आज सबसे दुर्लभ सरलता है। घर में या घर के बाहर कहीं भी चैन नहीं है। दिनों दिन मनुष्य की कठिनाइयां बढ़ती जा रही हैं। मनुष्य के चारों और विषमताओं और बाधाओं का भयावह जंगल उगता जा रहा है। भले ही वह किसी कोने में चुपचाप बैठा हो, फिर भी चिंतामुक्त नहीं है। प्रगति की कामना ने मनुष्य को इतना उद्वेलित कर दिया है कि उसे दिन के घंटे और सप्ताह के दिन कम लगने लगे हैं। निश्चय ही मनुष्य में असीम ऊर्जा और भरपूर बुद्धि है। प्रश्न इसके सदुपयोग का है। मनुष्य ने अपने विकास के जो मानदंड स्थापित किए हैं, वे सीधे तौर पर भौतिकता और पदार्थो से जुड़े हुए हैं। इन उपलब्धियों का कोई अंत नहीं है। मनुष्य इन्हें प्राप्त करने के लिए कोई भी रास्ता चुनने से नहीं हिचकता।

मनुष्य समस्त प्रणियों में सर्वश्रेष्ठ है। धैर्य, संतोष, दया, उदारता, परोपकार, प्रेम और सहजता जैसे गुण उसे अन्य जीवों से भिन्न बनाते हैं। ये गुण आज दुर्लभ होते जा रहे हैं। जितना इन गुणों का अभाव है मनुष्य उतना ही पशुवत है। इसी कारण विषमताएं उत्पन्न हुई हैं। मनुष्य अधीर, असहज, कठोर और स्वार्थी बन गया है। उसकी जीवन-शैली उसका सबसे बड़ा संकट है। आज इतने तरह के भोजन हैं कि हैरान रह जाना पड़ता है।1मनुष्य का खासा समय और धन खाने में ही लग रहा है। कभी रहने के लिए छत की आवश्यकता महसूस की गई थी, लेकिन अब यह सबसे खर्चीली आवश्यकता बन गई है। पहनने और सजने की कोई सीमा नहीं है। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं दिखता जिसकी कला न विकसित हो गई हो और जिसके विशेषज्ञ मौजूद न हों।

क्या विशेषज्ञता रहित जीवन संभव नहीं है? जब यह विशेषज्ञता नहीं थी, जीवन तब भी था। लोग सुखी थे। किसी काल और जीवन को उपलब्धियां नहीं विचार और मूल्य श्रेष्ठ बनाते हैं। आज साधन हैं, किंतु विचारशून्यता है। जीवन सुरुचिपूर्ण हो, स्वादिष्ट व सादा भोजन, रहने का यथोचित स्थान, पहनने को समुचित वस्त्र होने चाहिए। आवश्यकता से अधिक अर्जित करना दुखों का बड़ा कारण है। जिसके पास अधिक है उसे भी चिंता है और जिसके पास आवश्यकता से कम है वह भी चिंतित है। सरलता और सुगम्यता संतुलन में है। यह संतुलन मन से बनाना पड़ता है। आप को अपनी दृष्टि में सुयोग्य बनना होगा। इसी में सुख है।

(डॉ. सत्येंद्र पाल सिंह)