व्यक्ति को दूसरे का सुख और समृद्धि अधिक दिखती है और अपनी कम। अपनी उपलब्धि से असंतुष्ट रहने वाला व्यक्ति पराई उपलब्धि से जलता रहता है या उस पर हस्तक्षेप करता रहता है। इससे अनेक उलझनें सामने आती हैं। वह हर तरह से सुखी और संपन्न होने पर भी दुखी और दरिद्र प्रतीत होता है। इसी कारण समस्याओं से भी घिरा रहता है। सुखी होने का बहुत सरल फामरूला है-संतुष्ट होना। दलाई लामा ने सुखी होने के लिए दूसरों के प्रति संवेदनशील होने की बात कही है।

वह कहते हैं कि हमारी खुशी का स्नोत हमारे ही भीतर है और यह स्नोत दूसरों के प्रति संवेदना से पनपता है। दूसरे की प्रगति के प्रति जलन और ईष्र्या मानवीय दुर्बलता है। इसी दुर्बलता ने न जाने कितनी बार मनुष्य को आपसी नफरत और द्वेष की लपटों में झोंका है, अच्छे-भले रिश्तों में इसी कारण दरारें पड़ती हैं और इसी कारण मनुष्य दुखी व अशांत हो जाता है। वस्तुत: सुख-शांति और आनंद को पाने के लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है। वह स्वयं के भीतर है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने सुख का रहस्य उद्घाटित करते हुए लिखा है कि आप प्रसन्न हैं या नहीं, यह सोचने के लिए फुर्सत होना ही दुखी होने का रहस्य है। व्यक्ति की हर कामना पूरी हो जाए, यह नितांत असंभव है। ऐसी स्थिति में उसके मानस में निरंतर एक चुभन-सी बनी रहती है, जो उसे कभी भी शांति से नहीं सोने देती।

इसीलिए बेंजामिन फ्रेंकलिन ने अपेक्षाओं को नियंत्रित करने की बात कही है कि धन से आज तक किसी को खुशी नहीं मिली और न ही मिलेगी। जितना अधिक व्यक्ति के पास धन होता है वह उससे कहीं अधिक चाहता है। धन रिक्त स्थान को भरने के बजाय शून्यता को पैदा करता है। अपने लक्ष्य, प्रवृत्ति और प्रगति के प्रति विश्वास होना जरूरी है, संतुष्टि भी जरूरी है। अपने ही प्रति संदेहशील और असंतुष्ट व्यक्ति व्यावहारिक दृष्टि से भी सफल नहीं हो सकता। वह नीरस, उपेक्षित और कटा हुआ जीवन जीता है। उसे न अपने अस्तित्व, कर्तव्य और व्यक्तित्व पर भरोसा होता है और न दूसरों पर। संदेह मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। इससे पारस्परिक स्नेह और सौहाद्र्र का स्नोत सूख जाता है। मन सदा भय और आशंका से भरा रहता है। दबा हुआ भय और आशंका कभी भी विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकती है। सुख और दुख का मूल कारण स्वयं व्यक्ति ही होता है।

(ललित गर्ग)