संसार सदा से ही लंबी चर्चाओं में उलझा रहा है कि क्या पवित्र है और क्या अपवित्र? प्रत्येक धर्म-संस्कृति के इस विषय पर अपने विचार हैं। इससे भ्रम उत्पन्न हुए हैं। अपवित्र को पवित्र करने का सबसे मान्य माध्यम जल माना गया है। मनुष्य स्वयं भी जल स्नान के बाद अपने को पवित्र हो गया मानता है, किंतु क्या जल अपने आप में पवित्र है? जल यदि जीवनदायी है तो जल ही प्रलय के रूप में जीवन को समाप्त करने वाला भी है। जिसके भीतर ही विनाश के तत्व मौजूद हैं वह पवित्र कैसे हो सकता है। दूध को भी पवित्र माना गया है, किंतु इसे भी पहले बछड़ा पीता है। वास्तव में पवित्रता और अपवित्रता हमारी दृष्टि में है। पवित्रता गुणों में है। यदि गुण हैं तो उनका ही मूल्य है। जल यदि संयम में है तो कल्याणकारी है। दूध गुणों के कारण स्वास्थ्यवर्धक है। भले ही बछड़ा पहले उसे पीकर झूठा कर चुका है। ज्ञानी पुरुष की पवित्रता उसका ज्ञान है और धार्मिक पुरुष का मूल्य उसके दृढ़ आचरण के कारण है। राजा तभी स्वीकार्य है यदि वह न्याय कर रहा है। एक गृहस्थ पुरुष भला है, यदि वह अपने संसाधनों से दूसरों की सहायता कर रहा है। धर्म, न्याय, सदाचार, संयम, संतोष और परोपकार आदि मनुष्य के मूल गुण हैं जो ईश्वर ने उसे प्रदान किए हैं। इन गुणों से मुंह फेर लेना अपवित्रता है। तन, स्थान की शुचिता का कोई अर्थ नहीं है। जिसे आज तक अपवित्र माना जाता रहा है, यदि उस परिभाषा के अनुसार विचार किया जाए तो संसार में कोई वस्तु ऐसी नहीं मिलेगी जो पवित्र और शुद्ध कही जा सके। ऐसे तो जीवन जीना कठिन हो जाएगा।
गुण आधारित जीवन सहज और सुखमय हो जाता है। ज्ञानी को यह सिद्ध करने का प्रयास नहीं करना पड़ता कि वह ज्ञानी है। धर्म पुरुष को अपने धार्मिक होने और राजा को अपने श्रेष्ठ होने के प्रमाण नहीं देने पड़ते। गृहस्थ को अपने उत्तम होने की बात प्रकट नहीं करनी पड़ती। गुणों के अभाव में अपने को प्रमाणित करने के फेर में आज सारा संसार पड़ा हुआ है। जो कभी छत्रपति राजा बने हुए थे, आज स्मृति से भी बाहर हो गए हैं। लोकप्रिय वस्तुओं की मांग कब तक रहेगी, इसकी भविष्यवाणी कठिन है। जिसे भी दिखाने का प्रयास होता है उसका भविष्य सदैव संदिग्ध रहता है। इस प्रयास में कई कष्ट उठाने पड़ते हैं और कई समझौते करने पड़ते हैं। गुण स्वत: प्रकट होते हैं और जीवन की शाश्वत पवित्रता को सुनिश्चित करते हैं।
[ डॉ. सत्येंद्र पाल सिंह ]