कोई मनुष्य, समाज या देश अपने अस्तित्व की रक्षा और विकास के लिए किसी पर आश्रित न रहे, यह सर्वोत्तम स्थिति है। परमात्मा ने मनुष्य को पर्याप्त शक्तियां देकर संसार में भेजा है ताकि वह अपनी जीवन यात्रा अपने विवेक और निर्णयों से पूरी कर सके। मनुष्य चूंकि समाज में रह रहा है। इसलिए दूसरों के प्रति उसके अनेक कर्तव्य स्वाभाविक रूप से जन्म लेते हैं। इन कर्तव्यों के पालन में उसे कई बार अन्य का सहयोग लेना पड़ता है। अपने परिवार का पोषण करने के लिए खेती, व्यवसाय या नौकरी जो भी करें अपनी स्वतंत्रता का एक अंश खोना ही पड़ता है।
समाज की परंपराओं, मान्यताओं को न चाहते हुए भी मानना अपने विवेक पर अंकुश लगा कर ही हो पाता है। यह एक तरह का अनुशासन और अनुशीलन है, जो व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक है। भौतिकता और उपभोक्तावाद ने मनुष्य की इच्छाएं सीमा से अधिक बढ़ा दी हैं। जितनी लंबी चादर उतने ही पैर पसारने की सोच को उपेक्षित कर दिया गया है। अब कोई चादर नहीं है। मनुष्य अधिक सोचे समझे बगैर पैर पसारता जा रहा है। दूसरों से आशाएं, अपेक्षाएं भी अधिक हो गई हैं। इसके लिए वह अपनी निजता को किसी भी सीमा तक दांव पर लगाने को तैयार हो जाता है। शक्तिशाली और सामथ्र्यवान शक्तियां इसका लाभ उठाकर व्यापक स्तर पर शोषण में सफल हो जातीे हैं। समाज के उत्तम स्वास्थ्य के लिए स्वस्थ और विवेकपूर्ण सोच अत्यंत आवश्यक है। एक दूसरे पर आवश्यकता से अधिक आश्रित होने का ही परिणाम है कि अपराध बढ़ रहे हैं। समाज निर्बल और सबल में बंट गया है। आज कोई भी जहां भी है, अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं है। रूखी-सूखी खाकर ठंडा पानी पीने किन्तु अपनी अस्मिता को बचा कर रखने वाले अलभ्य हैं। अपमान सहकर भी कंचन की याचना करने वालों की भीड़ है। लोभ ने मानवीय मूल्यों को तार-तार कर दिया है। यह चर्चा तो भरपूर होती है कि सभ्यता का कितना अवमूल्यन हो गया है, पर आचार को नियमित करने वाले उन छोटे-छोटे सूत्रों की बात नहीं होती, जो निरंतर दूर होते गए हैं। भारतीय संस्कृति संभवत: इस परिप्रेक्ष्य में सबसे समृद्ध है कि इसमें लोक कहावतों, स्थानीय बोलियों के सरल दोहों और श्लोकों में नीति और आचार के प्रेरक तत्व भरे पड़े हैं। जरूरतें कम करें, लालसाएं सीमित करें और आत्मनिर्भर बनें।
[ डॉ. सत्येंद्र पाल सिंह ]