बद्री नारायण

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर विचार-विमर्श के समय मेरे अकादमिक सहयोगी-परिचित अक्सर यह सवाल करते हैं कि आखिर आप संघ को इतना महत्व क्यों देते हैं? उनका एक सवाल यह भी होता है कि इस संगठन में क्या बदलाव देख रहे हैं? ऐसे सवाल करते हुए वे यह तर्क देते हैं कि आज संघ का जो भी प्रसार दिख रहा है वह भाजपा के सरकार में होने के कारण दिख रहा है। मैं इस व्याख्या को थोड़ा उलट करके देखता हूं। मुझे तो यह दिखता है कि भाजपा का आज जो भी प्रसार और प्रभाव है उसमें एक बड़ी भूमिका उस सामाजिक-सांस्कृतिक मनोभूमि की है जिसे संघ ने पिछले लगभग 50-60 वर्षों के दौरान अपने आधारतल पर किए गए कार्यों से तैयार की है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बिना किसी शोरगुल और मीडिया की टीका-टिप्पणियों की चिंता किए अपने प्रतिबद्ध एवं सक्षम कार्यकर्ताओं की बड़ी संख्या विकसित कर ली है। वे चुनाव, जनमत निर्माण और सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजनों के अवसर पर नीचे से ऊपर तक सक्रिय रहते हैं। संघ अपने अभ्यास वर्गों के माध्यम से डेढ़ लाख कैडर्स प्रतिवर्ष तैयार कर रहा है।

मैंने अपने शोध कार्यों के दौरान यह देखा कि इस संगठन की सबसे बड़ी शक्ति उसकी भाषा है। उसकी इस शक्ति को समझते हुए कांग्रेस के एक विचारक नेता का कहना था, ‘संघ की भाषा में पांच हजार वर्ष की अनुगूंज सुनाई पड़ती है। वह भारतीय परंप की अनेक अनुगूंजों को अपने में जज्ब किए है। अगर कांग्रेस को भाजपा की तुलना में अपने संघर्ष को सक्षम बनाना है तो उसे संघ की भाषा के प्रतिकार में अपनी एक ऐसी भाषा विकसित करनी होगी जिसमें भारतीय समाज के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य की छवि हो।’ सचमुच संघ के पास एक ऐसी भाषा है जिसमें आम आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक की भाषा की छवि मौजूद है। अगर आप नीचे से ऊपर तक चलने वाले संघ के अभ्यास वर्गों में चल रहे बौद्धिकों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करें तो आपको इस भाषा के स्नोत और उसके निर्माण की रणनीति के साथ उसका प्रूप भी समझ में आएगा। हाल में मैंने संघ के बौद्धिकों का विश्लेषण किया तो यह पाया कि इस संगठन में ऊपर से नीचे तक स्वयंसेवक अपने-अपने समूहों में जो प्रभावी वक्तव्य देते हैं वे उनकी संस्कृति का हिस्सा हैं। वक्तव्यों को सुनते हुए मुझे प्राय: यह महसूस होता है कि उसमें कथा वाचन का अत्यंत प्रभावी तत्व निहित रहता है। इसके माध्यम से संघ के संघर्ष, उसकी प्रेरणा एवं लक्ष्य को रेखांकित किया जाता है। कथा कहने का यह तत्व कई बार हमें भारतीय कथा वाचन की उस परंपरा की याद दिलाता है जिसमें भागवतपुण, महाभारत, सत्यनायण की कथा कही एवं सुनी जाती है। ऐसे कथा वृतांत के जरिये संघ के कार्यकर्ता जो कुछ कहते हैं उसका संदर्भ नवीन होता है।

हमें पता है कि भारतीय मन ‘कथा’ में जीता है। अगर आप गांव के लोगों से बात करें तो कोई मैसेज देने के लिए वे प्राय: कथाओं एवं मुहावरों का इस्तेमाल करते हैं। वृतांत एवं धार्मिक कथाओं के साथ-साथ त को सोते वक्त हमारे समाज का बालमन कथा सुनकर ही अपने सपने बुनता आया है। शायद इसी सामाजिक मन को समझते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वाधिक प्रभावी सरसंघचालक गोलवलकर ने भारतीय गांवों का जो स्वरूप परिकल्पित किया उसमें मदन मोहन मालवीय की इस सोच का प्रभाव दिखता है कि ‘गांव-गांव सभा हो, प्रत्येक सभा में कथा हो, प्रत्येक गांव में विद्याशाला हो, साथ में मल्लशाला भी हो।’ गोलवलकर की इस परिकल्पना में कथा महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विमर्श में आम तौर पर जिन आधुनिक या प्राचीन कविताओं का इस्तेमाल होता है उनके मूल में कथाएं ही होती हैं। इन कविताओं में कथाओं से उभरे प्रतीक और चरित्र प्रेरणा जगाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। संघ के विमर्श के निर्माण की रणनीति में ‘ओज का तत्व’ भी दिखता है।

रामधारी सिंह दिनकर एवं ऐसे ही अन्य अनेक राष्ट्रवादी कवियों की तर्ज पर रचित कविताओं का प्राय: इस्तेमाल किया जाता है। संघ के विमर्श का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है मिलने-जुड़ने की कोशिश। यह किसी से छिपा नहीं कि आज संघ अनेक प्रतिरोधी दिखने वाली धाराओं को अपने साथ लाने की कोशिश कर रहा है। शायद इसी कोशिश के तहत संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हाल में विभिन्न देशों के राजदूतों से मुलाकात की। इनके अलावा वह दूसरे धर्मो के प्रतिनिधियों से भी मिले। हाल में नागपुर में संघ के एक कार्यक्रम में एक मुस्लिम चिकित्सक को आमंत्रित किया गया। प्रतिरोधी धाराओं से मिलने-जुड़ने और उन्हें आप साथ लेकर चलने की कोशिश के तहत ही संघ के चिंतन में अंबेडकर एवं नवबौद्धों द्वा की गई हिंदू धर्म की आलोचना नजर नहीं आती। संघ के पदाधिकारी हर उपयुक्त अवसर पर अंबेडकर के किसी न किसी कथन का इस्तेमाल करते दिखते हैं। दरअसल संघ सदैव हिंदू और बौद्ध धर्म के बीच एक सहज संबंध दिखाने की कोशिश करता है।

पिछले दिनों दलित समूहों ने हिंदू कथा परंपराओं के बीच के अनेक लघुचरित्रों को अपने-अपने नायक के रूप में विकसित कर उन्हें अतीत में हुए ‘अन्याय’ के प्रतीक के रूप में पेश किया। संघ के विमर्श में अब ऐसे लघु चरित्रों को महत्व देने की कोशिश हो रही है ताकि दलितों की अस्मिता को सम्मान दिया जा सके। शबरी के मंदिर, म, हनुमान के वनवासी संबंधों की कथाएं, वनवासी गांवों में शिक्षा, सफाई के साथ मंदिर निर्माण के कामों में आप एक ऐसी वृहत कथा विकसित होते देख सकते हैं जिसमें अनेक तरह के सूत्र एवं संबंध हैं। अपने अध्ययन में मैंने यह भी पाया कि संघ स्थानीय परंपओं से अनभिज्ञ नहीं है। वह लगातार उनकी खोज कर रहा है और उन्हें अपने विमर्श में शामिल भी कर रहा है। जुड़ने-मिलने की यह प्रक्रिया आसान नही है। यह अंतरविरोधों एवं जटिलताओं से भरी है। संघ के कार्यकर्ता कई बार अंतरविरोधों से दो-चार होते है, लेकिन वे उनसे पार पाने की कोशिश करते हैं। इस कोशिश में सफलता के साथ असफलता भी मिलती है। इस सबके बीच खुद को व्यापक बनाने का लक्ष्य सदैव सामने बना रहता है।

संघ के विमर्श उसकी शाखाओं में भी बनते हैं लेकिन उनमें संघ के ऊपरी स्तर पर व्याप्त चिंतन का प्रभाव साफ दिखता है। संघ के विमर्श सहसा नहीं होते। वे उसके लक्ष्य एवं उद्देश्य के अनुरूप और तात्कालिक जरूरत के हिसाब से भी होते हैं। उनमें विभिन्न सामाजिक समूहों में आधार तल पर कार्यरत कार्यकर्ताओं के फीडबैक की बड़ी भूमिका दिखती है। संघ के चिंतन में पूवरेत्तर के ज्यों के साथ वनवासी एवं दलित समूहों के विमर्श भी धीरे-धीरे प्रविष्ट हो रहे हैं। आज शायद संघ के कार्यकर्ताओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती ऐसे विमर्श की रचना है जो अंतरविरोधों को सुलझाते चले। देखना है कि समय के साथ खुद में बदलाव ला रहा यह संगठन इसे कैसे संभव करता है?

[लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के प्रमुख हैं।]