हमारे ध्रुवीय राकेट (पीएसएलवी-सी 7) ने 10 जनवरी, 2007 को अपनी दसवीं उड़ान में एक साथ चार उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण किया था। इसमें दो भारतीय उपग्रहों काटरेसैट-2 और एसआरई-1 के अतिरिक्त इंडोनेशिया और टेक्निकल यूनीवर्सिटी ऑफ बर्लिन द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित लापानसैट तथा अर्जेंटीना का उपग्रह पेहुनसैट था। इस उड़ान की विशिष्टता इस बात में नहीं थी कि इसने एक साथ चार उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण किया, क्योंकि इससे पहले भी हम ऐसा कई बार कर चुके हैं। इस मिशन का लक्ष्य हमारे उपग्रह एसआरई (स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरिमेंट) को अंतरिक्ष में भेजना और उसे कुछ अंतराल के बाद समुद्र में सुरक्षित ढंग से उतार लेना था। यह परीक्षण पूरी तरह से सफल रहा। भावी मानवीय अंतरिक्ष अभियानों की ओर यह भारत का पहला कदम था। बारह दिनों तक अपनी कक्षा में चक्कर लगाने के बाद रेडियो कमान से उपग्रह में लगे बूस्टरों को दागा गया, जिससे उसका वेग कम हो गया और वह पृथ्वी के वायुमंडल में प्रविष्ट कर गया। जब यह वायुमंडल में प्रविष्ट कर गया तो इसकी गति को और कम करने के लिए पृथ्वी से 5 किमी की ऊंचाई पर इसके पैराशूट खोल दिए गए और इस प्रकार यह बंगाल की खाड़ी में सुरक्षित ढंग से पूर्व निर्धारित क्षेत्र में गिर गया जहां से तटरक्षकों ने इसे खोज निकाला। वस्तुत: यह पुन: इस्तेमाल किया जाने वाला यान था। इस प्रयोग की सफलता का अर्थ इस बात में है कि भविष्य में बार-बार इस्तेमाल किए जाने वाले अंतरिक्ष यान विकसित किए जा सकेंगे। इससे हमारा अंतरिक्ष बजट काफी कम हो जाएगा और भविष्य में हम मानवीय अंतरिक्ष अभियानों को संचालित कर सकेंगे।

इस बार सर्वाधिक शक्तिशाली राकेट 'जीएसएलवी-3' का इस्तेमाल किया गया। यह मात्र परीक्षण उड़ान थी, वास्तविक नहीं अर्थात इसमें संलग्न क्रायोजेनिक इंजन को प्रज्ज्वलित ही नहीं करना था। हमारा जीएसएलवी मार्क-3 अपने साथ 3775 किग्रा वजनी क्रू माड्यूल ले गया था जिसमें बैठकर अंतरिक्ष यात्री आवागमन करते हैं। 18 दिसंबर को हमारे जीएसएलवी राकेट ने सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्रीहरिकोटा से प्रात: ठीक 9:30 बजे उड़ान भरी। लिफ्ट ऑफ के साढ़े पांच मिनट बाद राकेट ने हमारे कैप्सूल को 126 किमी. की ऊंचाई पर पहुंचा दिया और इसके बाद इसने पृथ्वी के वायुमंडल में फिर से प्रवेश करना आरंभ किया। लिफ्ट ऑफ के 20 मिनट 43 सेकेंड बाद यह श्रीहरिकोटा से 1600 किमी दूर अंडमान सागर में गिर गया। पहले इसे एक हेलिकाप्टर ने चिह्नित किया फिर कोस्ट गार्ड ने नौकाओं से इसे सुरक्षित खींच निकाला और जीएसएलवी की पहली परीक्षण उड़ान कुशलतापूर्वक संपन्न हुई। इस प्रयोग की सफलता से 'इसरो' के वैज्ञानिकों में नवीन आशा का संचार हुआ है। वास्तव में यह प्रयोग हमारे उस सपने का एक हिस्सा है जब हमारा भी कोई अंतरिक्ष यात्री चांद या मंगल का स्पर्श कर सकेगा। रही बात जीएसएलवी मार्क-3 के विकासात्मक उड़ान की तो उसमें अभी विलंब है। जीएसएलवी राकेट के तीन मॉडल हैं। इसके 'मार्क-1' की भार वहन क्षमता (पेलोड का भार) 1.8 टन है, मार्क-2 अपने साथ 2.5 टन भारी संचार उपग्रहों को ले जा सकता है और 36000 किमी की ऊंचाई वाली भू-स्थिर कक्षा में उनकी सफल स्थापना कर सकता है। इसका 'मार्क-3' अपने साथ 4 टन वजनी 'इनसेट-4/जीसैट' श्रृंखला के उपग्रहों को ले जा सकता है, मगर उसमें अभी देर है, क्योंकि हमारे स्वदेशी क्रायोजेनिक की प्रौद्योगिकी अभी परिपक्व नहीं हुई है।

जीएसएलवी त्रिचरणीय राकेट है। इसके तीसरे और सबसे ऊपरी चरण में क्रायोजेनिक इंजन संलग्न किए जाते हैं। रूस से हुए समझौते के तहत हमें 7 क्रायोजेनिक इंजन मिले हैं, जिनमें से हमने 6 का प्रयोग कर लिया है। इनमें से मात्र तीन उड़ानों में ही सफलताएं मिली हैं। स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन की पिछली उड़ान 5 जनवरी, 2014 को श्रीहरिकोटा से आयोजित की गई थी, जिसमें इसने 1982 किग्रा. वजनी भारतीय संचार उपग्रह 'जीसैट-14' को भूस्थिर कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया। मगर अंतरराष्ट्रीय जगत में चार टन से कम वजनी उपग्रहों की कोई महत्ता नहीं है। इस परीक्षण के लिए राकेट को नई तरह से परिकल्पित करना पड़ा। इस उड़ान में जीएसएलवी के मात्र दो चरण ही प्रयुक्त किए गए। जीएसएलवी के मूल मॉडल में प्रथम चरण की मुख्य मोटर ठोस प्रणोदक संचालित है और उसके साथ संलग्न चार बूस्टर राकेट द्रव प्रणोदक संचालित होते हैं। पहले बूस्टर राकेटों को दागा जाता है ताकि यदि कोई गड़बड़ी हो तो यान का प्रज्ज्वलन रोका जा सकता है, फिर इसकी ठोस प्रणोदक संचालित मुख्य मोटर प्रज्ज्वलित होती है, जो यान को 25 प्रतिशत वेग प्रदान करती है, फिर द्रव प्रणोदक संचालित इसका दूसरा चरण प्रज्ज्वलित होकर यान को 25 प्रतिशत वेग देता है और इसका तीसरा और सबसे ऊपरी चरण (क्रायोजेनिक इंजन) 720 सेकंड तक प्रज्ज्वलित रहकर यान को 50 प्रतिशत वेग देकर उपग्रह को 36000 किमी की ऊंचाई वाली कक्षा में स्थापित कर देता है। इस बार हमें किसी उपग्रह की भू-स्थिर कक्षा में स्थापना ही नहीं करनी थी, अत: इसकी भिन्न रूप से परिकल्पना करनी पड़ी। इसके पहले चरण में चार बूस्टरों की जगह मात्र दो बूस्टरों का इस्तेमाल किया गया और वह भी ठोस प्रणोदक संचालित और इसकी मुख्य मोटर में द्रव ईंधनों का इस्तेमाल किया गया। इसके ऊपर डमी क्रायोजेनिक संलग्न किया गया, जिसका प्रज्ज्वलन होना ही नहीं था। सबसे ऊपर क्रू माड्यूल रखा गया था। जब 126 किमी की ऊंचाई पर पहुंचकर हमारा क्रू मॉड्यूल राकेट से अलग हुआ तब उसने इसे 5.3 किमी प्रति सेकेंड का वेग प्रदान किया और हमारा रिकवरी कैप्सूल नीचे गिरना शुरू हो गया, जिसे बंगाल की खाड़ी में प्राप्त कर लिया गया।

अब इस प्रयोग की सफलता से यह आशा मजबूत हुई है कि निकट भविष्य में हम 'जीएसएलवी-मार्क-3' का विकास कर सकेंगे, जिसकी मदद से साढ़े चार टन से 5 टन वजनी उपग्रहों को सफलतापूर्वक भूस्थिर कक्षा में स्थापित कर सकेंगे और तब हमारी फ्रेंच राकेट एरियन पर निर्भरता समाप्त हो जाएगी और भारत भी अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में पूर्णत: आत्मनिर्भर हो जाएगा।

(शुकदेव प्रसाद: लेखक विज्ञान मामलों के विशेषज्ञ हैं)