उपलब्धि योग्यता से होती है। योग्य का अर्थ विशिष्ट पात्रता से है। लीक से हटकर सारस्वत साधना करने में पूरा जीवन समर्पित करना पड़ता है। समाज के उत्कर्ष के लिए निरंतर खोज की आवश्यकता रहती है। विद्या की साधना से स्वाध्याय और लेखन की प्रेरणा मिलती है। विद्या से विद्वता आती है। विद्वता लाभ-हानि के गुणा-भाग से ऊपर का तत्व है। विद्वता का मानक मानवता, विनम्रता, संवेदना और चरित्र है। इसमें दोहरी चीज नहीं चलती। विद्वान पूर्वाग्रह और आत्मकेंद्रित संकीर्णता से भागते हैं। कुछ लोग वितंडावाद खड़ा करके विद्वता पर प्रश्न करते हैं। योग्यता की सार्थकता आगे बढ़ते होनहारों को पिछाड़ने में कदापि नहीं है। यह प्रेरणा का मंत्र बनकर गुनगुनाती है। केवल लिखने से कोई विद्वान नहीं बन जाता। जीवन और मंच की विद्वता में बड़ा अंतर है। अनुभवजन्य विद्वता गपबाजी से नहीं आती। अभाव से जूझते विद्वानों की तुलना धनवानों से नहीं की जाती। उच्च शिक्षा संस्थानों में पदों पर बैठे कुछ लोग विद्वानों की श्रेणी में स्वयं आ जाते हैं। मसिजीवी जब संघर्ष से आगे बढ़ते हैं, तो पदनामधारी घृणा करते हैं। विद्वता के आचरण और पहचान का संकट बढ़ा है। समाज को जोड़े, बचाने और आगे ले जाने की ललक रखने वाले समर्पित चिंतक दुर्लभ हैं।
वाणी, ईमानदारी, सत्य और न्याय के अर्थ का अनर्थ करना कुशलता नहीं है। विद्या का दान सर्वश्रेष्ठ तपस्या है, जो पारस की भांति लोहे को सोना बनाता है। सकारात्मक प्रयास में चंदन का घर्षण आग उत्पन्न करता है। पारदर्शिता मूल्यांकन का आधार है। जिससे मिलने पर गुण या प्रेरणा नहीं मिलती उससे दूर रहना ही ठीक है। शिव से वरदान पाने पर भस्मासुर ने शिव पर ही परीक्षण करना चाहा तो उसका विनाश हो गया। इसलिए विद्या का सदुपयोग ही सार्थक है। सभी बादल जल नहीं बरसाते। वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु ने पौधों पर संवेदनशीलता पर शोध-प्रयोग किया। विद्वता के लिए श्रेष्ठ कार्य करने में नई राह बनानी पड़ती है। सरस्वती के पास जाने में लक्ष्मी संकोच करती हैं, पर संकोच कम करते ही अपना निवास बना लेती हैं। सरस्वती की अखड आराधना के बिना विद्वता आना कठिन है। सरस्वती जिसे तिलक कर देती हैं उसके हाथ स्वयं लिखने लगते हैं। करुणा का लोक मंगल विद्वता का प्राणतत्व है। वाल्मीकि की रामायण इसी करुणा से लिखी गई। कृतज्ञता योग्यता बनकर विद्या की विनयशीलता प्रदान करती है।
[ डॉ. हरिप्रसाद दुबे ]