अद्वैता काला

आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के जनादेश का कई पैमानों पर विश्लेषण किया जा रहा है, मगर इनमें महिलाओं की भूमिका के महत्वपूर्ण मसले को उतनी अहमियत नहीं दी जा रही है। यह बड़ी साधारण सी बात है और मतदाताओं के साथ-साथ चुनी हुई जनप्रतिनिधियों के रूप में महिलाओं की अनदेखी को ही दर्शाता है। अफसोस की बात है कि मौजूदा दौर के राजनीतिक विमर्श पर भी यही बात लागू होती है जहां प्रगतिशील वार्ताओं में ‘महिला सशक्तीकरण’ पर जोर तो बहुत दिया जाता है, लेकिन चुनावी राजनीति में महिलाओं की भूमिका की अनदेखी होती है जो मुद्दा समावेशी राजनीतिक विमर्श में और कमजोर हो जाता है। पिछले हफ्ते मेरी मुलाकात एक नामचीन राजनीति विज्ञानी से हुई। उन्होंने हाल में ही चुनावी नतीजों का गहन विश्लेषण किया है जिसमें यही बात उभरकर ई कि लोगों ने जाति-बंधनों से मुक्त होकर वोट दिया। मगर इन चुनावों में ऐसा भी कुछ हु जिसने हाल के दौर में पहचान धारित राजनीति पर इससे पहले कभी इतनी तगड़ी चोट नहीं की। यह बात और है कि सियासी पंडित उसी पुराने गुणा-भाग में उलझकर इसे नजरअंदाज करते नजर रहे हैं। वह यही कि इस बार उत्तर प्रदेश विधानसभा में विभिन्न दलों के माध्यम से सर्वाधिक 38 महिला विधायक चुनकर आयी हैं। फिर भी ‘प्रगतिशील तबके’ तक में इस पर कोई चर्चा नहीं कि महिलाओं ने राजनीतिक मोर्चे पर ऐसी उपलब्धि हासिल की है। वैसे हमें यह नहीं नकारना चाहिए कि यह चुनाव और जनादेश उनके लिए न्यायसंगत रहा है जो अधिक समावेशी सहभागिता के द्वार खोलता है। मेरे प्रशंसाभाव पर भी शायद उतना गौर नहीं किया जाएगा, क्योंकि अभी भी ऐसे मामले देखने को मिलते हैं जहां महिलाओं ने अपने परिवार में दूसरे पुरुषों के प्रतिनिधि के तौर पर ही चुनाव लड़ा, लेकिन तमाम ऐसी महिलाएं भी रहीं जिन्होंने सीमित अवसरों के बावजूद पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा। फिर आंकड़ों की बारी ती है जो भले ही उतने उत्साहजनक नहीं लगते हों, लेकिन वे अतीत की तुलना में काफी बेहतर हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में 63.26 प्रतिशत महिलाओं के मुकाबले पुरुषों में 59.43 प्रतिशत मतदाताओं ने ही मताधिकार का इस्तेमाल किया। महिला मतदाताओं की संख्या में भी इजाफा हु। ऐसा केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि पड़ोसी उत्तराखंड में भी हु जहां महिलाएं अधिकारों को लेकर खासी मुखर मानी जाती हैं और तकरीबन 16 साल पहले राज्य गठन के लिए चलाए अभियान में उनके ये तेवर नजर भी ए थे। हालांकि ये आंकड़े स्पष्ट रूप से पुष्ट करते हैं कि भले ही महिलाओं को राजनीति में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिलता हो, लेकिन वे एक निर्णायक राजनीतिक वर्ग हैं। विश्व र्थिक मंच की वैश्विक लैंगिक अंतर रिपोर्ट, 2016 के अनुसार यह मौजूदगी प्रतिनिधित्व में रूपांतरित नहीं हो रही है। राजनीति, र्थिकी, स्वास्थ्य एवं शिक्षा में व्यापक प्रतिनिधित्व के पैमाने पर 144 देशों की इस सूची में भारत 87वें स्थान पर रहा। राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्रों में महिलाओं को लेकर लुभावने वादों की ड़ में दोहरा चरित्र ही दिखाते हैं। वे मतदाताओं के रूप में तो महिलाओं की अहमियत मानते हैं, लेकिन विधायी एवं राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में महिलाओं को भागीदार के रूप में मान्यता देने से कतराते हैं। यह एक तरह का छल-कपट है जो यथास्थिति बरकरार रखते हुए हमें दुखी करता है और इस पर पुरुष नेताओं से टीका-टिप्पणियों में बहस होती है। यहां तक कि राज्यसभा में भी यह देखने को मिलता है जहां यह भेदभाव काफी ज्यादा है। उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने वाले 322 दलों में केवल भाजपा ने ही सर्वाधिक महिला उम्मीदवारों को टिकट दिए, फिर भी पार्टी के प्रत्याशियों में महिलाओं की हिस्सेदारी महज 11 प्रतिशत ही रही। इस मामले में वह कांग्रेस जैसी खुद को ‘प्रगतिशील’ बताने वाली पार्टी से गे रही जिसके कुल प्रत्याशियों में केवल 5 प्रतिशत ही महिलाएं थीं। चुनावी मुकाबले में टिके मुख्य दलों में इकलौती बड़ी महिला नेता मायावती भी मुख्य रूप से अपराधियों और करोड़पति उम्मीदवारों के दम पर ही सत्ता में ने की सोच रही थीं। कुल मिलाकर निर्णायक मतदाता वर्ग होने के बावजूद यह अभी तक महिलाओं के लिए अधिक प्रतिनिधित्व के रूप में परिणित नहीं हो पा रहा है। हालांकि महिलाओं को भले ही अपनी वाज बुलंद करने के लिए अभी भी सही मंच की तलाश है, लेकिन उन्हें अपने मत की अहमियत जरूर मालूम पड़ी है। तीन तलाक के मुद्दे की ही तरह प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना भी महिला मतदाताओं को खामोशी से लुभाने में सफल हुई। इसके तहत बीपीएल कार्ड धारक गरीब परिवारों को मुफ्त रसोई-गैस मिलती है। महिलाएं इस योजना की सबसे बड़ी लाभार्थी हैं लिहाजा उन्होंने जाति और धर्म की दीवारों को लांघकर मतदान किया। नए मुख्यमंत्री ने लोकसभा में दिए अपने विदाई भाषण में उज्ज्वला योजना के प्रभाव का उल्लेख भी किया कि इसने गरीब महिलाओं को अपने घर का चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी बीनने की मुश्किल से निजात दिलाई। सवाल उठ सकता है कि करोड़ों महिलाओं के दुखों को दूर करने के लिए एक स्वाभाविक एवं ‘सान’ निदान तलाशने में इतनी देरी क्यों हुई? इस सवाल का जवाब महिलाओं के लिए प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता में छिपा है। जरा लाल किले के प्राचीर से दिए उनके पहले भाषण को याद कीजिए जिसमें उन्होंने कहा था कि माता-पिता अपनी बेटियों के बजाय अपने बेटों से सवाल क्यों नहीं करते। यह उस पितृसत्तात्मक मानसिकता को खुली चुनौती थी जो महिलाओं के विकास और जादी में बाधक बनती है। बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ योजना को खासी प्रमुखता दी गई तो उसी तरह खुले में शौच के खिलाफ एक अभियान छेड़ा गया जो मुद्दा महिलाओं के जीवन में सेहत और सुरक्षा से सीधा जुड़ा हु है। इन कदमों के सुखद परिणाम भी मिलने लगे हैं जब हरियाणा के मुख्यमंत्री ने हाल में कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ उत्साहवर्धक ंकड़े पेश किए जिस कुरीति ने राज्य में महिलाओं की बादी काफी घटाई है। मीडिया से अपनी पहली बातचीत में उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री ने महिला सुरक्षा का उल्लेख किया। लोगों की स्मृतियों में बुलंदशहर में हुए दुष्कर्म की वीभत्स यादें अभी तक कायम हैं और वे यह भी नहीं भूले कि जम खान जैसे वरिष्ठ मंत्रियों की उस पर क्या प्रतिक्रिया थी जिसने महिला सुरक्षा को लेकर राज्य में तंत्र की उदासीनता को ही दर्शाया। नई सरकार के राज में यह निश्चित रूप से परिवर्तित होना चाहिए। 1यह काफी हौसला बढ़ाने वाली बात है कि नई सरकार इसे गंभीर प्राथमिकता के तौर पर ले रही है, लेकिन हमेशा करनी कथनी से बड़ी नजर नी चाहिए। खासतौर से ऐसे राज्य में जहां ऐसी तस्वीरें लोगों की स्मृतियों में कैद हों कि एक महिला सपा नेता की गाड़ी पर चढ़ गई थी जो उनके काफिले द्वारा उनके साथ छेड़छाड़ करने पर माफी मांगने को कह रही थी। यह राज्य में महिलाओं की बेचैनी को बयान करता है। यह बताने की जरूरत नहीं कि प्रशासन का ऐसे व्यवहार को लेकर मौन समर्थन रहा है। नई सरकार के लिए जरूरी होगा कि वह राज्य में महिलाओं की इन प्रतिक्रियाओं पर ध्यान दे और जनादेश पर संतुष्ट होकर न बैठे। चुनावों में ऐसी ऐतिहासिक जीत उनकी सहभागिता और वोटों के बिना संभव नहीं थी और महिलाओं को प्रभावित करने वाली नीतियों और योजनाओं ने ही इतनी बड़ी तादाद में उनके वोट दिलाए।

(लेखिका जानी-मानी पटकथा लेखक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)