शरीर-विज्ञान के अनुसार हर व्यक्ति के शरीर में ऊर्जा है। नकारात्मक जीवन जीने वाले के शरीर से नकारात्मक ऊर्जा निकलती रहती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसके शरीर के रक्त, मज्जा, हार्मोंस में नकारात्मकता के अंश विद्यमान हैं। इन तत्वों के चलते वाह्य जगत से भी शरीर निरंतर दूषित तत्व लेता रहता है। हाथ मिलाने, गले मिलने और चरण-स्पर्श से यदि एक दूसरे के ऊर्जा-तत्वों में विरोधाभास है, तो इसका दोनों पर अनुकूल की जगह प्रतिकूल असर पड़ेगा। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अनन्य उपासक गोस्वामी तुलसीदास ने तो ‘आवत ही हरषे नहिं नयनन नहिं सनेह, तुलसी वहां न जाइए कंचन बरसे मेघ’ चौपाई में इसी भाव को समाहित किया है। ऐसा इसलिए, क्योंकि नेत्रों की किरणों से शरीर पर असर पड़ता है। प्रणाम, चरण-स्पर्श और साष्टांग दंडवत की भारतीय संस्कृति रही है। हम उन्हीं चरणों में झुकते और शीश नवाते थे, जिनका आचरण उत्कृष्ट होता था। भगवान राम के चरण जहां पड़ते थे, वहां का पूरा परिवेश उच्चस्तरीय हो जाता था। इसी तरह कहा जाता है कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस के आसपास आते ही उनके शरीर के आभामंडल से हिंसक प्रवृत्ति के जानवर हिंसा भूल जाते थे। हमारे ऋषियों ने चरण-स्पर्श किसका किया जाए, इसके लिए आचार-संहिताएं बनाईं। माता-पिता तो बेशक अपनी संतानों के लिए देवतुल्य हैं। गुरु को देवता से भी बड़ा बताया, लेकिन गुरु का मतलब सिर्फ किताबी ज्ञान देने वाला व्यक्ति नहीं है। वास्तविक गुरु वह है जो जीवन में गुरुत्व (वजन) ले आए।
साधु-संतों के भी चरण-स्पर्श करने की परंपरा है, लेकिन केवल जटाजूट धारण कर और साधुभेष बनाकर स्वार्थ सिद्ध करने वालों से सतर्क भी रहना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि से अंतरिक्ष से निकलने वाली ऊर्जा-तरंगें सिर से होते हुईं धरती की ओर जाती हैं। इसलिए जिसका भी चरण-स्पर्श करना हो तो यह भलीभांति जान लेना चाहिए वह कैसा है? जल्दबाजी न करें। और कुछ दिन साथ रहकर जब लगे कि व्यक्ति श्रेष्ठ प्रकृति का है, तब ही चरण-स्पर्श करें। न जाने कितने श्रेष्ठ लोग भी चरण-स्पर्श नहीं कराते। केवल खुशामद, स्वार्थ और भय के चलते चरण-स्पर्श तन और मन, दोनों के लिए घातक होगा। हाथ मिलाने की परंपरा पाश्चात्य जगत से शुरू हुई, जो अब अपने समाज में भी प्रचलित हो चुकी है। स्पर्श से भी तन-मन पर असर पड़ता है।
[ सलिल पांडेय ]