शर्मिष्ठा मुखर्जी

राष्ट्रपति के रुप में बाबा यानी मेरे पिता प्रणव मुखर्जी अपने पांच साल का कार्यकाल पूरे करने जा रहे हैं तो बचपन से लेकर अभी तक की उनकी असंख्य न भूलने वाली यादों का सिलसिला थम नहीं रहा। इन यादों को कहां से शुरू करूं, यह तय करना आसान नहीं फिर भी बात बाबा के राष्ट्रपति पद की शपथ से करना मुनासिब होगा। यह हमारे परिवार की जिंदगी का सबसे यादगार पल था जब बाबा ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली और बाहर तोपों की गूंज उनको सलामी दे रही थी। यह हम सबके लिए इतना भावुक पल था कि मेरी मां सहित पूरा परिवार खुशी से रो रहा था। पहली बार राष्ट्रपति भवन पहुंचने का भावुक पल हम ताउम्र नहीं भूल पाएंगे। हमारे लिए यह मामूली बात नहीं थी, क्योंकि पश्चिम बंगाल के एक गांव के साधारण परिवार से भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचने के बाबा के सफर के दृश्य हम सबके दिलो-दिमाग में उमड़-घुमड़ रहे थे। मुझे इस पर खास गर्व हो रहा था कि बाबा जिस मुकाम तक पहुंचे वह सब उनके अध्ययन और मेहनत का नतीजा था। उनके इस परिश्रम की शुरुआत स्कूल जाने के समय से ही हो गई थी। हमारे गांव से स्कूल करीब 10 किलोमीटर दूर था। बाबा रोज पैदल चलकर स्कूल आते-जाते थे।
राजनीति में आने के बाद बाबा की काबिलियत और मूल्यों के प्रति निष्ठा की वजह से ही इंदिरा गांधी ने उन्हें सपोर्ट किया। हमारा परिवार इसके लिए ईश्वर का आभार मानता है कि बाबा गांव से चलकर रायसीना हिल्स के शिखर तक पहुंचे। मैंने बचपन से ही बाबा को हमेशा जी-तोड़ मेहनत करते हुए देखा है। मैंने उन पर देश के लिए काम और सेवा करने का एक तरह का नशा सा छाया देखा। उन्हें अगर ‘वर्कहोलिक’ कहा जाता है तो इस पर हैरानी नहीं। मेरी समझ से बीते 25 साल से उन्होंने कोई छुट्टी नहीं ली है, सिवाय दुर्गापूजा के अवसर पर तीन-चार दिन अपने गांव पूजा के लिए जाने के अलावा। काम से फुर्सत मिलते ही पढ़ना उनका प्रिय शगल है। इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति और संविधान के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय कूटनीति से लेकर महान शख्सियतों के बारे में पढ़ना उनकी आदत का हिस्सा है। किताबें पढ़ने के अलावा बाबा को अपनी डायरी लिखना भी पसंद है। वह पिछले कई दशक से रोजाना अपनी डायरी लिख रहे हैं। वह चाहे कितने भी व्यस्त रहें, सोने से पहले फुर्सत निकालकर वह यह काम अवश्य करते हैं। मुझे इसका गर्व है कि बाबा ने इस डायरी का उत्तराधिकारी मुझे बनाया है। उन्होंने यह भी तय किया है कि वह अपने जीवनकाल में इस डायरी के पन्ने किसी को खोलने नहीं देंगे।
राष्ट्रपति भवन की इमारत के हर कमरे और कोने में बाबा इतिहास को पढ़ते-समझते और ढूंढ़ते रहे। जैसे जिस राउंड टेबल पर बैठकर देश के विभाजन का फैसला हुआ उससे लेकर पहली कैबिनेट बनने और गांधीजी के बैठने की जगह तक राष्ट्रपति भवन के हर कोने में बाबा ने इतिहास को झांका है। वह इस भव्य इमारत के हर भाग को आजाद भारत के इतिहास की धरोहर के रूप में देखते हैं। राष्ट्रपति भवन में आने के बाद बाबा ने यहां काफी कुछ नई चीजें शुरू कीं और उन्हें लेकर खासे संजीदा भी रहे। जब राष्ट्रपति भवन को उन्होंने आम जनता के लिए खोला तो शुरू में हर महीने इसकी जानकारी खुद लेते थे कि कितने लोग आते हैं? मुगल गार्डन में पिछले साल के मुकाबले कितने अधिक लोग इस साल उसे देखने आए, यह जानकर उनकी खुशी बढ़ जाती है। अब जब उनके राष्ट्रपति भवन से विदा लेने का समय आ रहा है तो मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती और जिम्मेदारी उनके अध्ययन कक्ष को संवारने और उनकी किताबें सहेज कर रखने की है। यह मेरे लिए कम दिलचस्प नहीं है कि बाबा के मिजाज को अधिकांश लोग गुस्से वाला मानते हैं, मगर इसके उलट मेरी मां अधिक गुस्से वाली थीं। बचपन से लेकर बड़े होने तक भी वह हमें खूब डांटती थीं, जबकि बाबा अपने शांत स्वभाव का परिचय देते रहे। बचपन से अब तक उनके इस रूप में मैंने बहुत बदलाव नहीं देखा। मुझे याद है कि बचपन में वह दुलार तो हमें खूब करते थे, मगर ऐसा नहीं कि सिर चढ़ा लें। जब मैं छोटी थी तो अपना लाड़-प्यार जाहिर करने के लिए वह मुझे सोना, पच्चु जैसे संबोधन की बजाय बंदर कहते थे। इस संबोधन में अभिव्यक्त उनके स्नेह को मैं खूब समझती थी। हमारे परिवार का माहौल भी लोकतांत्रिक ही रहा और बचपन से ही हमें हर मसले पर अपनी बातें और विचार रखने की खुली छूट रही। अनुचित बातों पर वह कभी-कभी गुस्से से लाल जरूर हो जाते हैं।
मुझे जबसे याद है तबसे मैंने बाबा को बड़ी शख्सियत के तौर पर देखा। उन्होंने हमें कभी भी राजनीति या पद के प्रभाव का इस्तेमाल करने की छूट नहीं दी। जब मैं 12वीं में थी तभी उन्होंने साफ कर दिया था कि अगर अच्छे नंबर नहीं आए तो बेहतर कालेज में एडमिशन नहीं मिलेगा, क्योंकि वह किसी से कोई पैरोकारी नहीं करेंगे। यह उस वक्त की बात है जब वह देश के वित्तमंत्री थे। उन्होंने राजनीति और सरकार के मामलों से हमें हमेशा दूर रखा। बाबा राष्ट्रपति भवन में आने के बाद भी मिठाई के अपने शौक को नहीं भूले। बंगाल की मिठाईयों के अलावा उन्हें बांग्लादेश की मिठाईयां भी अच्छी लगती हैं। मिठाई खाना ही नहीं, बल्कि संविधान की तरह उनके हर पहलू को जानना भी उनकी रुचि का हिस्सा है। कोई मिठाई सबसे पहले किसने, कब और कहां बनाई? यह सब जानने के अलावा वह यह भी पता करते थे कि वह कहां-कहां मिलती है और सबसे अच्छी कहां उपलब्ध है? यह सब उनकी स्मृतियों का हिस्सा होता है। अब जब वह राष्ट्रपति भवन से विदा लेने वाले हैं तो मैं आश्वस्त हूं कि अपनी मीठी स्मृतियों के साथ वह आगे की जिंदगी के सफर की रचनात्मक दिशा आसानी से तय कर लेंगे।
[ संजय मिश्र से बातचीत पर आधारित ]