[ नाइश हसन ]

हमारे देश में महिलाओं के हक से जुड़े सवालों को जितने दबावों से गुजरना पड़़ता है उतना अन्य सवालों को नहीं गुजरना पड़़ता। एक हकीकत यह भी है कि महिलाओं के अधिकारों का मुद्दा जब भी उठा वह विवादों और बहस का जरिया बना। महिलाओं की स्थिति में सुधार इसलिए जरूरी है, क्योंकि जब ऐसा होगा तभी स्त्री-पुरूष के बीच शक्ति संबंधों में बदलाव आएगा और पितृसत्ता की जड़ें हिलेंगी। जो ऐसा नहीं होने देना चाहते वे महिला अधिकारों से संबंधित सवालों को धर्म का सहारा लेकर इतना उलझा देते हैं कि उस पर बात करना भी मुश्किल हो जाता है। महिलाओं पर धर्म को सदैव एक अदृश्य कोड़े की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है। तीन तलाक का सवाल भी इसी का शिकार होता जा रहा है। मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक का विरोध जितने दम-खम से कर रही हैं, विरोधी ताकतें उतना ही बौखला रही हैं। इन ताकतों की जुबान पर सिर्फ एक ही बात है कि शरीयत कानून में न कभी बदलाव हुआ है और न कभी होगा। इतना ही नहीं, यह धमकी भी दी जाती है कि बदलाव करने वालों का अंजाम बुरा होगा। ऐसे रवैये वाले यह भूल जाते हैं कि हिंदुस्तान की ज्यादातर आबादी तरक्की पसंद है। वह पहले भी ऐसी धमकियों से ड़री नहीं और आगे भी नहीं डरने वाली। याद कीजिए 1955 का वह दौर जब हिंदू कोड बिल पर बहस चल रही थी। इस बहस के तहत परिवार के भीतर महिला अधिकारों के प्रश्न को उठाया जा रहा था। जैसे-जैसे बहस आगे बढ़ने लगी, तीखा रुढ़िवादी नजरिया सामने आने लगा। उस समय हिंदू समाज के रूढ़िवादी वर्ग और तमाम साधु-संतों ने खुले तौर पर हिंदू कोड बिल का विरोध किया। एक तरह से कुछ वैसा ही जबरदस्त हंगामा खड़ा किया गया जैसा आज तीन तलाक को लेकर खड़ा किया जा रहा है।
हिंदू कोड बिल के विरोधी कह रहे थे कि यह विधेयक हिंदू समाज के पूरे ढांचे को ध्वस्त करने की साजिश है। एक दलील यह थी कि परिवार में स्त्री और पुरुष की भूमिकाएं और जवाबदेही अलग-अलग है इसलिए दोनों को समान अधिकार देने का कोई औचित्य ही नहीं बनता। एक अन्य लचर दलील यह भी थी कि हिंदू समाज में महिलाओं को अत्यंत सम्मानजनक स्थान प्राप्त है इसलिए उन्हें पुरुषों के समान संपत्ति का अधिकार देने से उनकी छवि धूमिल होगी और वे भी भौतिक सुविधाओं के आकर्षण से ग्रस्त हो जाएंगी। तब हिंदू महिलाओं के स्वभाव के बारे में यह भी कहा जा रहा था कि उनका पालन- पोषण और प्रशिक्षण इस प्रकार किया जाता है कि यदि उन्हें और अधिकार मिल भी जाएं तो भी वे परिवार के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह पहले की तरह करना पसंद करेंगी। एक और हास्यास्पद तर्क यह था कि हिंदू
महिलाएं तो ऐसा कोई बदलाव चाहती ही नहीं हैं और कुछ महिला नेता इस बारे में जो कह रही हैं वह आम भारतीय महिलाओं की प्रतिनिधि मांग नहीं है। कुछ ऐसे भी लोग थे जो उस समय हर हाल में अड़ंगा डालने पर आमादा थे। रूढ़िवादी ताकतों के विरोध के बावजूद 1956 में टुकड़ों में ही सही, यह हिंदू कोड बिल पारित हो गया। इस तरह हिंदू समाज सुधारवादी ताकतों के सहारे रुढ़ियों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ा।
आज तीन तलाक के सवाल पर कमोबेश वैसी ही स्थिति मुस्लिम समाज के सामने है। तीन तलाक के सवाल पर मुस्लिम समाज के सुधारवादी तबके का अपने समाज की रूढ़िवादी ताकतों से टकराव हो रहा है। उलेमा तीन तलाक खत्म करने को शरीयत में दखल मानते हैं, जबकि हकीकत यह है कि वे खुद ही शरीयत के तमाम कानूनों में रद्दोबदल कर चुके हैं। एक तथ्य यह भी है कि भारतीय दंड संहिता, फौजदारी एवं दीवानी प्रक्रिया संहिता जैसी अनेक संहिताएं मुसलमानों सहित भारत के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू हैं। मुसलमानों ने कभी इसका विरोध नहीं किया कि उन्हें दीवानी या फौजदारी के सभी मामले शरीयत के मुताबिक ही चाहिए यानी चोरी के मामले में किसी मुसलमान चोर को जेल न भेजकर उसके हाथ काटे जाने चाहिए। 1937 का शरीयत एप्लीकेशन एक्ट और 1939 का मुस्लिम विवाह विच्छेद जैसे कानून भी अंग्रेजों ने ही बनाए। शाहबानो मामले में मुखर हुए मुस्लिमों ने जब 1986 के अधिनियम को संसद से पारित होने दिया तब वहां शरई काजी मौजूद नहीं थे। फतवों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में बेहतरीन फैसला सुना चुका है। पिछले कुछ समय से देश के कई उच्च न्यायालय तीन तलाक के खिलाफ फैसला सुना रहे हैं। रूढ़िवादियों की रोक-टोक के बावजूद हिंदुस्तानी समाज हमेशा आगे बढ़ा है। वह धर्म की जंजीरों में कैद होकर कभी ठहरा नहीं। सती प्रथा, विधवा विवाह पर रोक, छुआछूत- ये सब एक समय हिंदू धर्म की मान्यता का ही तो हिस्सा थे, लेकिन इन अमानवीय धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ इसी समाज के लोगों ने ही लड़ाई लड़ी और कानूनी तौर पर पाबंदी लगाकर उन्हें खत्म किया गया। धर्म के हवाले से देखें तो संपत्ति में महिला को अधिकार देना हिंदू धर्म में वर्णित नहीं है, लेकिन कानूनन यह अधिकार उन्हें दिया गया। इसी तरह तलाक हिंदू धर्म में नहीं है, लेकिन इसी देश में हिंदू विवाह विच्छेद कानून,1955 बनाया गया। आज हिंदू महिला यदि तलाक की अर्जी लेकर अदालत जाती है तो कोई भी हिंदू धार्मिक संगठन उससे यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकता कि यह कृत्य तो धर्म के खिलाफ है। कोई हिंदू संगठन ऐसी भी दलील लेकर सामने नहीं आता कि कानून हिंदू धर्म में दखल दे रहा और इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। क्या हिंदुओं की धार्मिक आस्था मुसलमानों की धार्मिक आस्था से कम है? एक धर्म की मान्यताओं पर सवाल उठ सकते हैं तो दूसरे धर्म की मान्यताओं पर क्यों नहीं उठाए जा सकते?
दुनिया का कोई समाज ऐसा नहीं जो बदलाव से न गुजरा हो। वक्त के साथ बदलाव ही तरक्की की निशानी है। तीन तलाक जैसी अमानवीय प्रथा का स्थायी समाधान सिर्फ संवैधानिक दायरे में ही मुमकिन है। तमाम कानूनों की तर्ज पर तीन तलाक के खिलाफ भी कानून बनाकर उसे हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है। कानून बनाते समय यह भी ध्यान रखा जाए कि धर्मग्रंथों की किसी व्याख्या को तवज्जो न दी जाए, क्योंकि धर्म के भीतर तमाम धाराएं मौजूद हैं और वे बाधा बन सकती हैं। चूंकि सरकार और उच्चतम न्यायालय का नजरिया सकारात्मक दिख रहा है इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि तीन तलाक का सवाल मजहबी कैदखाने में बंद होकर दम नहीं तोड़ेगा, बल्कि संविधान के दायरे में समुचित समाधान के रूप में सामने आएगा।
[ लेखिका रिसर्च स्कॉलर एवं मुस्लिम महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं ]