भगवान श्रीकृष्ण के संदेश को मानने वाला व्यक्ति जातियों या योनियों में भेद नहीं मानता। मनुष्य-मनुष्य के मध्य भिन्नताएं हो सकती हैं। योनि के अनुसार कुत्ता, गाय और हाथी भिन्न हो सकते हैं, किंतु विद्वान योगी की दृष्टि में ये शरीरगत भेद अर्थहीन होते हैं। इसका कारण परमेश्वर से उनका संबंध है और परमेश्वर हरेक के हृदय में स्थित हैं। परमसत्य का ऐसा ज्ञान वास्तविक ज्ञान है। जहां तक विभिन्न जातियों या विभिन्न योनियों के मध्य शरीर का संबंध है, भगवान सभी लोगों पर समान रूप से दयालु है। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह प्रत्येक जीव को अपना मित्र मानते हैं। फिर भी जीवों की समस्त परिस्थितियों में वह अपना परमात्म स्वरूप बनाए रखते हैं। परमात्मा रूप में भगवान चांडाल और ज्ञानी व्यक्ति इन दोनों में ही उपस्थित रहते हैं। हालांकि इन दोनों के शरीर एक से नहीं होते। शरीर तो प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्न हुए हैं, किंतु शरीर के भीतर आत्मा और परमात्मा समान आध्यात्मिक गुण वाले हैं, परंतु आत्मा और परमात्मा की यह समानता उन्हें मात्रात्मक दृष्टि से समान नहीं बनाती। ऐसा इसलिए, क्योंकि व्यष्टि आत्मा किसी विशेष शरीर में उपस्थित होता है, किंतु परमात्मा प्रत्येक शरीर में है। कृष्णभावना से भावित व्यक्ति को इसका पूर्णज्ञान होता है इसीलिए वह सचमुच ही विद्वान और समदर्शी होता है। आत्मा और परमात्मा के लक्षण समान हैं। परमात्मा बिना किसी भेदभाव के सभी शरीरों में विद्यमान है।
मानसिक रूप से समतामूलक विचार आत्म-साक्षात्कार का लक्षण है। जिन लोगों ने ऐसी अवस्था प्राप्त कर ली है तो उन्हें भौतिक बंधनों पर विजय प्राप्त किया हुआ मानना चाहिए। जब तक मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानता है, वह बंधन में रहने वाला जीव माना जाता है, किंतु ज्यों ही वह आत्म-साक्षात्कार द्वारा समचित्तता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह बंधन से मुक्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसे इस भौतिक जगत में जन्म नहीं लेना पड़ता, बल्कि अपनी मृत्यु के बाद वह आध्यात्मिक लोक को जाता है। भगवान निर्दोष हैं, क्योंकि वे आसक्ति और घृणा से रहित हैं। इसी प्रकार जब जीव आसक्ति या घृणा से रहित होता है तो वह भी निर्दोष बन जाता है और समस्त प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
[ एसी भक्तिवेदांत प्रभुपाद जी ]