हृदयनारायण दीक्षित। उत्सवधर्मी भारतीय संस्कृति में रंग पर्व होली के साथ ही विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक महोत्सव 'आम चुनाव' की प्रक्रिया भी आरंभ हो गई है। इस चुनाव में करीब 97 करोड़ मतदाता हैं। निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव घोषणा के साथ ही आदर्श चुनाव आचार संहिता भी लागू हो गई है। स्वतंत्र, निष्पक्ष और निर्भीक चुनाव निर्वाचन आयोग का संवैधानिक कर्तव्य है। निष्पक्ष, निर्भीक और स्वतंत्र चुनाव में धनबल एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। वोट के बदले नोट की घटनाएं होती रही हैं। प्रशासन अवैध धन और शराब आदि की धरपकड़ की चुनौती से जूझता है। इसमें कई बार निर्दोष भी उत्पीड़न का शिकार होते हैं। निष्पक्ष चुनाव के लिए आदर्श चुनाव आचार संहिता ही एकमात्र उपाय है, लेकिन ऐसी संहिता के पीछे कानून की शक्ति नहीं है। उसका उल्लंघन करने वालों को दंडित करने की कानूनी शक्ति का अभाव है। बेशक आचार संहिता के पालनीय नियम लोक प्रतिनिधित्व कानून, चुनाव नियम और अन्य अधिनियमों का सार हैं, लेकिन राजनीति के खिलाड़ी प्रायः खेल के नियम नहीं मानते। आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं।

आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों पर भारतीय दंड विधान, दंड प्रक्रिया संहिता या लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के प्राविधानों में कार्रवाई होती है। आचार संहिता में संहिता उल्लंघन पर दंडात्मक विधिक कार्रवाई का कोई प्राविधान नहीं है। निष्पक्ष चुनाव साधारण कर्तव्य नहीं है। चुनाव लोकतंत्र का प्राण है। चुनाव से सरकार बनती है। चुनाव से जिम्मेदार विपक्ष एवं सत्तापक्ष को जनादेश मिलता है। ब्रिटिश राज में भारत शासन अधिनियम, 1935 बना था। इसकी धारा 201 में चुनाव संबंधी सामान्य प्राविधान थे। संविधान निर्माताओं की दृष्टि में सामान्य प्रविधान अपर्याप्त थे। उन्होंने निष्पक्ष चुनावों के लिए स्वतंत्र चुनाव संस्था गठित करने पर विचार किया। संविधान सभा में डा. आंबेडकर ने स्वतंत्र निर्वाचन आयोग का प्रस्ताव रखा। यह कनाडा के निर्वाचन कानून 1920 जैसा था। चुनाव में धांधली और अनुचित साधनों के दुरुपयोग की चर्चा संविधान सभा में भी हुई। डा. आंबेडकर ने मताधिकार को पवित्र बताया और उससे वंचित करने को निंदनीय। हृदयनाथ कुंजरू ने सारगर्भित टिप्पणी की, दोषपूर्ण चुनाव से जनतंत्र विषाक्त होगा। लोग चुनाव से यही सीखेंगे कि षड्यंत्र आधारित दलों का निर्माण कैसे होता है।' सभा ने स्वतंत्र निर्वाचन आयोग संबंधी प्रस्ताव पारित किया। इसके बाद लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम बना।

देश में हुए पहले चुनाव में कोई आचार संहिता नहीं थी। 1961 में चुनाव के नियम बने। आयोग ने 1968 में 'चुनाव चिह्न आरक्षण एवं आवंटन आदेश' जारी किया। यह एक साधारण आदेश था, लेकिन कानूनी शक्ति संविधान, लोक प्रतिनिधित्व कानून एवं चुनाव नियम 1961 में निहित थी। आदर्श चुनाव संहिता तब अस्तित्व में नहीं थी। चुनाव धांधलियां जारी रहीं। धांधली भी केवल चुनावों के समय ही चर्चा में रहती है। चुनाव सुधार की मांग भी महत्वपूर्ण नहीं बन पाई। आयोग लगभग असहाय था। जब टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बने तब उन्होंने चुनाव को सचमुच निष्पक्ष बनाने के लिए अनेक आदेश जारी किए। उन्होंने ही पहली बार 'आदर्श चुनाव आचार संहिता' शीर्षक से एक प्रशासनिक पत्र जारी किया। आचार संहिता में दलीय विचार नीति एवं कार्यक्रम को लेकर आलोचना की अनुमति है। व्यक्तिगत आरोपों और प्रत्यारोपों पर सख्त रोक है, लेकिन व्यवहार में दलों की विचारधारा साम्यवाद, राष्ट्रवाद और पूंजीवाद पर बहस नहीं होती। आचार संहिता की धारा एक उपशीर्षक 'सामान्य आचरण' में 'जाति, संप्रददाय, पंथ या भाषाई समूहों के मध्य अलगाव बढ़ाने वाले कृत्यों का निषेध है।' यह स्वागतयोग्य है, लेकिन चुनाव अभियान में जाति और मजहबी तुष्टीकरण की बातें खुल्लमखुल्ला चलती हैं।

आदर्श आचरण अल्पकालिक नहीं होते। सदाचरण सहस्त्रों वर्षों के सांस्कृतिक विकास का परिणाम होते हैं। भारत के दलतंत्र की कोई आचार संहिता नहीं है। केवल चुनावों के दौरान आदर्श आचार संहिता की बात करना व्यर्थ है। चुनावी आचार संहिता केवल चुनाव के समय ही चर्चा में आती है। शेष समय राजनीतिक दलों पर किसी आचार संहिता का अनुशासन नहीं होता। वे संविधान के नीति निदेशक तत्वों एवं संवैधानिक कर्तव्यों पर भी ध्यान नहीं देते। दल अपने कार्य संचालन में किसी आचार संहिता के बंधन में नहीं होते। बेशक आदर्श चुनाव आचार संहिता के सभी तत्व प्रशंसनीय हैं, लेकिन इन कर्तव्यों के पालन की अपेक्षा केवल चुनाव के दिनों में ही की जाती है। वस्तुत:, राजनीतिक व्यवस्था में व्यापक सुधार जरूरी है।

राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्थाएं एक दूसरे पर प्रभाव डालती हैं। सामाजिकृसांस्कृतिक उत्थान से जुड़े महानुभाव सामाजिक आदर्श आचार संहिता का विकास करते हैं। समाज की आदर्श आचार संहिता का पालन प्रायः सब लोग करते हैं, लेकिन राजनीति इससे मुक्त रहती है। प्रश्न है कि आदर्श चुनाव आचार संहिता या ऐसी ही कोई अन्य संहिता प्रत्येक समय राजनीतिक दलों पर क्यों लागू नहीं हो सकती? चुनाव के समय ही आदर्श आचरण की जरूरत और शेष समय सदाचरण मुक्त होने का औचित्य क्या है? कुछेक दल अपने राजनीतिक अभियानों में अलगाववाद, तुष्टीकरण एवं जातिभेद की चर्चा करते हैं। जबकि कुछ दल हर समय राष्ट्रीय संप्रभुता एवं अखंडता को चुनौती देते रहते हैं। ऐसे दलों से केवल चुनाव के समय आदर्श आचरण की उम्मीद कैसे की जा सकती है? आदर्श दलतंत्र से ही आदर्श आचार चुनाव संहिता के पालन की उम्मीद की जा सकती है। दलतंत्र का बड़ा हिस्सा नियमविहीन है। औसत दल राष्ट्रीय जीवन मूल्य नहीं मानते। अधिकांश दलों के अपने संविधान भी नहीं हैं। अधिकांश दलों में आजीवन अध्यक्ष हैं। वे दल प्राइवेट प्रापर्टी बन गए हैं। अधिकांश अपना पार्टी संविधान भी नहीं मानते।

राजनीति वस्तुतः लोकमंगल की साधना है। दलतंत्र को सदैव आदर्श आचार संहिता के दायरे में होना चाहिए। चुनाव को निर्भीक और निष्पक्ष बनाने के लिए आदर्श चुनाव आचार संहिता जरूरी है, लेकिन आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध कड़े कानूनों पर भी विचार किया जाना चाहिए। हालंकि, सिद्धांतनिष्ठ, विचारनिष्ठ दलतंत्र के लिए राजनीतिक आचार संहिता का कोई विकल्प नहीं। राजनीतिक दल चुनाव के अलावा शेष समय में भी पार्टी संचालन और जनअभियानों के दौरान राजनीतिक आचार संहिता का पालन करें तो शुभ होगा। आदर्श चुनाव आचार संहिता पर्याप्त नहीं है, इसे कानून की शक्ति चाहिए। देश को प्रत्येक समय प्रवर्तित आदर्श राजनीतिक आचार संहिता की आवश्यकता है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं )