राजनाथ सिंह ‘सूर्य’

अपने बड़बोलेपन के कारण अक्सर खबरों में रहने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते सुर्खियों में होने के बावजूद मौन से हैं। पहले वह दूसरों पर सवाल उठाते थे, लेकिन आज स्वयं उन पर प्रश्न खड़े हो रहे हैं। पहले वह मीडिया से स्वयं मुखातिब होते थे और दूसरों पर अंगुली उठाते थे, लेकिन आज जब स्वयं उन पर अंगुली उठ रही है तो मीडिया के सामने आकर जवाब देने से बच रहे हैं। आखिर महज दो साल में ही केजरीवाल को ऐसे दिन क्यों देखने पड़ रहे हैं? उन्हें क्यों अपने आलोचकों को जवाब देने के लिए दूसरों का सहारा लेना पड़ रहा है? ध्यान रहे कि उनकी गिनती मीडिया फ्रेंडली नेता के रूप में होती रही है। अरविंद केजरीवाल पहले व्यक्ति नहीं हैं जो आरोपों का उत्तर देने के लिए अपने प्रवक्ताओं पर निर्भर हो गए हैं। कांग्रेस में तो यह चलन ही बन गया है। उसके शीर्ष नेतृत्व पर जब भी कोई आरोप लगता है, प्रवक्ताओं की फौज सामने आ जाती है। जाहिर है आज जो स्थिति कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की हो गई है उसमें उसे प्रवक्ताओं के सुरक्षा घेरे में रहना ही ज्यादा मुफीद लगता है। केजरीवाल को अपने बड़बोलेपन के कारण ही एक के बाद एक कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है। भले ही वह इस पर करदाताओं के करोड़ों रुपये व्यय कर दें, पर राहत मिलने की उम्मीद कम ही नजर आती है। केजरीवाल को मालूम होना चाहिए कि ढोंग और तमाशे की राजनीति के जरिये लोगों को कुछ समय तक ही बहलाया-फुसलाया जा सकता, सदैव नहीं।
यह सच है कि तमाशा दिखाने वाले जिस गली में एक बार तमाशा दिखा देते हैं वहां लौट कर नहीं जाते। केजरीवाल की भी आज यही हालत हो गई प्रतीत होती है। उनकी पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में अभूतपूर्व बहुमत हासिल हुआ, लेकिन जब सत्ता संभालने के बाद भी उन्होंने तमाशा दिखाने की भूमिका में रहना चाहा तो सम्मोहन की राजनीति बेअसर हो गई। बनावटी चरित्र पर से अपनों ने ही पर्दा उठाना शुरू कर दिया। अपनों से बेपर्दा हुए केजरीवाल को आज पर्दे के पीछे शरण लेनी पड़ रही है। ऐसा लग रहा है कि आने वाले दिन उनके लिए और भी कठिनाई भरे होंगे। सम्मोहन की राजनीति करने वालों की श्रेणी में केजरीवाल ही एक मात्र नेता नहीं हैं। पहले भी ऐसे नेता मैदान में उतरते रहे हैं और आज भी उतर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव भी इसके उदाहरण हैं। वह आज भी अपने सम्मोहक प्रभाव को बनाए रखने का असफल उपक्रम कर रहे हैं। दरअसल आत्मप्रशंसा में मुग्ध रहने वाला व्यक्ति हकीकत से उसी प्रकार अनभिज्ञ बना रहता है जैसे अपनी छाया की लंबाई देखकर अपनी हैसियत का अंदाजा लगाने वाला। ऐसा व्यक्ति अपने कद का अनुमान प्रात: या सायंकाल की छाया देखकर ही लगाता है जब सत्य का सूर्य उससे बहुत दूर होता है। जब सत्य का सूर्य सिर पर हो तभी इंसान को उसके सामने अपनी हैसियत का अंदाजा लगता है, लेकिन इसके लिए उसे जमीन देखनी पड़ती है। इतिहास गवाह है कि जन आकांक्षाओं को सही ढंग से समझने में जिसने भी भूल की है उसे धूल-धूसरित होना पड़ा है। इसका एक अन्य उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रही हैं। उन्होंने न्यायालय की अवेहलना कर लोकतंत्र को बंधक बनाकर सत्ता में बने रहना चाहा, लेकिन जब उनके सम्मोहन की राजनीति का प्रभाव समाप्त हुआ तो जिन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इंडिया इज इंदिरा’ का नारा दिया था उन्होंने ही इंदिरा गांधी को अपनी चौखट पर हाजिरी देने के लिए विवश कर दिया। जनता पार्टी भी व्यक्तिगत अहंकार से घिरे नेताओं की जमात बन गई थी। नतीजा क्या हुआ? देश में व्यक्तिवादी राजनीति का बोलबाला हो गया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की अन्य उपलब्धियों की स्वीकार्यता भले ही विवादित हो, लेकिन यह निर्विवाद है कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर रुख अपनाने के साथ भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे नेताओं पर दबाव बनाए हुए हैं। जिस सीबीआइ को सर्वोच्च न्यायालय ने कभी पिंजरे में बंद तोता कहा था वह आजकल बाज की तरह झपट्टा मारती दिख रही है। यहां तक कि पिंजरे का प्रमुख तोता भी उसकी चपेट में आ चुका है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि क्रांतिदूत बनीं ममता बनर्जी सारधा, नारद और रोजवैली जैसे घोटालों में फंसे अपने मंत्रियों और सांसदों की गिरफ्तारी की संभावनाओं से ग्रसित होकर मोदी सरकार केखिलाफ मोर्चा खोलने के लिए किसी से भी हाथ मिलाने के लिए रात-दिन एक कर रही हैं। राहुल और सोनिया भी नेशनल हेराल्ड मामले में जांच एजेंसियों के सामने हैं। वीरभद्र सिंह भी कोर्ट-कचहरी कर रहे हैं। ढोंग की राजनीति से लाभान्वित होने वाली जयललिता को मृत्यु के बाद भी राहत नहीं मिली। इधर राज्यसभा में जाने के लिए कहीं से भी साथ पाने के लिए मायावती की भी छटपटाहट देखी जा सकती है।
दरअसल सत्ता को संपन्नता का साधन मानकर आचरण करने वालों को ही मोदी शासन से सर्वाधिक परेशानी होती दिख रही है। ज्यों-ज्यों सबका साथ और सबका विकास का प्रभाव जनमानस पर छाता जा रहा है त्यों-त्यों कथित सेक्युलरिस्टों की ढोंग की राजनीति की कलई खुलती जा रही है। सम्मोहन की राजनीति से लोगों को भ्रमित कर बेतहाशा निजी संपत्ति खड़ा करने वालों की बेचैनी बढ़ती देखी जा सकती है। सच सामने आने से डरे हुए लोग ही मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट होने का उपक्रम कर रहे हैं। इन्हीं लोगों ने नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने पर हिंदुत्व की एकता का शोर मचाया था जिसका असर दिल्ली और बिहार में चुनाव देखने को मिला, जहां के लोग अब नए सिरे से सोच-विचार करते दिख रहे हैं। इसका प्रकटीकरण बाकी देश में पंचायत से लेकर विधानसभा तक में हो रहा है, लेकिन केजरीवाल और मायावती जैसे नेता इसका संज्ञान लेने के बजाय इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर सवाल उठा रहे हैं। इन दिनों नोटबंदी का मामला हो या गोरक्षकों के अतिरेक की घटनाएं। इन मामलों को उभारकर जांच एजेंसियों का सामना कर रहे विपक्षी नेता अपने खिलाफ कानूनी कार्रवाई से लोगों का ध्यान हटाने का अथक प्रयास कर रहे हैं,लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि उनकी असलियत से अवाम अनभिज्ञ नहीं है। राष्ट्रपति चुनाव में गैर भाजपाई मोर्चे की कवायद इस ढोंग की राजनीति में अंतिम कील साबित होगी।
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)