आत्म-समर्पण का अभिप्राय है अपनी खुदगर्जी या स्वार्थ का त्याग। जब तक 'मैं' हूं का भाव बना रहता है तब तक आत्म-समर्पण की भावना का विकास नहीं होता। आत्म तत्व जब परमात्मा के प्रति अपने को समर्पित कर देता है, तो उसका भाव होता है-'भगवन् मेरी इच्छा नहीं, तेरी इच्छा पूर्ण हो।' हम सोचते हैं कि हम सही रास्ते पर हैं, परंतु सत्य का निर्णय हमारे दृष्टिकोण से नहीं, परमेश्वर का होता है, जो इस विशाल विश्व की दृष्टि से निर्णय करता है। इसलिए मैं अपने को भगवान् के प्रति समर्पित करता हूं। वह समस्त जीवों का हित-चिंतक है, मैं उसी के समक्ष समर्पण करने में अपना हित देखता हूं।' आत्म-समर्पण का यह अर्थ नहीं होता कि हम चोरी, व्यभिचार आदि अनैतिक कार्य करने के बाद अपने को भगवान को समर्पित कर दें। हम अशुद्ध, अपवित्र और अनैतिक वस्तु या भावनाएं परमेश्वर को समर्पित नहीं कर सकते हैं। कर्म करने में हम स्वतंत्र हैं, परंतु फल ईश्वराधीन है। हमने जो कुछ भी कर्म अच्छा समझकर किया, परंतु उसके विशाल कर्म-फल-चक्र में यदि वह कर्म अच्छा प्रमाणित नहींहुआ तब हम अपने आपको उसके हवाले कर देते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि फल तो उसी को देना है। हर जीव को चाहे-अनचाहे अपने कर्मफल के लिए परमेश्वर के समक्ष समर्पण करना पड़ता है।

आत्म-समर्पण जीवन का एक विशिष्ट नियम है। प्रत्येक व्यक्ति अपने को दूसरे के भरोसे छोड़ना चाहता है, क्योंकि अपने भरोसे ही रहने में जीवन दूभर हो जाता है। हम समझते हैं कि हमारा जीवन हमारे भरोसे चल रहा है, परंतु जीवन में अनेक ऐसे क्षण आते हैं, जब हमें दिख जाता है कि हमारे हाथ में कुछ न था। संकट के उन क्षणों में हम उसी के हाथों अपने को सौंप देते हैं। इसी तरह क्या उल्लास के क्षणों में भी हम उसकी कृपा का स्मरण नहीं कर सकते हैं? दु:ख में आत्म-समर्पण की भावना हर किसी में जाग उठती है, परंतु यदि दुख से उबरना हो, तो जीवन के प्रत्येक क्षण में यही समर्पण चाहिए। 'गीता' में भी कहा गया है कि मनुष्य मात्र के परम कल्याण के लिए ईश्वर भक्त बनें, उसकी शरण में जाएं और उसी को आत्मार्पण करें।

[कृष्णकांत वैदिक]

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