तीर्थ शब्द के शब्दार्थ में जाने पर स्पष्ट होता है कि ‘तृ’ धातु से तीर्थ बना। ‘तृ’ का तात्पर्य है, तरण और उत्तरण अर्थात जिसकी सहायता से दुर्गम नदी, घनघोर संकट आदि या दुरतिक्रम व्यवधान को पार किया जा सके, उसे तीर्थ कहते हैं। इस प्रकार तीर्थ एक किनारे से दूसरे किनारे की ओर ले जाने का कार्य करता है, चेतना को निम्नता से उच्चता की ओर उठाता है। तीर्थ के शब्दार्थ को देखने से पता चलता है कि यह स्थानवाचक ही नहीं है, व्यक्ति और गुणवाचक भी है। इस तरह गुरु को तीर्थ माना जाता है, क्योंकि वे संसार सागर से पार ले चलते हैं। तीर्थ तारने वाले को कहते हैं। गुरु जीवंत तीर्थ है। तीर्थ का महत्व और माहात्म्य असाधारण है। अनास्था की इस संकट की घड़ी में भी इसकी उपयोगिता एवं प्रासंगिकता बनी हुई है, क्योंकि इसका सिद्धांत और आधार अवैज्ञानिक अंधविश्वासों पर आधारित नहीं है, वरन् वैज्ञानिक और प्रयोगधर्मी है।
तीर्थों की विशेषता चेतनात्मक उत्कृष्टता का अभिवर्धन है, जो हमारी अभीष्ट आकांक्षा की पूर्ति करती है। तीर्थ की विशेषता उस स्थान से प्रवाहित दिव्य चैतन्य तरंगों में समाहित होती है। ये चैतन्य शक्तियां ही किसी स्थान विशेष को प्राणवान और सामथ्र्यवान बनाती हैं। जिसके संपर्क मात्र से अनुभूतियों के बहुविध रंग बिखरने लगते हैं। सच्चे अर्थों में तीर्थ उसे कहते हैं, जहां सत्यप्रवृत्तियां सतत चलती रहती हों और संपर्क-सानिध्य में आने वालों को उन्हें अपनाने की प्रेरणा प्रदान करती हों। तीर्थ तत्व किसी देव-मंदिर, सरिता-सरोवर, पूजा-कृत्य तक सीमित नहीं हैं। ये तो इसके बाहरी कलेवर हैं। तीर्थ तत्व का प्राण वह विधि-व्यवस्था है, जिसके अंतर्गत इन स्थानों में रहने वाले मनीषी-ब्रह्मवेत्ता व्यापक जनसंपर्क के द्वारा जन-मानस में धर्म के वास्तविक स्वरूप को बनाने और इसके द्वारा अपने जीवन के रहस्य को जानने, समझने का पुण्य प्रयास करते रहते थे। इस प्रयास, पुरुषार्थ का परिणाम मानवीय चेतना के गुणात्मक विकास के रूप में सामने आता था। यही प्राणवान प्रक्रिया तीर्थ तत्व का सच्चा मर्म है। तीर्थ श्रद्धा के जीवंत प्रतीक-प्रतिमान हैं। श्रद्धा वस्तुओं में नहीं, बल्कि उन क्रियाकलापों से उत्पन्न होती है, जो उत्कृष्ट व्यक्तियों और तपस्वियों द्वारा आस्थाओं के अभिवर्धन के लिए संचालित किए जाते है। तपस्या की सघन ऊर्जा लंबे समय तक वातावरण में घुली-मिली रहती है। दीर्घकाल तक यह शक्ति अपना प्रभाव छोड़ती रहती है।
[ डॉ. सुरचना त्रिवेदी ]