क्षमा शर्मा

आजकल ग्लैमर की दुनिया से लेकर साहित्य की दुनिया तक बताया जा रहा है कि औरतों तुम बस एक शरीर और देह भर हो। पहले घूंघट और बुर्के में तुम सिर्फ घर के पुरुषों की देह थीं और अब तुम एक सार्वजनिक देह हो। तुम चाहो भी तो हम तुम्हें इससे बाहर नहीं निकलने देंगे। तुम्हारी अस्मिता और तुम्हारी पसंद तय करने का ठेका हमने ले रखा है और देखो किस आनंद से बराबरी, लैंगिक समानता और न्याय जैसे रागों को गाकर हमने अपने उत्पादों से तुम्हारी संपूर्ण देह को लबरेज कर दिया। कौन-सा शैंपू लगाओ, कौन-सी कार चलाओ, कौन-सा मोबाइल, कौन-सा घर, कौन-सा कपड़ा, कौन-सी घड़ी पहनो कि आज की औरत कहलाओ और आज के नारीवाद का प्रतीक बनो। हम बताएं कि तुम कहो यही आजादी है। यही तुम्हारा ब्रांड है। आजादी को ब्रांड के मकड़जाल से जोड़ने के बाद तुम्हारा क्या होता है? यह तुम ही जानो। पर्स में पैसे हों तभी तक कोई ब्रांड आजादी देता है वरना तू कौन और मैं कौन। आज की आजाद औरत की छवि इस तरह बना दी गई है कि वही औरतें आजाद हैं जो अपने शरीर के विभिन्न कोणों पर लदे हजारों-लाखों किस्म के उत्पादों से रात-दिन लबरेज हैं। उनकी आजादी की असली पहचान यह है कि वे कितनी आकर्षक दिखती हैं। वे कितने पुरुषों में यह कामना जगा सकती हैं कि वे कब उन्हें अपनी सहगामिनी बनाएं? देह के कोड़े से कभी शुचिता और पवित्रता के नाम पर कभी बेवफाई के नाम पर औरत को हमेशा पीटा गया है। उसकी देह को शास्त्रों ने अगर नरक की खान कहा तो आज मुनाफाखोरों ने सिर से पांव तक उसे उसी खाई में धकेला है जिससे निकलने के लिए वह सदियों से छटपटा रही है। सिर से पांव तक वह तरह-तरह के कोकशास्त्रों को झेल रही है। छरहरी काया की कामना कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है जिसे जीरो फिगर का नाम दिया गया है। यह आज की औरत की असली तस्वीर बताई जा रही है। आम लड़कियों को उनकी अस्मिता, उनके अधिकारों और उनकी प्रतिरोध की आवाज कहकर बेचा जा रहा है। मगर अफसोस और उससे भी ज्यादा अचरज की बात यही है कि स्त्रियों पर आकर्षक दिखने का जो ठप्पा लगाया जा रहा है उसे ही स्त्री मुक्ति कहा जा रहा है। एक औरत होशियार हो सकती है। उसके पास बड़े-बड़े बुद्धिमानों को पछाड़ने का दिमाग, ताकत और हुनर भी होता है, लेकिन यह बात देहवाद के शोर में पीछे धकेल दी गई है।
ये खाए-अघाए मध्यम वर्ग को लुभाने वाली छवियां हैं, क्योंकि उन्हीं के बीच तेरी-मेरी पसंद इत्यादि का मामला छिपा हुआ है। इसके अलावा वे ही खरीदार भी हैं। जितने घंटे मीडिया दुष्कर्म की खबरें दिखाता है और हाय-हाय करता है उससे यही प्रतीत होता है कि इस देश में हर औरत दुष्कर्म का शिकार हो चुकी है और हर पुरुष दुष्कर्मी हैं। दरअसल इस बात में भी यही शैतानी भावना छिपी हुई है कि फिल्म इंडस्ट्री की तरह यहां भी सेक्स बिकता है। उससे जुड़ी खबर को लोग टूटकर देखते हैं। अब वह खबर चाहे एक छोटी बच्ची को सताए जाने की हो या किसी अस्सी साल की बुढ़िया की। मीडिया जब से मार्केटिंग और ब्रांड वालों के हाथ पड़ा है और उसका मुख्य मुद्दा लोगों की जीवनशैली के बारे में दिखाना भर रह गया है तब से सेक्स के प्रति लार टपकाऊ भावना और उसे हर हाल में बढ़ावा देने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
विडंबना है कि स्त्री विमर्श ने औरतों की ऐसी नकारात्मक छवि बनाए जाने का विरोध करना छोड़ दिया है। उन्होंने भी मान लिया है कि सेक्स ही उनके जीवन का परम उद्देश्य है। वही चाहिए। हर कीमत पर चाहिए। इसलिए कला के तमाम माध्यम स्त्रियों की देह को व्यापार का हिस्सा बना दिए जाने का विरोध करना भूल चुके हैं। एक समय ऐसा था कि महिला संगठन औरतों को इस तरह सेक्स की विषयवस्तु बनाए जाने का बहुत विरोध करते थे, मगर अब वे आवाजें देहवाद और सेक्स के जोर में कहीं सुनाई नहीं देतीं। यहां तक कि स्त्रियों को देवत्व देने की कवायद इतनी तेज है कि वर्गभेद को बिल्कुल भुला दिया गया है। क्या एक अरबपति की पत्नी और एक मजदूर की पत्नी में समानता कही जा सकती है। गरीब और अमीर का भेद क्या सिर्फ औरत भर होने से मिट जाता है। क्या शेर और बकरी सिवाय कहानियों के कहीं और एक घाट पर पानी पीते देखे जा सकते हैं।
एक गरीब औरत तभी खबर बनती है जब उसके साथ कोई हादसा हो गया हो। वरना इन दिनों वह खबर से गायब है। स्त्री विमर्श, अभिजात्य, मध्यवर्ग और स्त्रियों के नाम पर खाने-कमाने वालों के चंगुल में जा फंसा है। यही नहीं जिस कपड़े उतारू मुनाफाखोर विमर्श को असली स्त्री विमर्श कहा जा रहा है उसमें बहुसंख्यक गरीब औरतें कहीं नहीं हैं, क्योंकि वे चैनलों की दिखती तथाकथित उज्ज्वल छवि को नहीं बेच सकतीं। उनके गरीब उजड़े हुए चेहरे न विज्ञापनदाता को आकर्षित कर सकते हैं और न ही दर्शक को। फिर इस गरीब औरत को कपड़े उतारने की जरूरत नहीं। उसके पास तो पहनने भर के कपड़े नहीं हैं।
कोलाहलपूर्ण स्त्री विमर्श और अधिकार बताकर ज्यादा से ज्यादा टीआरपी और उसके जरिये माल बटोरने वाला विमर्श गरीब को जितनी हिकारत से देखता है उसके तो कहने ही क्या। राधिका आप्टे जब एक फिल्म में कपड़े उतर देती हैं तो उन्हें असली स्त्रीवाद का प्रतीक बनाया जाता है। पहले बिकिनी पहनने या लिप लॉक को कहानी और भूमिका की मांग बताकर वैधता प्रदान की जाती थी अब फिल्म को सेक्स के हथियार से सफल बनने के लिए एक आसान-सा रास्ता ढूंढ़ लिया गया है। इसे स्त्रीवाद और आज की खुदमुख्तार औरत से जोड़ दिया गया है। औरतों यह तुम्हारा शरीर है। तुम इसका जो चाहे सो करो। मेरी फिल्म में कपड़े उतारो और हिट कराओ। फिर देखो अगले बहुत से रोल कितनी आसानी से तुम्हारी झोली में गिरेंगे। कोई कुछ कहने की भी हिम्मत नहीं करेगा। कौन खुद को स्त्री विरोधी और पिछड़ा कहलाना चाहता है। व्यापार के मुनाफे और तरह-तरह के उत्पादों ने औरत के शरीर पर कब्जा कर उसका मालिकाना हक हथिया लिया है।
[ लेखिका जानी-मानी साहित्यकार हैं ]