हमारी जीवन यात्रा का एक ही उद्देश्य है आत्मतत्व का साक्षात्कार। जो व्यक्ति अपने आत्मतत्व को जान जाता है, वह परमात्मा को जान लेता है। एक महात्मा मंदिर के बाहर ही बैठे रहे, जबकि उनके सभी शिष्य मंदिर के भीतर जाकर भगवान के दर्शन कर लौट आए। एक भक्त ने उनसे पूछा कि गुरुजी क्या आप भगवान के दर्शन करने भीतर नहीं जाएंगे? इस पर महात्मा ने कहा कि मैंने यहीं से भगवान के दर्शन कर लिए हैं। जिज्ञासु भक्त ने पूछा कि यहां से तो भगवान की मूर्ति दिखाई नहीं दे रही है? महात्मा ने कहा कि भगवान की मूर्ति मेरे मन में ही बसी है, इसलिए उनके दर्शन करने के लिए मुझे मंदिर के भीतर जाने की नहीं आवश्यकता नहीं है, बल्कि अपने मन के बंद दरवाजे खोलने की जरूरत है।
यह सुनकर सभी शिष्य असमंजस में पड़ गए, तब महात्मा ने उन्हें समझाया कि भगवान के दर्शन पूजा-पाठ या तीर्थ करने से नहीं होते। ये साधन हो सकते हैं, लेकिन सत्य को जानते के बाद परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं। सत्य को जानने के लिए आत्मतत्व को जानना होता है, जो हमारे भीतर ही मौजूद है। महात्मा ने आगे कहा कि हमारा प्रत्येक निर्णय सत्य होने का दावा करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि असत्य को जान लेना ही सत्य है। इसलिए भगवान को खोजने के बजाय पहले सत्य को जानो। जब आप सत्य को जान जाओगे, तो आत्मतत्व को जान जाओगे और जब आत्मतत्व को जान गए, तब परमतत्व को जान गए।वैसे आत्मतत्व और परमतत्व एक नहीं हैं, लेकिन अलग-अलग भी नहीं हैं, क्योंकि जैसा आत्मतत्व वैसा ही परमतत्व और जैसा परमतत्व वैसा ही आत्मतत्व। इनमें कोई अंतर नहीं है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि जब तक आप यह अनुभव नहीं करते कि आप स्वयं देवों के देव हो, तब तक आप मुक्त नहीं हो सकते। ज्यादातर लोग समझते हैं कि उनका शरीर ही आत्मतत्व है और जब उनकी मृत्यु होगी, तब आत्मतत्व भी मर जाएगा। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा को शस्त्र से काटा नहीं जा सकता, अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे गला नहीं सकता और वायु उसे सुखा नहीं सकती। यानी जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नवीन शरीर धारण करती है। आत्मा और शरीर के मिलन से ही जीवात्मा बनता है।
[ महर्षि ओम ]