलाएंगी। वे कालबद्ध वस्तुएं कितनी भी प्रिय क्यों न हों, एक दिन वे निश्चित और असंदिग्ध रूप से हमें छोड़कर एक झटके के साथ हमें निकम्मा और भिखारी बना कर चली जाएंगी। वहीं परमात्मा हमें विलाप करने नहीं देंगे। वे शाश्वत हैं, चिरंतन हैं, अपरिवर्तनीय सत्ता हैं। यम कहते हैं, ‘हे नचिकेता, परमपुरुष के साम्राज्य का महाद्वार आपके सामने खुला हुआ है। जिसने संपूर्ण रूप से मानस तत्वों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है उसने विनाशशील और अविनाशी का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया है।’ मानसिक विकास के साथ-साथ जब कोई खंड सुख से अखंड सुख की ओर बढ़ता है तब उसे भौतिक सुख की अपेक्षा मानसिक सुख में ज्यादा रुचि हो जाती है। देश-प्रेम अथवा इसी तरह के सूक्ष्म सुख के लिए मनुष्य अपने जीवन का उत्सर्ग करने के लिए तत्पर रहते हैं। अष्टांग योग के माध्यम से देह और मन में सचेत साधक क्रमश: अपनी प्रसुप्त मानसिक शक्ति को जाग्रत कर सकते हैं और उन्नत मन की सहायता से वे अंतत: परम शांति अथवा आध्यात्मिक उपलब्धि में प्रतिष्ठित हो सकते हैं।
[ श्री श्री आनंदमूर्ति ]