गत वर्ष नवंबर में मोदी सरकार के विमुद्रीकरण के फैसले को देखते हुए यह बजट भारतीय अर्थव्यवस्था के ऐतिहासिक पलों में पेश किया गया है। एक तरफ जहां विश्व में विभिन्न सरकारें संरक्षणवाद का रास्ता अपना रही हैं तब यह जरूरी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अपने विकास की दर को दोहरे अंकों में ले जाने के लिए घरेलू उपभोग पर अपना ध्यान केंद्रित करे। इस संदर्भ में इस बजट में लीक से हटकर कई फैसले किए गए हैं। उदाहरण के लिए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने, टैक्स आधार का विस्तार करने, युवाओं की शिक्षा में निवेश करने और डिजिटल अर्थव्यवस्था के लिए ढांचा खड़ा करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
हालांकि मेरी प्रमुख चिंता बजट में बैंकिंग सेक्टर को बदहाली से निकालने पर कम ध्यान दिए जाने को लेकर है। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बैंकिंग सेक्टर को अर्थव्यवस्था का दिल माना जाता है। जाहिर है, यदि दिल का हाल बेहाल होगा तो अर्थव्यवस्था तरक्की की राह पर उम्मीद के अनुरूप आगे नहीं बढ़ सकती है। यद्यपि अगस्त 2015 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए सतरंगी सुधार के प्रस्तावों की घोषणा की गई थी, लेकिन तब से सरकार की ओर से इस संबंध में न के बराबर कदम उठाए गए हैं। बजट में भी इस संदर्भ में कुछ नहीं कहा गया है। इससे इस आशंका को बल मिल रहा है कि सुधारवादी प्रस्तावों पर अमल नहीं किया जा रहा है और उन्हें जमीन पर उतारने में सरकार की शायद अब उतनी दिलचस्पी नहीं रह गई है।
ये सतरंगी सुधारवादी कदम पीजे नायक समिति की रिपोर्ट पर आधारित थे, जिसने सार्वजनिक बैंकों के बोर्ड के कामकाज में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया था। इस सुधार की प्रासंगिकता अभी भी ज्यों की त्यों बरकरार है, क्योंकि अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बोर्ड बैंकों की मौजूदा समस्याओं को लेकर न सिर्फ अनजान हैं, बल्कि उनमें गंभीरता का अभाव है। बोर्ड प्रशासन बहुत ही कमजोर है और यही वजह है कि गैर निष्पादित संपत्तियों यानी बैंकों के फंसे हुए कर्ज में इजाफा हो रहा है। पीजे नायक समिति ने कहा है कि बैंकिंग सेक्टर की इस प्रणालीगत खामियों को दूर करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को सरकार और नौकरशाही से दूरी बनानी होगी। यह बहुत ही उत्तम विचार है। साथ ही समिति ने सुझाव दिया है कि सरकार भी स्वयं को विभिन्न सरकारी बैंकों के कामकाज से दूर करे। इस संबंध में उसका कहना है कि 1970 और 1980 के बैंक राष्ट्रीयकरण कानून, एसबीआइ कानून और एसबीआइ (सहायक बैंक) कानून को खत्म किया जाए और सभी बैंकों को कंपनी कानून के तहत लाया जाए। एक बैंक इन्वेस्टमेंट कंपनी (बीआइसी) का गठन किया जाए और सरकार को बैंकों में अपनी हिस्सेदारी और शक्तियों को इसे सौंप देना चाहिए। इस संबंध में समिति द्वारा तीन चरणों वाली प्रक्रिया का उल्लेख किया गया था। पहले चरण में जब तक बीआइसी आकार नहीं ले लेती तब तक वरिष्ठ बैंकरों से मिलकर बने बैंक बोर्ड ब्यूरो (बीबीबी) को अध्यक्ष और कार्यकारी निदेशकों सहित सभी बोर्ड संबंधी नियुक्तियों पर सलाह देनी चाहिए। दूसरे चरण में यह अधिकार बीआइसी के हाथों सौंप देना होगा, जो बैंकों के बोर्ड को पेशेवर बनाने का प्रयास करेगी। तीसरे और अंतिम चरण में बीआइसी को भी अपनी विभिन्न ताकतों को बैंकों के बोर्ड को सौंपनी होगी।
देखा जाए तो यह बजट बैंकिंग क्षेत्र को साफ-सुथरा बनाने का एक मौका चूक गया। पहला, इसमें बैंकों की बदहाली के बारे में जिक्र नहीं किया गया है, जिसको लेकर आर्थिक सर्वेक्षण में वकालत की गई थी। विदेशी और घरेलू निवेश की मंजूरी के जरिये परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनियों के लिए पूंजी जुटाने के वास्ते जो प्रयास किए गए उसमें भी कोई सफलता नहीं मिली और आगे भी कोई संभावना नहीं दिख रही है। सरकारी बैंक अपने एनपीए को रियायती दर पर बेचना नहीं चाहते हैं, जो कि इन संपत्तियों की गुणवत्ता को देखते हुए जरूरी है। अभी की व्यवस्था में बैंकिंग बोर्ड के अध्यक्ष को इस तरह के मामले में बड़े फैसले लेने की गुंजाइश कम है। इसके विपरीत मौजूदा प्रशासनिक ढांचा भ्रष्टता को प्रोत्साहित कर रहा है। दूसरा, बीआइसी में विधायी सुधार की जरूरत है। इनमें बैंक राष्ट्रीयकरण कानून और बैंकिंग विनियमन कानून में सुधार भी शामिल हैं। बजट भाषण में बैंक निवेश कंपनी का जिक्र न किए जाने से यह उजागर हो गया है कि नायक समिति द्वारा शासन में सुधार की सिफारिशों को लागू करना सरकार के एजेंडे में नहीं है। लिहाजा इससे यह भी साफ हो गया है कि मौजूदा शासन व्यवस्था के तहत सरकारी बैंकों में वास्तविक सुधार होने की कोई संभावना नहीं है।
तीसरे, कम लोगों को पता है कि अपनी स्थापना से लेकर अब तक बैंक बोर्ड ब्यूरो ने क्या किया है? बीआइसी की स्थापना होने तक बैंक ब्यूरो को सरकारी बैंक के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों को चुनने की प्रक्रिया को अंतरिम रूप से पूरी कर लेनी चाहिए थी, लेकिन अव्यवस्था पहले की तरह ही कायम रही। सरकारी बैंक बोर्ड में साफ-सफाई की प्रक्रिया एक पूर्णकालिक काम है और चौकीदार की तर्ज पर मुस्तैद रहकर ही इसे अंजाम दिया जा सकता है। बैंक बोर्ड में सुधार के लिए नायक समिति के सिफारिशों की भावना का पालन करना होगा। हरभजन सिंह जो गेंदबाजी में माहिर हैं, लेकिन अगर उनसे शीर्ष क्रम में बल्लेबाजी की जिम्मेदारी निभाने को कहा जाए तो क्या होगा? हरभजन इस जिम्मेदारी को निभा तो सकते हैं, लेकिन उनकी बल्लेबाजी में वह धार नहीं होगी जो उनकी गेंदबाजी में है। इसी तरह कैग की जिम्मेदारी संभाल चुके विनोद राय एक अच्छे निगरानीकर्ता हो सकते हैं, लेकिन वह बैंकर नहीं हैं। इसलिए बैंकिंग क्षेत्र की तिकड़मबाजियों के बारे में उनसे जानने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। सरकारी बैंकों में सुधार के लिए बीबीबी में नौकरशाहों या गैर बैंकर व्यक्ति को नियुक्त करना चाहिए। देखा गया है कि सरकारी बैंकों में बड़े पैमाने पर जमा के कारण अंधाधुंध तरीके से कर्ज बांटे गए। इसकी वजह से एनपीए बढ़ गया और बैंकिंग प्रणाली दबाव में आ गई। सरकारी बैंकों में जब तक सुधार नहीं किया जाएगा तब तक यह सिलसिला चलता रहेगा। यह सिलसिला इसलिए भी आगे बढ़ता रहेगा क्योंकि विमुद्रीकरण के कारण सरकारी बैंकों में बड़े पैमाने पर रुपये जमा किए गए हैं। उम्मीद है कि सरकार बीमार बैंकिंग क्षेत्र को उबारने की आवश्यकता महसूस करेगी। इस तरह की पहल मुद्रा बैंक, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया या स्टार्टअप की तरह ही दूसरे अन्य मोर्चों पर प्रोत्साहन वाली साबित होगी।
[ लेखक कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यन, वित्तीय मामलों के विशेषज्ञ और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस, हैदराबाद में एसोसिएट प्रोफेसर हैं ]