डॉ. भरत झुनझुनवाला

रोजगार सृजन के लिए सरकार ने एक कार्यबल यानी टास्क फोर्स का गठन किया है। कृषि में ट्रैक्टर, हार्वेस्टर और ट्यूबवेल के उपयोग से श्रम की जरूरत कम हो गई है इसलिए सामान्य कृषि उत्पादों जैसे गेहूं और गन्ने का उत्पादन बढ़ाने से रोजगार पैदा नही होंगे, बल्कि इनका उत्पादन बढ़ाने से पर्यावरण का क्षय होगा और रोजगार कम होंगे। जैसे गन्ने की खेती के लिए ट्यूबवेल के अधिक उपयोग से गांव के तालाब सूख जाते हैं और इसके चलते मछली पालन में बन रहे रोजगार समाप्त हो जाते हैैं। हालांकि महंगे कृषि उत्पादों के जरिये जरूरी रोजगार के अवसर बन सकते हैं। जैसे तरबूज को अगर चौकोर आकार का बनाना हो तो छोटे फल को चौकोर डिब्बों में डालना होता है। फल बड़ा होने के साथ क्रमश: बड़े डिब्बे लगाने होते हैं। ऐसे तरबूज का दाम ज्यादा मिलता है और उसके उत्पादन से रोजगार के अवसर भी बनते हैं। अत: उच्च कीमत के कृषि उत्पादों की तरफ बढ़ना चाहिए। हमारे पास हर प्रकार की जलवायु उपलब्ध है। जैसे गुलाब के फूल गर्मी में पहाड़ों पर, बरसात में दक्कन के पठार पर और जाड़े मे उत्तर प्रदेश में उगाए जा सकते है। सरकार को चाहिए कि उच्च कीमत के ऐसे कृषि उत्पादों के निर्यात पर सब्सिडी दे। वर्तमान में जैसे उर्वरक और बिजली पर दी जा रही सब्सिडी को इस दिशा मे मोड़ने से किसान पर कुल भार नही बढ़ेगा, परंतु उसकी दिशा का परिवर्तन होगा।
विनिर्माण में भी कमोबेश ऐसी ही परिस्थिति है। बड़ी कंपनियां ऑटोमेटिक मशीनों से उत्पादन करती हैं। उनके जरिये रोजगार सृजन कम ही हो रहा है। इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां जैसे एप्पल द्वारा भारत में आई-फोन बनाए जाने से भारत का तकनीकी उन्नयन अवश्य होगा, परंतु रोजगार के अवसर नहीं बनेंगे। वैश्विक अनुभव बताता है कि विनिर्माण में अधिकतर रोजगार छोटे उद्योगों द्वारा बनाए जाते हैं, लेकिन छोटे उद्योगों का दायरा भी सिकुड़ता जा रहा है। जैसे पहले हर शहर मे डबलरोटी बनाने की फैक्ट्री होती थी। आज बड़े शहरों से डबलरोटी गांवों मे भी सप्लाई हो रही है। अब तक सरकार की सोच थी कि किसी विशेष क्षेत्र में कार्यरत तमाम छोटे उद्योगों को एक समूह में स्थापित किया जाए जैसे तिरुपुर में होजरी फैक्ट्रियों को। इन्हे सामूहिक स्तर पर प्रदूषण नियंत्रण सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकती है जिससे इनकी उत्पादन लागत में कमी आए और ये बड़े उद्योगों के सामने खड़े रह सकें। बहरहाल जमीनी अनुभव बताता है कि छोटे उद्योग पिट रहे हैं। तिरुपुर के एक छोटे होजरी निर्माता ने बताया कि जीएसटी लागू होने के बाद अहमदाबाद के बड़े उद्योगों के सामने वह पिट रहा है। सरकार को इस भ्रम से उबरना चाहिए कि संरक्षण के बिना छोटे उद्योगों का अस्तित्व बचा रहेगा और उनके द्वारा मुफ्त में नए रोजगार अवसर सृजित होंगे। देश को रोजगार का मूल्य अदा करना होगा। इस दिशा में श्रम-सघन छोटे उद्योगों को संरक्षण देने की पुरानी नीति पर वापस जाना होगा। जैसे ऑटोमेटिक मशीनों से बने कागज और पावरलूम से बने कपड़े पर देश में प्रतिबंध लगा दिया जाए तो हस्तनिर्मित कागज एवं हैंडलूम के उत्पादन में रातोंरात करोड़ों रोजगार उत्पन्न हो जाएंगे, परंतु इस कदम को उठाने के लिए सरकार को बड़े कागज एवं कपड़ा निर्माताओं का सामना करने का साहस जुटाना होगा। देश के नागरिकों को भी हस्तनिर्मित महंगा कागज एवं कपड़ा खरीदना होगा।
आने वाले समय में सॉफ्टवेयर, एप्प आदि के बाजार का विस्तार होगा। इन इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के उत्पादन में भी बड़ी कंपनियों द्वारा रोजगार के अवसर कम ही सृजित होंगे। इनके द्वारा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग बढ़ चढ़ कर होगा, लेकिन स्वतंत्र युवाओं द्वारा इनका उत्पादन किया जा सकता है। जैसे डॉक्युमेंट्री अथवा कंप्यूटर गेम्स को युवा अपने मोबाइल पर बना सकते हैं। इन वस्तुओं के उत्पादन से भारी संख्या में रोजगार बन सकते हैं। जैसे किसी युवा की क्षमता है कि पंचतंत्र की कहानियों का एप्प बना सके। महिलाएं भी ऐसे एप्प खरीदने को तैयार हैं, परंतु एप्प बनाने एवं खरीदने वाले के बीच की खाई को हम पार नही कर पा रहे हैं। सरकार को चाहिए कि इस खाई को पार करने का पोर्टल बनाए। साथ ही साथ अलग पुलिस व्यवस्था बनाए जिससे जालसाजों से परेशान होकर खरीदार भाग न जाए। मैंने 128 जीबी की पेन ड्राइव किसी पोर्टल से खरीदी। मिली 8 जीबी की। पोर्टल ने हाथ खड़े कर दिए। ऐसे में अलग पुलिस होनी चाहिए जो कि मदद करे तभी इस बाजार का विस्तार होगा।
आने वाले वक्त में सेवाओं के नए बाजार बनेंगे। इंटरनेट के चलते दुनिया भर के लोग एक दूसरे से जुड़ रहे है। वे दूसरे देशों और भाषाओं की जानकारी चाहते हैं। हमें हिंदी और अंग्र्रेजी से आगे जाना होगा। इसी प्रकार कानूनी रिसर्च, ऑनलाइन सर्वे, ऑनलाइन पोषण की सलाह देना, इत्यादि तमाम नए ई-उत्पादों के बाजार बनेंगे। इन सेवाओं के लिए भी सरकार को ई-पोर्टल तथा ई-पुलिस स्थापित करनी चाहिए। इन बाजारों के विस्तार के लिए लोगों को कौशल यानी स्किल सिखाने की जरूरत नहीं है। युवा स्किल हासिल कर लेंगे। स्किल के नाम पर देश में भारी फर्जीवाड़ा चल रहा है। भूखे को मछली परोसने के स्थान पर मछली पकड़ना सिखाना चाहिए। बेहतर है कि नदी तक पहुंचने का सरकार रास्ता बना दे तो भूखा मछली पकड़ना स्वयं सीख लेगा। सरकार को इन ई-सेवाओं के बाजार के विस्तार को बुनियादी संरचना उपलब्ध करानी चाहिए। मछली पकड़ना सिखाया जाए पर नदी तक पहुंचने का रास्ता उपलब्ध न हो तो वह स्किल बेकार हो जाएगी।
ई-सेवाओं का एक बड़ा बाजार स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाओ का उभर रहा है। इन सेवाओं को ऑटोमेटिक मशीनों से उपलब्ध कराने की एक सीमा है। प्राइमरी स्कूल में बच्चों को रोबोट से कम ही पढ़ाया जा सकता है। भारत में स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाएं उपलब्ध कराने का वैश्विक केंद्र बन सकता है। जैसे दांत मे रूट कनाल ट्रीटमेंट का दुबई मे चार्ज 2,500 दिरहम अथवा 42,000 रुपये है। तीन दांत में रूट कनाल कराना हो तो भारत आकर इसे कराना सस्ता पड़ता है। इसी प्रकार घुटना बदलने अथवा ओपन हार्ट सर्जरी का खर्च भारत में बहुत कम है, परंतु विदेशी नागरिक भारत आने में हिचकिचाते है। चूंकि यहां उन्हें अक्सर धोखा दिया जाता है। उनके लिए भारतीय पुलिस के मार्फत राहत पाना लोहे के चने चबाना है। इसलिए सरकार को चाहिए कि स्वास्थ्य एवं शिक्षा क्षेत्रों में विदेशी नागरिकों के लिए अलग पुलिस व्यवस्था बनाए जो कि विभिन्न भाषाएं बोलती हो और आगंतुक को त्वरित न्याय उपलब्ध कराए। साथ ही सरकार को स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाओं के निर्यात के लिए सब्सिडी देनी चाहिए। जैसे विदेशी छात्रों द्वारा अदा की गई फीस को आय कर से मुक्त किया जा सकता है।
आने वाला युग बिल्कुल अलग प्रकार का होगा। कंपनियों मे स्थाई नौकरियां बहुत कम होंगी। सेवाओं के व्यक्तिगत स्तर पर उत्पादन एवं खपत में भारी वृद्धि होगी। संगठित क्षेत्र में रोजगार बढ़ाने के ख्वाब देखने के स्थान पर सरकार को इस बाजार के विस्तार को बुनियादी संरचना उपलब्ध करानी चाहिए।
[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु में प्रोफेसर रहे हैं ]