डॉ. भरत झुनझुनवाला

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राजमार्गों के किनारे स्थित शराब की दुकानें हटाई जा रही हैं। इसी के साथ देश के कई और इलाकों में शराबबंदी की मांग भी उठ रही है। शराब के सेवन के तमाम दुष्परिणाम सर्वविदित हैं। शराब पीकर वाहन चलाने से सड़क दुर्घटनाएं एवं घरेलू हिंसा होती हैं। कभी-कभी शराब के अति सेवन से लोगों की मृत्यु भी हो जाती है। शराब के नशे में युवा अपराध करते हैं। हिंदू, इस्लाम एवं ईसाई धर्मों द्वारा शराब पीना निषिद्ध किया जाता है। तमाम इस्लामिक देशों में शराब पर प्रतिबंध है। चिंता का विषय है कि भारत में शराब के सेवन में वृद्धि हो रही है। विकसित देशों के संगठन आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन यानी ओईसीडी द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 1992 तथा 2012 के बीच भारत में प्रति व्यक्ति शराब की खपत में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र के विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2005 और 2012 के बीच शराब की प्रति व्यक्ति खपत में 38 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। शराब की इस बढ़ती खपत को देखते हुए उस पर नकेल कसना जरूरी दिखता है, परंतु शराब पर कानूनी प्रतिबंध लगाने से ये समस्याएं हल होने के स्थान पर और गहरी हो सकती हैं।
शराब के सेवन से व्यक्ति की बुद्धि दब जाती है। अपने दिमाग पर व्यक्ति का नियंत्रण ढीला हो जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि शराब के नशे में व्यक्ति झूठ नहीं बोलता। स्वस्थ व्यक्ति के लिए शराब का सेवन हानिप्रद होता है। चूंकि उसकी स्वस्थ बुद्धि अस्वस्थ हो जाती है, परंतु कष्ट में पड़े व्यक्ति को शराब राहत पहुंचाती है, लेकिन इससे उसकी बुद्धि अस्वस्थ होती है। सत्तर के दशक में मैं बेंगलुरु की झुग्गियों में कुछ सामाजिक कार्य करता था। झुग्गी के लोग शाम को शराब का सेवन सहज ही करते थे। उसके बाद प्रतिदिन घरेलू हिंसा होती थी। मैंने पाया कि उन लोगों के लिए शराब पीना मजबूरी थी। उनमें एक व्यक्ति प्रतिदिन सुबह पुराने टीन आदि को खरीदने के लिए घर से निकलता था। दिन में 15-20 किलोमीटर पैदल चलने के बाद शाम को बोरी में अपनी खरीद लिए घर लौटता था। शारीरिक दर्द एवं दिन भर के तनाव से वह खिन्न हो जाता था। ऐसे में वह शराब पीकर सो जाता था और अगले दिन सुबह पुन: पैदल यात्रा पर निकल पड़ता था। शराब न पीता तो उसे रात में नींद नहीं आती और अगले दिन वह कमाई को नहीं निकल पाता। ऐसी परिस्थितियों में चेतन बुद्धि को दबाना ही उपयुक्त दिखता है। वैश्विक अनुभव बताता है कि शराब पर प्रतिबंध सफल नहीं होता है। अमेरिका में 1920 में शराबबंदी लागू हुई थी। उस समय अवैध शराब की आपूर्ति करने को इतालवी माफिया का सृजन हुआ। शराब का धंधा अंडरग्राउंड हो कर चलता रहा। 1933 में शराबबंदी को हटाना पड़ा। इसी प्रकार मुंबई में शराबबंदी की आड़ में पनपे अंडरवल्र्ड गिरोहों में हाजी मस्तान और दाउद इब्राहिम जैसे लोग उभरे। पुलिस, एक्साइज एवं नेताओं में भ्रष्टाचार की वृद्धि हुई। गुजरात में शराबबंदी लंबे समय से लागू है, परंतु शराब का अवैध धंधा अच्छे से चल रहा है। राज्य में अक्सर जहरीली शराब के सेवन से लोगों की मृत्यु हो जाती है, जो कि शराब की उपलब्धता को प्रमाणित करता है। इसी प्रकार तमिलनाडु के गांवों में शराब की अवैध भट्ठियों को देखने का अवसर मिला था। तात्पर्य यह कि जिस कार्य को घर-घर में पर्दे के पीछे संपन्न किया जा सकता है और जिसे समाज स्वीकार करता है उसे कानून से रोकना संभव नहीं है। याद रखें कि जब सरकार सोने की तस्करी को रोकने में भी नाकाम रही है तब शराब की भट्ठियों पर कैसे रोक लगा सकेगी? शराबबंदी से लाभप्रद वस्तुओं पर टैक्स का बोझ भी बढ़ता है। बिहार सरकार की मंशा का स्वागत है, लेकिन वहां शराब से मिलने वाले राजस्व की हानि की भरपाई करने के लिए कपड़ों एवं मिठाई पर वैट की दर में वृद्धि की गई। यह कदम स्वीकार्य होता यदि वास्तव में शराब की खपत पर नियंत्रण होता। यदि शराब का धंधा अंडरग्राउंड हो जाए तो फिर दोहरा नुकसान है। शराब के दुष्प्रभावों से जनता पूर्ववत जूझती रहेगी। ऊपर से कपड़े जैसी सामान्य एवं जरूरी वस्तु की खपत कम करनी पड़ेगी। शायद इसी कारण केरल सरकार शराबबंदी हटाने पर विचार कर रही है। केरल के एक्साइज मंत्री ने कहा है कि शराबबंदी के कारण राजस्व की हानि हो रही है और ड्रग्स का सेवन बढ़ रहा हे। शराबबंदी के कारण शराब की कुल खपत में कमी अवश्य आती है,परंतु उपरोक्त दुष्परिणामों के कारण इस कदम की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह लगता है। यह जरूरी है कि शराब से जनता को विमुख किया जाए। जस्टिस मार्कंडेय काटजू का कहना है कि उपयुक्त समय, मात्रा एवं सानिध्य में शराब के सेवन में गड़बड़ी नहीं है। मैं इससे सहमत नहीं हूं। जहर लेना हानिप्रद ही होता है चाहे छोटी मात्रा में लिया जाए। भारत के लिए शराब विशेषकर हानिप्रद है। श्री अरविंद जैसे मनीषियों ने कहा है कि विश्व में हमारी भूमिका अध्यात्म की होगी। थोड़ी मात्रा में भी शराब पीने से हमारी आध्यात्मिक भूमिका में थोड़ा ह्रास होगा जो स्वीकार नहीं है।
शराब की समस्या का हल नैतिक मनुहार है। जैसे समाज में मान्यता है कि चोरी नहीं करनी चाहिए। इस मान्यता के स्थापित होने के बाद पुलिस चोर को पकड़ने में कुछ सफल होती है। दूसरी तरफ सरकारी कर्मी को घूस देकर अपना उचित काम शीघ्र करा लेना स्वीकार है। इसलिए हर सरकारी दफ्तर में तमाम कर्मियों के भ्रष्ट होने पर भी पुलिस उन पर कार्रवाई नहीं कर पाती है। यहां मुस्लिम देशों की नीति सफल दिखती है। उन्होंने पहले धार्मिक एवं सामाजिक स्तर पर शराब सेवन की निंदा की। उसके बाद शराबबंदी का कानून बनाया तो सफल हुआ। जब काटजू जैसे विद्वान शराब पीने को उचित ठहराते हैं तब इसका अर्थ होता है कि सामाजिक मान्यता में शराब पीना स्वीकार है। ऐसे में शराब पर कानूनी प्रतिबंध लगाना निष्प्रभावी होगा। सरकार को चाहिए कि शराब और ड्रग्स के सेवन से होने वाले दुष्परिणामों पर नैतिक अभियान चलाए। इसमें धर्म का सहारा लेना चाहिए। साधुओं, मुल्लाओं और पादरियों के सहयोग से यह अभियान चलाना चाहिए। धर्म और समाज को जोड़ना चाहिए। सेक्युलरिज्म को त्यागना चाहिए। साथ-साथ झुग्गी में रहने वाले गरीब लोगों के जीवन स्तर को सुधरना होगा जिससे उनके लिए शराब का सेवन करना जरूरी न रह जाए। इसके बाद शराबबंदी लागू की जाए तो सार्थक हो सकती है।
[ लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]