निरंजन कुमार

हर साल की तरह इस बार भी परंपरागत उच्चतर शिक्षा के प्रथम पायदान बीए, बीएससी, बीकॉम में प्रवेश लेने के लिए पूरे देश के छात्रों में होड़ है। दिल्ली विश्वविद्यालय में तो मारामारी जैसे हालात हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और अरुणाचल से लेकर से गुजरात तक के मेधावी छात्र डीयू में दाखिला लेने के लिए दिल्ली में डेरा जमाए हैं। डीयू में दाखिले की यह कहानी उच्चतर शिक्षा व्यवस्था से संबंधित समस्याओं का जीता-जागता आईना है। आखिर कैसे होगा इनका समाधान? सबसे बड़ी समस्या विद्यार्थियों की संख्या के मुकाबले सीटों की उपलब्धता की है। इस वर्ष अंडरग्रेजुएट कोर्सेस के लिए सिर्फ डीयू में ही 2 लाख 20 हजार से ज्यादा आवेदन आए हैं। सीटों की सीमित संख्या होने की वजह से मनमाफिक कॉलेज और कोर्स में 90 प्रतिशत अंक लाने पर भी प्रवेश लेना कठिन हो गया है। सिर्फ सीबीएसई बोर्ड से पास करने वाले विद्यार्थियों में 63,247 के 90 प्रतिशत से ज्यादा अंक हैं। 10,091 विद्यार्थियों ने 95 प्रतिशत से ज्यादा अंक पाए हैं। आईएससी एवं विभिन्न राज्यों के स्कूली बोर्ड के मेधावी विद्यार्थियों को मिला दें तो 90 प्रतिशत से ज्यादा अंक पाने वालों की संख्या एक लाख को पार कर जाती है। इन विद्यार्थियों की बड़ी तादाद डीयू में प्रवेश लेना चाहती है। चंद अपवाद छोड़ दें तो हम पाएंगे कि विभिन्न राज्यों में उच्चतर शिक्षा की गुणवत्ता अपेक्षाकृत खराब हो चली है। राजनीति और नौकरशाही के हस्तक्षेप ने राज्य स्थित शिक्षा संस्थाओं को पंगु बना दिया है।
धीरे-धीरे इन संस्थाओं में आधारभूत संरचना की हालत भी खस्ता होती जा रही है। यह तब है जब भारत की लगभग 28 फीसद जनसंख्या 15-29 आयु वर्ग की है। देश को इस जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा तभी मिल पाएगा जब लगभग 36 करोड़ युवाओं को आवश्यक कौशल एवं रोजगारपरक तकनीक से लैस करने के साथ-साथ उन्हें उचित शिक्षा और जिम्मेदार सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों से सज्जित किया जाएगा। इस दिशा में मोदी सरकार की स्किल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया इत्यादि योजनाएं सही कदम हैं, लेकिन युवा पीढ़ी को गुणवत्तापरक उच्च शिक्षा के भी पर्याप्त मौके उपलब्ध कराने होंगे। ध्यान रहे कि यदि परंपरागत विज्ञान के विषय प्रौद्योगिकी और उच्च शोध की आधार भूमि हैं तो मानविकी और सामाजिक विज्ञान युवा पीढ़ी को सही दिशा देने का कार्य करते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं इसरो के पूर्व प्रमुख के.कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में नई शिक्षा नीति बनाने के लिए हाल में एक समिति गठित हुई है। उम्मीद है कि नई शिक्षा नीति बनाते समय यह समिति निम्न बिंदुओं पर अवश्य विचार करेगी।
-हर राज्य में जनसंख्या के अनुपात में सेंट स्टीफंस, हिंदू, हंसराज, मिरांडा हाउस आदि की तरह उच्च गुणवत्ता वाले पांच से लेकर 15 कॉलेज खोले जाएं। स्कूली स्तर पर नवोदय विद्यालय जैसा प्रयोग इसकी एक अच्छी मिसाल है। इन विद्यालयों ने स्कूली स्तर पर बहुत अच्छी पौध तैयार की है। इसी तरह गांवों, कस्बों और छोटे शहरों के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की प्रतिभा को राष्ट्रहित में इस्तेमाल करने की दिशा में उपरोक्त कॉलेज अभूतपूर्व योगदान कर सकेंगे।
-सरकार को कोठारी आयोग की इस सिफारिश को लागू करना चाहिए कि शिक्षा पर जीडीपी का छह फीसद खर्च किया जाए। विभिन्न मोर्चों पर सख्त निर्णय लेने वाली मोदी सरकार से उम्मीद की जा सकती है कि वह इस दिशा में कदम उठाएगी। कॉलेजों के लिए केंद्र सरकार को 70 से 80 फीसद राशि खर्च करनी चाहिए। शेष 20 से 30 फीसद राज्यों को जमीन और अन्य मद में सहयोग करके देना चाहिए।
-चूंकि अपने देश में युवाओं की तादाद के सामने सरकारी संसाधन नाकाफी होंगे इसलिए निजी क्षेत्र को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के रूप में भागीदार बनाया जाए। वर्तमान में पीपीपी का प्रचलित मॉडल पश्चिमी समाज की देन है जो एक तरह से निजीकरण की दिशा में जाता है। यह मुनाफावाद से भी संचालित है। पीपीपी का एक परंपरागत भारतीय मॉडल भी है। याद कीजिए, पहले धनाढ्य वर्ग द्वारा अपने गांव-शहर में जो स्कूल-कॉलेज खोले जाते थे वे जनकल्याण, यश और परलोक सुधार की कामना से खोले जाते थे, न कि मुनाफा कमाने के लिए। यह अफसोस की बात है कि भारतीय संस्कृति के अनेक सकारात्मक मूल्यों और परंपराओं की तरह पीपीपी के भारतीय मॉडल को भी तिलांजलि दे दी गई। मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो इस संदर्भ में सहयोग के लिए तत्पर हैं। जरूरी है कि ऐसे लोगों को विश्वास में लेकर पीपीपी के भारतीय मॉडल को पुनर्जीवित किया जाए। स्थापित शिक्षा संस्थाओं में गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए नियमित शिक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए। वर्तमान में आधे से ज्यादा पद रिक्त हैं और कुछेक तदर्थ नियुक्तियों से किसी तरह गाड़ी खिंच रही है। नियुक्तियों में कोई धांधली न हो, इसे सुनिश्चित करने के लिए विशेषज्ञों को दूसरे राज्यों से बुलाया जाए।
शैक्षणिक गुणवत्ता से संबंधित एक पहलू पाठ्यक्रम से जुड़ा हुआ है। विभिन्न राज्यों के अधिकांश विश्वविद्यालयों एवं शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम मुख्य रूप से सैद्धांतिक, किताबी, व्यवाहरिक जीवन से कटे और समय की रफ्तार से बहुत पीछे हैं। इन पाठ्यक्रमों को आधुनिक बनाया बनाने की जरूरत है। इसमें यूजीसी द्वारा बनाया गया मॉडल पाठ्यक्रम एक दिशा दे सकता है। पठन-पाठन के लिए गाइडबुक, रेडीमेड नोट्स जैसी घटिया सामग्री का सहारा लिया जाता है। शिक्षकों-छात्रों को प्रेरित करना होगा कि वे स्तरीय पुस्तकों के अतिरिक्त मानव संसाधन मंत्रालय के तत्वाधान में बनी उत्कृष्ट ऑनलाइन पाठशाला का सहारा लें जो पूरी तरह मुफ्त है। इस मंत्रालय की एक नेशनल डिजिटल लाइब्रेरी भी है जिसमें 68 लाख से ज्यादा उत्कृष्ट पुस्तकें ऑनलाइन उपलब्ध हैं। आधारभूत संरचना के मामले में रेगुलेटरी तंत्र की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त हर संस्था में अनिवार्य रूप से सोशल मीडिया जैसे फेसबुक, ट्विटर आदि का ऑनलाइन प्लेटफार्म होना चाहिए जहां विद्यार्थी, शिक्षक या अन्य संबंधित लोग अपनी समस्याओं को उठा सकें। शिक्षा को राजनीति और नौकरशाही के हस्तक्षेप से मुक्त करने के लिए एक फ्रेमवर्क बनाने की भी जरुरत है। देश को महाशक्तियों के क्लब में प्रवेश दिलाने के लिए अग्रसर मोदी सरकार को शिक्षा में सुधार के लिए अविलंब कदम उठाने चाहिए। भविष्य और इतिहास दोनों, भारत की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
[ लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं ]