हृदयनारायण दीक्षित

जल जीवन है। सभी प्राणियों के रक्त रस का संचारक। जल से अन्न हैं, वनस्पतियां हैं और औषधियां भी। जीवन जगत के सभी प्रपंच जलतरंग में हैं। जल रस है और रस आनंद का स्नोत है। वैदिक इतिहास के प्रतिष्ठित ग्रंथ ‘शतपथ ब्राह्मण’ में ‘जल को प्राण’ कहा गया है। सृष्टि का उद्भव जल से हुआ। यह बात ऋग्वेद में है। 600 ईसा पूर्व यूनानी दार्शनिक थेल्स भी यही मानते थे। विकासवादी सिद्धांत के जनक चार्ल्स डार्विन का विचार भी यही है। भारत में हजारों बरस पहले से ही एक सदाबहार सदानीरा जल संस्कृति रही है। जल संरक्षण सामाजिक कर्तव्य रहा है। जलस्नोत नमस्कारों के योग्य रहे हैं, लेकिन बीते 50-60 बरस से जल प्रदूषण की सुनामी हावी है। नदियां औद्योगिक कचरे की पेटी बन रही हैं। झीलों का वध हो रहा है। ग्रामीण जलाशय अवैध कब्जे के शिकार हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की यमुना का प्रदूषण भयावह है तो पांच राज्यों में प्रवाहमान गंगा का प्रदूषण भी राष्ट्रीय बेचैनी है। इसका अविरल निर्मल प्रवाह केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार की कार्यसूची में है। चेन्नई महानगर से होकर बहने वाली कुअम, मुंबई में प्रवाहित मीठी, पुणे की मुलामुथा, बेंगलुरु की वृषभावती, गुजरात की साबरमती, लखनऊ की गोमती और बंगाल, झारखंड की दामोदर नदी भी प्रदूषण से त्रस्त हैं।
जलाशय जलसंस्कृति का आभूषण रहे हैं। प्रकृति ने भारत को मनोरम बनाया था। यहां तीन हजार से ज्यादा खूबसूरत प्राकृतिक झीलें हैं और 60-65 हजार मानव निर्मित जलाशय। अधिकांश झीलें नगरीय कूड़ा करकट और औद्योगिक कचरे से अटी पड़ी हैं। कश्मीर की डल झील सुंदर मानी जाती थी। डल झील के रखरखाव पर करोड़ों का खर्च हो रहा है, लेकिन अब इसका आकार लगभग आधा ही रह गया है। बेंगलुरु को झीलों का नगर कहा जाता था। कुछ समय पहले यहां लगभग तीन सौ सुंदर जलाशय थे, लेकिन अब मरणासन्न हैं। उत्तर प्रदेश के नैमिष नगर के जलाशय की पौराणिक मान्यता है और इस कारण यहां प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं, लेकिन जल निर्मल नहीं। जल पीना जैविक आवश्यकता है और स्नान, आचमन पवित्रता की प्यास है। वैदिक मंत्रों में ‘जलमाताओं से पवित्रता और शुद्धि की प्रार्थना की गई है-आपो अस्मान मातरम् शुंदयनु। संप्रति सभी जलस्नोतों पर आधुनिकता का आक्रमण है। देश के तमाम भागों का पेय जल भी प्रदूषित है।
इसे पीने वाले कैंसर सहित तमाम बीमारियों के शिकार हैं। शुद्ध पेयजल का संकट देशव्यापी है। हम नदी संस्कृति नहीं, बल्कि नाला सभ्यता के आदी हो रहे हैं। अथर्ववेद में कहा गया है-‘हे सरिताओं! आप नाद करते बहती हैं, इसीलिए आपका नाम नदी है।’ नैनीताल उच्च न्यायालय ने गंगा-यमुना को अब व्यक्ति माना है। पूर्वजों ने हजारों बरस पहले ही नदियों को प्राणवान जाना था। कोर्ट के कथन से प्रसन्न होने की कोई बात नहीं। न्यूजीलैंड ने भी अपनी वांगानुई नदी को संवैधानिक दर्जा दिया है। नदियों को व्यक्ति जैसे अधिकार मिलने का कोई खास मतलब नहीं। बेशक यह एक शुभ संदेश है, लेकिन जलस्नोतों की हत्या का मूलभूत प्रश्न जस का तस है। क्या नदियां जबर्दस्ती औद्योगिक विष पिलाने के विरुद्ध किसी थाने में रिपोर्ट लिखा सकती हैं? क्या वे जीवन के मौलिक अधिकार को लेकर किसी न्यायालय में याचिका दायर कर सकती हैं? नदियां प्रकृति का अविभाच्य अंग हैं और हम सब भी। हम जलस्नोतों पर निर्भर हैं और जलस्नोत हम पर। वे मरेंगे तो हम भी नहीं बच सकते। पूर्वजों ने इसीलिए उन्हें माता कहा है और कोर्ट ने उन्हें व्यक्ति, लेकिन कहने भर से कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। प्रकृति दोहन की हमारी भूख अनियंत्रित है। हमने नदियों को औद्योगिक कचरे सहित सभी तरह की गंदगी डालने का सहज क्षेत्र बना दिया है।
औद्योगीकरण को लेकर भारत और यूरोपीय सोच में मूलभूत अंतर है। वे प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करते हैं, हम प्रकृति संरक्षण को कर्तव्य मानते है। औद्योगीकरण बेशक जरूरी है, लेकिन औद्योगिक कचरे को गंगा या फिर अन्य किसी नदी में ही फेंकना क्यों जरूरी है? अधिकांश महानगर नदी तट पर हैं। गंगा तट पर 100 से ज्यादा आधुनिक नगर और हजारों गांव हैं। नगरों-महानगरों का सीवेज गंगा जैसी नदियों में ही बहता है। उप्र के कानपुर और उन्नाव में चमड़े के उद्योग हैं। इनका पानी भी गंगा में जाता है। पशु वधशालाओं के रक्त नाले भी गंगा में गिरते हैं। उन्नाव औद्योगिक क्षेत्र से निकली लोन नदी के तट पर बसे लगभग 500 गावों में हैंडपंप का पानी भी जानलेवा रसायनों से भरा है। जलशोधन संयंत्रों को लगाने के हजारों निर्देश आते रहे हैं, लेकिन निर्देश न मानने वालों के खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं हुई। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड रिरियाता रहता है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट औपचारिकता भर हैं। औद्योगिक कारखानों के जलशोधक संयंत्र दिखावटी हैं। सारे गंदे नाले गंगा की ओर ही जाते हैं। ऐसे औद्योगिक विकास में विनाश ही विनाश है, बावजूद इसके हम सब निष्क्रिय बने हुए हैं। नदी तट पर शवदाह या शवों को गंगा में फेंकना निर्मम है। यह किसी भी लिहाज से वैदिक परंपरा नहीं है।
भारत को अपनी ‘औद्योगिक नीति का पुनर्पाठ’ करना चाहिए। नदियां राष्ट्र का प्राण स्पंदन हैं। हम नदियों के तट पर जल प्रदूषणकारी उद्योगों को न लगाने की नीति बनाने पर विचार करें। सभी प्रदूषणकारी उद्योगों की स्थापना को रोकना ही समस्या का समाधान है। गंगा, यमुना आदि नदियों के तट पर स्थापित सभी उद्योगों को अन्यत्र स्थानांतरित करने की नीति भी बनानी होगी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदूषणकारी उद्योगों के स्थानांतरण को लेकर गंभीर हैं। उद्योगों को नदी वध की अनुमति नहीं दी जा सकती। ऐसे मसलों को सांप्रदायिक सेक्युलर पंथ के नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए। सतह पर प्रवाहित नदी जल के साथ भूगर्भ जल भी प्रदूषित हो रहा है। मनुष्यों के अलावा अन्य प्राणी भी मर रहे हैं। जैव विविधिता के अस्तित्व पर संकट है। औद्योगिक विकास का उद्देश्य राष्ट्रीय समृद्धि का संवर्धन करना ही होता है। जल स्नोत और नदियां अमूल्य राष्ट्रीय संपदा हैं। इन्हें खोकर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
भारत की सनातन प्यास है- नदियां बहें, निर्मल, अविरल, निर्मल, कल-कल। ऋग्वेद में वृत्त एक दानव है। मैकडनल ने उसे ‘डेमन ऑफ ड्रॉट-सूखे का निमित्त दानव कहा है। देवराज इंद्र ने उसे वज्र से मारा। ऋग्वेद (2.15.3) में इंद्र की स्तुति है ‘आपने नदियों का सदा प्रवाहित मार्ग खोला है वज्र से वृत्त को मारा है।’ आधुनिक संदर्भ में नदी प्रवाह रोकने वाले, नदी जल में जहर घोलने वाले समूह ऐसे ही क्यों नहीं हैं? बेशक वे सब भी हमारे अंग हैं, लेकिन उन्हें समय की पुकार सुननी चाहिए। औद्योगिक हित बनाम राष्ट्रहित के मूल्यांकन में राष्ट्र सर्वोपरिता का ध्यान रखना चाहिए। एक आदर्श जल संस्कृति/नदी संस्कृति का विकास आवश्यक है। यह काम अकेले सरकार ही नहीं कर सकती। सरकार की अपनी शक्ति है तो उसकी एक सीमा भी है। लोक की शक्ति बड़ी है। संस्कृति का विकास लोक करता है। भारत के प्राचीन इतिहास में जल, नदी और जलाशय संरक्षण और नमस्कारों के योग्य थे तो अब क्यों नहीं हो सकते? इसके विकल्प हैं ही नहीं। इसलिए संकल्प में देरी का कोई अर्थ नहीं।
[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]