इन दिनों केंद्र सरकार के साथ-साथ बिहार सरकार भी चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह की तैयारी कर रही है। केंद्र द्वारा इस विशेष अवसर पर एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन किया जा रहा है। बिहार सरकार भी अपने स्तर पर चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह की तैयारी जोर-शोर से कर रही है। वह गांधी शांति प्रतिष्ठान से भी सहयोग ले रही है। तमाम तरह के आयोजन के बीच गांधी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने की भी योजना है। आगामी 10 अप्रैल का दिन चंपारण और बिहार के साथ देश-दुनिया के लिए भी एक अविस्मरणीय दिन होगा, क्योंकि सौ वर्ष पहले इसी दिन 48 वर्षीय मोहन दास करमचंद गांधी ने चंपारण पहुंच कर एक क्रांति की नींव रखी थी। उन्होंने चंपारण और आसपास के इलाके में रहकर जो कुछ किया उससे सारे देश को परिचित होने की जरूरत है।

वर्ष 1914 का समय चंपारण के किसानों के लिए लूट, जुल्म और शोषण का सामना करने वाला था। पश्चिम की औद्योगिक क्रांति के बाद नील की मांग बढ़ जाने के कारण ब्रिटिश सरकार ने यहां के किसानों पर केवल नील की ही खेती करने का दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया। यहां के जनजीवन में सामाजिक एवं बौद्धिक चेतना का अभाव पहले से निहित था। गरीबी, निरक्षरता और अंग्रेजी हुकूमत का भय उन्हें पनपने नहीं दे रहा था। 1916 के एक आंकड़े के अनुसार लगभग 21900 एकड़ जमीन के हजारों किसानों से तरह-तरह के करीब 46 प्रकार के टैक्स वसूले जाते थे। टैक्स वसूली का तरीका बर्बर था। लंबे समय से संघर्षरत किसानों का सब्र लगभग टूट चुका था। गांधीजी आखिरी औजार बचे थे। पीड़ित किसानों के अनुरोध पर अप्रैल 1917 को गांधी के मोतीहारी आगमन ने चंपारण के किसानों में आत्मविश्वास जगाने का काम किया।

दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधीजी द्वारा यह पहला महत्वपूर्ण काम था। इस ऐतिहासिक संघर्ष में राजेंद्र बाबू, अनुग्रह नारायण सिंह, ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह, आचार्य कृपलानी समेत चंपारण के किसानों ने अहम भूमिका निभाई। चंपारण के लगभग 2900 गांवों के 13000 किसानों की स्थिति का जायजा गांधी ने स्वयं लिया। नतीजन एक माह के अंदर एक जांच कमेटी का गठन हुआ और अगस्त में एक अमानवीय प्रथा-तीनकठिया समाप्त कर दी गई। चंपारण के लोगों के लिए यह बहुत बड़ी राहत थी। गांधीजी ाके अहिंसक और सत्याग्रही आंदोलन के चलते मार्च 1918 में चंपारण एग्रेगेरियन बिल पर गवर्नर जनरल के हस्ताक्षर हुए और सारे अवैध कानून समाप्त हो गए। इस बड़ी घटना ने राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के पथ प्रशस्त करने के साथ ही गांधी का कद और बड़ा कर दिया। खासकर चंपारण के लोगों के लिए गांधीजी एक मसीहा बन गए। उनकी अगुआई वाला यह आंदोलन न सिर्फ नील किसानों की समस्या का त्वरित हल साबित हुआ, बल्कि उसने सत्य के साथ आग्रह करने के चलन को भी जन्म दिया।

गांधी के बिहार आगमन का असर सिर्फ नील किसानों पर ही नहीं, बल्कि वहां की शिक्षा व्यवस्था पर भी पड़ा। चंपारण में सत्य, अहिंसा और प्रेम के संदेश ने देशवासियों को एकजुट कर देश के बाहर भी गांधीवादी क्रांति का प्रवाह तेज करने का काम किया। चूकि चंपारण सत्याग्रह की भूमि बिहार प्रदेश से जुड़ी है इसलिए राज्य सरकार उन तमाम संभावनाओं की तलाश में है जिससे मौजूदा गांधी सर्किट को बढ़ावा दिया जा सके। सत्याग्रह गांधीजी का दिया हुआ वह औजार है जिसमें दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यवाद से लोहा लेने की ताकत निहित थी। चंपारण सत्याग्रह की सफलता से पूरा विश्व परिचित है, लेकिन इसे फिर से देश-दुनिया को अवगत कराने की जरूरत है। गांधी ने चंपारण में जिन मुद्दों को अपने हाथों में लिया वे लगभग पूरे विश्व के मुद्दे थे।

चंपारण के बाद 1918 में अहमदाबाद मिल के मजदूरों की समस्या और खेड़ा के किसानों के आंदोलन के लिए भी गांधीजी को याद किया जाता रहा है। यह बहुत लंबी, मुश्किल और अहिंसक प्रक्रिया थी जिसने देश को आजाद कराने में अहम भूमिका निभाई। आज गांधी भारतीय अस्मिता के प्रतीक हैं। उनके पदचिन्हों पर चलने का दावा न सिर्फ सभी सरकारें करती हैं वरन वैश्विक मंचों से भी गांधीवादी ताकतों की गूंज सुनाई देती है। इसके बावजूद यह चिंता की बात है कि आज गांवों से पलायन और गांव-शहर के बीच असमान विकास के प्रश्न गौण हो गए हैं। पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष किसान आत्महत्या 36 फीसदी बढ़ी है। केंद्र और राज्य सरकारों के बजट एक दिनचर्या की प्रक्रिया मात्र रह गई है। चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष में सभी राजनीतिक दलों और सरकारों को यह संकल्प लेना चाहिए कि भूख, गैर बराबरी, कर्ज के बोझ से हो रही आत्महत्याओं को रोकने का काम किया जाएगा। चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह की तैयारी के साथ ऐसा संकल्प लेने का भी उपक्रम हो तो और बेहतर।

(लेखक केसी त्यागी जनता दल-यू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)