डॉ. एके वर्मा

आज भारतीय राजनीति किसान केंद्रित होती जा रही है। किसानों की बदहाली पर केंद्र और राज्य सहित पूरा देश चिंतित है। न्यायपालिका को हस्तक्षेप कर कार्यपालिका को निर्देश देना पड़ रहा है कि किसानों के साथ सख्ती से पेश न आएं, जैसा कि अभी सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार को दिया। चुनावों में भी किसानों के मुद्दे हावी होते जा रहे हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण उत्तर प्रदेश का पिछला विधानसभा चुनाव था जिसमें स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की कर्ज माफी, फसल बीमा योजना, फसल की सरकारी मूल्य पर खरीद, यूरिया की नीम कोटिंग, मृदा स्वास्थ्य कार्ड और किसानों से संबंधित अनेक समस्याओं को चुनावी प्रचार का मुख्य मुद्दा बनाया। जहां भाजपा सरकार बनने पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने मंत्रिमंडल की पहली बैठक में किसानों के कर्ज माफ करने का निर्णय लिया, वहीं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने पिछले महीने किसानों के आंदोलन के बाद 36 हजार करोड़ रुपये की कर्ज माफी की घोषणा की। बीते महीने ही मध्य प्रदेश में भी किसानों ने कर्ज माफी को लेकर हिंसक आंदोलन किया।
क्या कर्ज माफी किसानों की समस्या का कोई हल है? क्या उससे वास्तव में किसान खुशहाल होगा? क्या उससे उनकी आत्महत्याओं का सिलसिला रुक सकेगा? कर्ज माफी का सारा बोझ तो जनता पर जाता है और असली पीड़ित को संभवत: कोई राहत भी नहीं मिल पाती, लेकिन कर्ज माफी राजनीतिज्ञों के लिए सबसे सरल रास्ता है, क्योंकि उससे कृषि प्रधान देश में किसानों को एक वोट बैंक में तब्दील करने और उसका राजनीतिक लाभ लेने में सहूलियत होती है। ऐसा लगता है कि किसानों की बढ़ती आत्महत्याएं और हिंसक होते आंदोलनों के पीछे जो गंभीर सामाजिक-आर्थिक कारण हैं, सरकारें उसे समझना ही नहीं चाहतीं। वे ऐसी घटनाओं से इतने मनोवैज्ञानिक दबाव में आ जाती हैं कि कर्ज माफी का सरल रास्ता चुन लेती हैं, लेकिन साल-दर-साल कर्ज माफी का फैसला बैंकों और सरकारों के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है जबकि किसानों की समस्या जस-की-तस बनी हुई है। करीब छह लाख गांवों और साढ़े पांच करोड़ किसानों वाले देश में अब न तो कोई किसान राजनीति रही, न किसान आंदोलन और न ही किसानों का कोई बड़ा नेता। जो लोग किसानों का नेतृत्व कर सकते हैं, उनका शहरीकरण हो गया है। क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं कि वर्तमान लोकसभा में केवल सात सांसद ही किसान हैं! स्वतंत्रता के बाद जमींदारी उन्मूलन, हदबंदी (लैंड सीलिंग), चकबंदी और पैतृक संपत्ति के बंटवारे से गांवों में छोटी जोत के किसानों की संख्या काफी बढ़ गई है। यदि उनकी जमीन ‘सिंचित’ नहीं तो जीवनयापन के लिए किसान एकमात्र उस पर निर्भरता बनाए नहीं रह सकता। वह उसे किसी को ‘बटाई’ या ठेके पर दे देता है और स्वयं शहर चला जाता है जहां वह कुछ भी करके अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। इसी तरह ज्यादातर मध्यम और बड़े किसान भी अपने बच्चों की शिक्षा और अच्छे जीवन के लिए शहरों में रहते हैं और खेतिहर मजदूरों से खेती करवाते हैं। परिणाम सामने है। जनगणना 2011 के आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में देश में खेतिहरों की संख्या में काफी कमी आई है। एक अध्ययन के अनुसार 62 फीसद किसान शहरी नौकरी के लिए किसानी छोड़ना चाहते हैं।
राज्यों में बाढ़ और सूखे के चलते अक्सर फसलें खराब हो जाती हैं और तब बटाईदार या ठेके पर किसानी करने वाले आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या को विवश हो जाते हैं। ये वे गरीब हैं जिनकी थोड़ी-सी जमीन होती है और ठेके या बटाई पर कुछ और जमीन लेकर वे अपनी आय और उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं, पर उन्हें जमीन के मालिक को प्रति एकड़ या बीघा के हिसाब से कुछ पैसा या अनुमानित पैदावार का कुछ हिस्सा देना ही पड़ता है, चाहे फसल हो या न हो! जब फसल बर्बाद या खराब हो जाती है तो उनके पास देने के लिए न पैसा होता है, न पैदावार, केवल होती है देनदारी। वे आत्महत्या न करें तो क्या करें? दुर्भाग्य यह कि सरकार जब भी मुआवजा देती है या कर्ज माफ करती है या बीमा कंपनी फसलों के नुकसान पर बीमित राशि का भुगतान करती है तो उसका लाभ उस पीड़ित को इसलिए नहीं मिल पाता, क्योंकि उसके नाम तो जमीन थी ही नहीं। समस्त आर्थिक लाभ ठेकेदार और बटाईदार को मिलता है जो गांव छोड़ चुका है, लेकिन जमीन का कानूनी हक रखता है। तो फिर सरकार के कर्ज माफी से उस छोटे किसान या खेत जोतने वाले किसान का क्या बदला? देखा जाए तो पूरे देश में अधिकतर राज्यों में दूसरों की जमीन पर बटाई या ठेके पर काम करने वाले किसानों की संख्या ज्यादा है। कुछ राज्यों ने उनके हितों की रक्षा के लिए कुछ ‘टेनेंसी-कानून’ बनाए जरूर हैं, पर गांव का अनपढ़ और गरीब किसान इतना दबा रहता है कि वह इस संबंध में जमीन के मालिक से कोई औपचारिक अनुबंध नहीं कर पाता जिससे सरकार, प्रशासन और बीमा कंपनियां भी मजबूर हो जाती हैं और संपूर्ण वित्तीय लाभ उसको मिल जाता है जिसका नाम खसरा-खतौनी में होता है, न कि उसे जो खेत जोत रहा था।
प्रधानमंत्री किसानों को लेकर चिंतित हैं। वह 2020 तक उनकी आय दोगुना करना चाहते हैं। अभी हाल में उनकी इजरायल यात्रा का जो भी उद्देश्य रहा हो, लेकिन उसके केंद्र में कृषि उत्पादकता बढ़ाने और किसानों का हित भी था। इससे बुंदेलखंड, विदर्भ, राजस्थान और दक्षिणी राज्यों के बंजर इलाकों में उम्मीद की किरण फूटी है, क्योंकि इजरायल ने उसमें महारत हासिल की हुई है। भारत-इजराइल संबंधों में बेहतरी से देश में एक ‘द्वितीय हरित क्रांति’ की संभावना पैदा हुई है। सौभाग्य से हमारी घरेलू और वैश्विक राजनीति के केंद्र में किसान आ गया है, लेकिन उसका लाभ बड़े किसानों या जमीनों का मालिकाना हक रखने वालों को न मिल कर खेत
जोतने वाले काश्तकार को कैसे मिले, सरकार को इस पर ध्यान देना पड़ेगा। तभी उन्हें वित्तीय योजनाओं और फसल बीमा का लाभ मिल सकेगा और किसानों की आत्महत्याएं रुक पाएंगी।
[ लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं स्तंभकार हैं ]