संसार के सभी प्राणी सुख और शांति की कामना करते हैं। समृद्धि की कामना करते हैं, लेकिन आज का मानव आधुनिक जीवनयापन, भोग-लिप्सा और भौतिकवाद के नीचे दबकर दुख की अनुभूति कर रहा है। व्यक्ति अनंत सुख का स्वामी होकर भी दुख और तनाव के महासागर में डूबता जा रहा है। इन समस्याओं का समाधान वाह्य और भौतिक साधनों से शायद संभव नहीं है। जब तक व्यक्ति अपने अंदर आनंद की खोज नहीं करेगा, तब तक वह दुख से मुक्त कैसे हो सकता है? हमें सुख की प्राप्ति के लिए अपनी समृद्ध परंपरा की ओर देखना होगा, जहां व्यक्ति को एक सशक्त मार्ग मिलता है-योग।

हमारे मन में अनंत शक्तियां विद्यमान हैं। आवश्यकता है, उन्हें जाग्रत करने की। ‘योग’ के द्वारा हम अपनी सुप्त शक्तियों को जाग्रत कर अनंत आनंद, अनंत शक्ति और अनंत शांति की प्राप्ति कर सकते हैं। हम अनंत शक्तियों के स्वामी होते हुए भी निर्बल बने हुए हैं। इसी निर्बलता को सबलता में बदलता है ध्यान और योग। महर्षि पतंजलि को योग का प्रणेता माना गया है। उनका ‘योगदर्शन’ जन सामान्य के लिए बहुत उपयोगी शास्त्र है।

इसमें अतिसूक्ष्मता से जीवन को संयमित ढंग से उपयोगी बनाने की बात सहजता से प्रकट की गई है। इसी कारण आज के युग में न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में योग के महत्व को स्वीकार किया गया है, बल्कि दैनिक जीवनचर्या और चिकित्सा के क्षेत्र में भी इसका महत्व सिद्ध हो गया है। इसका महत्व अब प्रबंधन के क्षेत्र में भी समझा जा रहा है। महर्षि पतंजलि ने अपने ‘योगशास्त्र’ में लिखा है, जिसका आशय है, ‘चित्त की वृतियों को रोकना ही योग है।

योग शब्द का अर्थ है-जोड़ना या मिलाप। योग शब्द का भावार्थ आत्मा का परमात्मा से सबंध जोड़ना या फिर मिलन है। आचार्य श्रीमहाप्रज्ञ ने योग को मुक्ति का साधन बताया है और कहा है कि योग से चित्त निर्मल होता है और व्यक्ति अपने आवेगों-संवेगों पर नियंत्रण कर सकता है। प्रेम का मार्ग योग है और व्यक्ति अपनी जकड़नों को तोड़कर वाह्य आडंबर को चकनाचूर कर अपने अंदर स्फुटित होने वाली आनंद की तरंगों का अनुभव करता है। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, ‘यह चंचल और अस्थिर मन जहां-जहां दौड़कर जाए, वहां-वहां से हटाकर बार-बार इसे परमात्मा में ही लगाना चाहिए।’ यही योग है।
आचार्य डॉ. लोकेश मुनि