एक फरवरी को भारत सरकार ने आम बजट के जरिये अपनी विश्वसनीयता बढ़ाने का ही काम किया। नोटबंदी के बाद सरकार की साख पर सवाल उठने लगे थे। उसके बाद भरोसे के भाव को बहाल करना बेहद जरूरी हो गया था। सरकार ने वर्ष 2017-18 के लिए तार्किक और बुनियादी पहलुओं पर जोर देने वाला ऐसा बजट पेश किया, जिसने देश को आश्वस्त किया कि आकांक्षाओं को परवान चढ़ाने वाले मोदी ने कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों को देखते हुए लोक-लुभावन तौर-तरीकों के आगे समर्पण नहीं किया। जब अर्थव्यवस्था में अपेक्षित सुधार अमेरिकी संरक्षणवाद से भयाक्रांत हो, कच्चे तेल की कीमतें तेजी का रुख कर रही हों और विदेशों में ब्याज दरें बढ़नी शुरू हो गई हों तब ऐसे अनिश्चित दौर में इसी तरह के कदमों की दरकार थी। लगातार छठे वर्ष राजकोषीय घाटा कम हुआ है। इससे निवेशकों, नीति निर्माताओं और शेयर बाजार को बड़ी राहत मिली है। इसके सुखद नतीजे बेहतर क्रेडिट रेटिंग और आसान शर्तो पर कर्ज मिलने के रूप में निकलेंगे।

इस ठोस और कारगर बजट में कुछ नए वादे भी किए गए हैं और पुराने वादों को पूरा करने की प्रबल इच्छा भी दिखी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महंगाई पर लगाम लगाने, भ्रष्टाचार को थामने और रोजगार उपलब्ध कराने के वादों के दम पर सत्ता में आए थे। महंगाई व्यापक तौर पर नरम बनी हुई है, मौजूदा सरकार के दौरान कोई बड़ा घोटाला भी सामने नहीं आया है, लेकिन रोजगार का वादा अभी भी पूरा होना बाकी है। पिछले तीन महीनों के दौरान नोटबंदी ने खासतौर पर असंगठित क्षेत्र की नौकरियों पर तगड़ी चोट की है। बजट में रोजगार की चुनौती का हल निकालने की कोशिश की गई और काफी हद तक यह उसमें सफल भी रहा। इसमें और गुंजाइश बन सकती थी। वास्तव में बजट का पूरा जोर ही ग्रोथ और रोजगार सृजन पर है। पूंजीगत व्यय में 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी बुनियादी ढांचे पर खर्च को तकरीबन चार लाख करोड़ रुपये तक ले जाएगी। आवासीय क्षेत्र को लगातार प्रोत्साहन और उसे बुनियादी ढांचे का दर्जा देना भी इसी मकसद से उठाया कदम है, क्योंकि इसमें रोजगार सृजन की भरपूर संभावनाएं हैं। विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड को समाप्त करना भी विदेशी निवेशकों के लिए एक और संकेत है कि सरकार कारोबार की राह सुगम बनाने को लेकर प्रतिबद्ध है। यह कदम ऐसे दौर में उठाया गया है जब भारत विदेशी निवेश आकर्षित करने के पैमाने पर चीन और अमेरिका को पछाड़कर शीर्ष पर विराजमान है। कंपनियों के लिए कारपोरेट कर की दर को 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत करने से देश की लगभग 95 प्रतिशत औद्योगिक इकाइयों को फायदा मिलेगा। रोजगार सृजन के लिहाज से अहम छोटे उद्यमों और स्टार्टअप के लिए धन मुहैया कराने वाले मुद्रा बैंक को पैसा देने में भी कंजूसी नहीं दिखाई है। ये सभी कदम रोजगार के अवसर बढ़ाने में मददगार होंगे। बजट की इकलौती नाकामी सिर्फ एक पहलू से जुड़ी है कि इसमें निजी निवेश में कमजोरी का इलाज तलाशने की ज्यादा कोशिशें नहीं की गईं। भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी 2012 में शुरू हुई मंदी की गिरफ्त में है, जिसका आगाज संप्रग के दूसरे कार्यकाल में हुआ था। नोटबंदी ने सरकार में भरोसे को और डिगाया। निवेशकों में भारतीय कर व्यवस्था को लेकर विश्वास खत्म हो गया था।

एक बड़ी समस्या सरकारी बैंकों के फंसे हुए कर्जो और एनपीए का बोझ बदस्तूर बना हुआ है। इसका कोई रास्ता नहीं है और सरकार को बैंकों में अपनी हिस्सेदारी 50 प्रतिशत से कम करनी होगी। कोई भी तर्कसंगत मुक्त अर्थव्यवस्था देश के बैंकिंग क्षेत्र में 70 प्रतिशत से अधिक सरकारी हिस्सेदारी रखना गवारा नहीं करती। बजट का अगला बेहतरीन दांव कृषि रोजगारों की उत्पादकता बढ़ाने से जुड़ा है। चूंकि गैर-कृषि रोजगार बढ़ाने में समय लगेगा, लिहाजा सरकार का यह कदम मुफीद ही कहा जाएगा। पिछले साल सिंचाई के लिए जारी 20,000 करोड़ रुपये से इतर सिंचाई के लिए नाबार्ड के साथ 20,000 करोड़ रुपये का बढ़ा कोष स्वागतयोग्य है। दुग्ध प्रसंस्करण को प्रोत्साहन देने के लिए भी 8,000 करोड़ रुपये आवंटित हुए हैं। फसल बीमा योजना की राशि बढ़ाना भी उम्दा विचार है और बीते साल खरीफ फसल में इसके सफल प्रयोग के दम पर इसे किया गया है। ये सभी कदम तभी असर दिखा पाएंगे, जब उन पर पारदर्शी तरीके से नजर रखी जाएगी। भारतीय कृषि का भविष्य राज्यों द्वारा सुधारों को आगे बढ़ाने पर टिका हुआ है। इनमें ई-नाम पहला सुधार है। ई-नाम यानी नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट पुरानी कृषि उत्पाद विपणन समिति वाली व्यवस्था को खत्म करेगा। दूसरा सुधार कृषि उत्पादों के आयात-निर्यात के लिए अस्थिरता भरी मौजूदा व्यवस्था के बजाय स्थायित्व देने वाली नीति बनानी होगी। तीसरा सुधार जीन संवर्धित फसलों को लेकर पूर्वाग्रहों को दूर करना होगा, जिससे उत्पादकता में वृद्धि अटकी हुई है। दीर्घावधि में खाद्य और उर्वरक सब्सिडी खत्म करना अहम है। इसका आंकड़ा दो लाख करोड़ रुपये के स्तर को छू रहा है। भ्रष्टाचार और काले धन पर अंकुश लगाने के मकसद से बजट में राजनीतिक दलों द्वारा नकद चंदा लेने की सीमा घटाकर 2,000 रुपये की गई है। बाकी चंदा चेक या डिजिटल भुगतान के रूप में दिया जाएगा। निजता सुनिश्चित करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक चुनावी बांड जारी करेगा, जिसे चंदा देने वाले किसी पार्टी के लिए खरीद सकते हैं। यह कदम भी पार्टियों के चंदे का पूरा विवरण सामने नहीं ला पाएगा। दो हजार रुपये की सीमा भी एकदम बेमानी है। तिकड़मी नेता इसका तोड़ निकाल लेंगे। अगर सरकार जनता को डिजिटल लेन-देन के लिए प्रोत्साहित कर रही है तब समूचे राजनीतिक चंदे के लिए क्यों नहीं कर सकती है?1राजस्व, कर और व्यय अनुमान में बरती गई सतर्कता बजट को विश्वसनीय बनाती है। यह एकदम तार्किक है, क्योंकि इस साल जीएसटी लागू होने से भारतीय अर्थव्यवस्था खासी हलचल से रूबरू होने वाली है। बजट में कर राजस्व में केवल 12 प्रतिशत बढ़ोतरी का अनुमान है। यह इस तथ्य के बावजूद है जब पिछले दो वर्षो में कर संग्रह सालाना 17 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। वास्तव में नोटबंदी के बाद बैंकों में बढ़ी जमाराशि और काले धन के वास्तविक अर्थव्यवस्था में आने के फायदों के लिहाज से यह और बेहतर होगा। बजट का यह पहलू भी उतना ही सराहनीय है कि राजस्व में 12 प्रतिशत की बढ़ोतरी अनुमान के साथ ही व्यय में महज 6.5 प्रतिशत की वृद्धि का संकुचित लक्ष्य तय किया गया है। कुल मिलाकर अनिश्चित दौर में यह सुरक्षित बजट है।

(लेखक प्रॉक्टर एंड गैंबल इंडिया के पूर्व सीईओ हैं)