हमारे जीवन में संस्कारों की आधारशिला हमारे माता-पिता बचपन से ही रख देते हैं और फिर उसी दिशा में हमारे व्यक्तित्व का विकास होता है। हालांकि वर्तमान में अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों को महान गणितज्ञ, वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनने के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन यह कतई संभव नहीं है कि हर बच्चा अपने क्षेत्र में महान बने, मगर हर बच्चे को हम सत्यवादी, आज्ञाकारी, परोपकारी जरूर बना सकते हैं। प्रथम गुरु होने के नाते हर माता-पिता को अपने बच्चे को आदर्श बनने की प्रेरणा देनी चाहिए। माता-पिता को अपने बच्चों को पशु-पक्षियों से प्रेम करना, पेड़-पौधों की रक्षा करना और अपने से बड़ों का आदर करने की सीख देनी चाहिए। किसी भी बालक का चरित्र ही उसकी सबसे बड़ी पूंजी होती है और उसे जीवनपर्यंत इसकी रक्षा करनी चाहिए। चरित्रवान व्यक्ति ही समाज, राष्ट्र व विश्व का सही नेतृत्व और मार्गदर्शन कर सकता है। स्वामी विवेकानंद ने मनुष्य के चरित्र को उसका वास्तविक धन बताया है यानी चरित्र की पूर्ति धन, यश, नाम, विद्वत्ता इत्यादि में से कोई नहीं कर सकता है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि यदि किसी बालक में चरित्र का निर्माण हो गया तो बाकी चीजें स्वयं हो जाती हैं।
चरित्र निर्माण के लिए व्यक्ति को संतोषी स्वभाव का होना चाहिए। संतोष से तात्पर्य है कि मानव अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं पर नियंत्रण रखे। संस्कारी व्यक्ति हमेशा अपनी इंद्रियों को अपने नियंत्रण में रखता है, जिससे उसमें हमेशा संतोष का भाव रहता है। दूसरी ओर और ज्यादा पाने की अभिलाषा मनुष्य को भ्रष्ट बना देती है और भ्रष्ट व्यक्ति भौतिक वस्तुओं का दास बन जाता है, जबकि संस्कारी व्यक्ति इन वस्तुओं को अपना दास बनाता है। दरअसल किसी भी व्यक्ति का चरित्र उसके विचारों से बनता है। हमारे मन-मस्तिष्क में जैसे विचार आएंगे, हमारे कर्म भी वैसे ही होंगे और कर्म ही हमारे चरित्र का निर्माण करेंगे। न केवल जीते-जी, बल्कि मरणोपरांत भी व्यक्ति का चरित्र जीवित रहता है। चरित्र का निर्माण करने वाले हमारे विचारों को हमारे आस-पास का वातावरण प्रभावित करता है। यदि हम अच्छे समाज और लोगों की संगत में बैठेंगे तो हमारे विचार भी उच्च होंगे। हमारी शिक्षा भी हमारे विचारों को मजबूती प्रदान करती है, इसलिए हर बालक के लिए शिक्षा प्राप्त करना भी जरूरी है।
[ आचार्य अनिल वत्स ]