विजय कुमार चौधरी

हाल में मध्य प्रदेश विधानसभा ने नर्मदा नदी को जीवित इकाई का दर्जा देने का संकल्प लिया। इसके पहले न्यूजीलैंड की संसद ने वहां की वांगानुई नदी को अधिनियम बनाकर एक कानूनी व्यक्तित्व के रूप में मान्यता दी। फिर उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने इसी राह पर चलते हुए गंगा एवं यमुना नदियों को जीवित प्राणी मानते हुए कानूनी इकाई के रूप में मान्यता देने का आदेश दिया। मूल रूप से ये बातें प्रकृति के संरक्षण एवं अधिकारों से जुड़ी हैं और इसे प्रगतिशील कानून एवं न्यायादेश के रूप में देखा जाना चाहिए। जाहिर तौर पर ये प्रकृति-प्रेमियों एवं पर्यावरणवादियों को सुकून देने वाले विषय हैं। फिर भी विधिक इकाई के रूप में नदी के अधिकार, कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व पर विमर्श करना उचित प्रतीत हो रहा है।
माओरी जनजाति के लोग न्यूजीलैंड के मूल निवासी माने जाते हैं एवं अन्य देशों की अनुसूचित जनजातियों की तरह ही उनका भी प्रकृति से गहरा लगाव है। माओरी संस्कृति में प्रकृति यानी नदी, पहाड़, जंगल आदि की न सिर्फ पूजा की जाती है, बल्कि वे इन्हें अपना पूर्वज मानते हैं। माओरी जनजाति के लोग उक्त नदी को जीवंत बनाए रखने के लिए इसके अधिकारों की लड़ाई पिछली एक शताब्दी से भी अधिक समय से लड़ रहे थे। न्यूजीलैंड की संसद ने इस नदी का प्रतिनिधित्व करने के लिए दो अभिभावकों की नियुक्ति का भी प्रावधान किया। ये दोनों अभिभावक माओरी जनजाति के ही होंगे। इसी तरह बीते दिनों उत्तराखंड हाईकोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में गंगा एवं यमुना के साथ उनकी सहायक नदियों को सुरक्षित, संरक्षित एवं संवर्धित करने के लिए तीन अभिभावकों की नियुक्ति की, जो इनका प्रतिनिधित्व करेंगे। नमामि गंगे परियोजना के निदेशक, उत्तराखंड सरकार के मुख्य सचिव और महाधिवक्ता इन नदियों के मानवीय चेहरे होंगे जो इनके विधिक अधिकारों के प्रति सजग रहेंगे।
सवाल है कि नदी के अधिकार क्या हो सकते हैं? सामान्य रूप से किसी नदी के अधिकार उसकी निर्मलता एवं अविरलता ही हैं। ये दोनों चीजें आपस में स्वाभाविक रूप से जुड़ी हुई भी हैं। नदी का जीवन उसका प्रवाह होता है और उसमें बाधा उत्पन्न होने से नदी के टूटने की संभावना बढ़ जाती है। अविरलता को मानवीय छेड़छाड़ के अलावा मुख्य रूप से गाद की समस्या प्रभावित करती है। आज सभी नदियां विशेषकर गंगा की धारा तीव्र गति से गाद जमा होने के कारण प्रभावित हो रही हैं। बराजों यानी बांधों के निर्माण से नदियों की सांस ही रुक जाती है। इसका स्वाभाविक प्रवाह बाधित होता है और गाद जमा होने की दर तेज गति से बढ़ जाती है। इसका ज्वलंत उदाहरण फरक्का बांध का प्रभाव है। फरक्का बांध निर्माण के बाद नदी की तलहटी में भयानक मात्रा में गाद जमा हो चुकी है। जल ग्रहण करने की इसकी क्षमता भी क्षीण होती जा रही है। इस परिप्रेक्ष्य में नदियों की जिंदगी अविरलता है और इसे सुरक्षित करने के लिए गाद प्रबंधन आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी है। हालांकि यह चिंताजनक है कि अभी तक इस दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। जहां तक निर्मलता का प्रश्न है तो केंद्र सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारों की तरफ से ऐसी योजनाएं लागू की गई हैं जिसमें नदियों में कचरा, सीवेज का गंदा पानी अथवा अन्य ठोस सामग्रियां डालने पर प्रतिबंध लगाया गया है। वहीं विभिन्न शहरों की गंदी नालियों का निकास भी इन नदियों में ही होता है। लिहाजा इनके लिए ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के प्रावधान किए गए हैं।
कानूनी व्यक्तित्व के रूप में मान्यता के बाद क्या नदियों के कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी होंगे? मान्यता रही है कि जब किसी गैर मनुष्य को विधिक इकाई या जीवित प्राणी की मान्यता दी जाती है तो उसे कानूनी रूप से शाश्वत अवयस्क माना जाता है। इसीलिए उनके लिए अभिभावक सुनिश्चित किए जाते हैं। तथ्य बताते हैं कि नदियों के मामले में इनके कर्तव्य या उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना अव्यावहारिक होगा। मसलन अगर हम प्रतिवर्ष आने वाली प्रलयंकारी बाढ़ की चर्चा करें जिसमें करोड़ों रुपये के जान-माल का नुकसान होता है तो फिर इसकी जिम्मेदारी का प्रश्न मामले को और उलझा देता है। अत: देखा जाए तो नदियों को विधिक व्यक्तित्व का दर्जा देने का मूल मकसद इनके अधिकारों को ही सुरक्षित एवं संरक्षित करना है। हालांकि वर्तमान में भी नदियों को प्रदूषित करने अथवा उनकी धारा को बाधित करने की स्थिति में विभिन्न अधिनियमों में दंड के प्रावधान किए गए हैं। जैसे-जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम-1974 एवं पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम-1986 में नदियों या किसी जल स्रोत को प्रदूषित करने या क्षति पहुंचाने को गैर कानूनी बताया गया है। इतना ही नहीं भारतीय दंड संहिता की धारा-430 एवं 432 में भी जल स्रोतों को हानि पहुंचाने के लिए दंडात्मक प्रावधान किए गए हैं। इन अधिनियमों एवं दंड विधान के तहत ही अभी तक नदियों या जल स्रोतों को सुरक्षित एवं संरक्षित करने के प्रयास किए जाते रहे हैं।
नदियों को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त होने के बाद मौजूदा हालात में कुछ बदलाव भी देखने को मिलेंगे। सबसे पहले तो अभिभावकों की जिम्मेदारी होगी कि इनके अधिकारों के अतिक्रमण की स्थिति में वे न्यायालय का दरवाजा खटखटाएं। हालांकि प्रकृति के संरक्षण एवं पर्यावरणवाद के प्रति बढ़ती जागरूकता के कारण आज प्रकृति संरक्षण के संबंध में जनहित याचिकाओं की न्यायालय में कोई कमी नहीं है। अनेक गैर सरकारी संगठन एवं नागरिक समाज के लोग इस क्षेत्र में पहले से ही सक्रिय हैं। जाहिर है नदियों के विधिक इकाई बनाए जाने के बाद व्यावहारिक दृष्टिकोण से क्या परिवर्तन अपेक्षित है, इसमें स्पष्टता लानी होगी। जैसे कि गंगा उत्तराखंड से निकलकर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल से गुजरती हुई फिर बांग्लादेश होते हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती है। ऐसे में उत्तराखंड के मुख्य सचिव एवं महाधिवक्ता गंगा एवं यमुना नदियों को अन्य प्रदेशों में होने वाली क्षति को कैसे देखेंगे और क्या कार्रवाई कर पाएंगे? अत: पूरी नदी प्रणाली को समेकित रूप से देखते हुए इसके लिए प्रावधान करने की आवश्यकता है।
कुल मिलाकर नदियों को जीवित प्राणी मानने के बाद इनसे जुड़ी कुछ शंकाओं को भी स्पष्ट करने की जरूरत है ताकि आम लोगों में नदियों को सुरक्षित रखने का भाव एवं उनके प्रति जागरूकता पैदा हो सके। सिर्फ विधिक इकाई घोषित कर देने मात्रा से खास अंतर नहीं पड़ेगा। इसकी निर्मलता एवं अविरलता अक्षुण्ण रखने के लिए और भी कारगर कदम उठाने होंगे।
[ लेखक बिहार विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]