आर्थिक दृष्टिकोण से सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले नोटबंदी के फैसले पर विपक्षी दलों के अड़ियल रुख के कारण जिस तरह संसद में बहस नहीं हो पा रही वह शर्मनाक भी है और लोकतंत्र के लिए चिंताजनक भी। नोटबंदी पर सार्थक बहस का इंतजार पूरे देश को है, लेकिन विपक्ष के रुख के कारण वह लंबा होता जा रहा है। शीतकालीन सत्र शुरू हुए दस दिन बीत चुके हैं और नोटबंदी पर बहस के नाम पर राज्यसभा में एक दिन की आधी-अधूरी चर्चा ही हो सकी है। कई विपक्षी दल सैद्धांतिक रूप से नोटबंदी के फैसले से सहमत हैं, लेकिन वे इस फैसले के क्रियान्वयन में जनता को हो रही दिक्कतों को लेकर सरकार को घेर रहे हैं। पता नहीं क्यों वे इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहे कि सरकार जनता की परेशानी हल करने के उपाय लेकर सामने आए? इससे इंकार नहीं कि नोटबंदी से जनता को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। सबसे अधिक परेशानी दिहाड़ी मजदूरों के समक्ष है। छोटे-मंझोले उद्योग-धंधे भी प्रभावित हैं। केंद्र सरकार यह दावा कर रही है कि कुछ ही दिनों में आवश्यकता भर नोटों की आपूर्ति हो जाएगी, पर अब यह सवाल उठने लगा है कि जरूरी नकदी का आंकड़ा आखिर क्या है ताकि न तो अर्थव्यवस्था रुके और न ही काला धन फिर से नकदी के प्रवाह में शामिल होने पाए?
नोटबंदी से पहले पांच सौ और एक हजार रुपये के जो नोट प्रचलन में थे उनका कुल मूल्य लगभग साढ़े 14 लाख करोड़ रुपये था। यह अनुमान लगाया गया था कि इन नोटों पर पाबंदी के बाद करीब तीन लाख करोड़ रुपये की राशि बैंकों में जमा नहीं हो पाएगी, क्योंकि वह काले धन के रूप में है। ऐसा होने पर रिजर्व बैंक की देनदारी में सीधे-सीधे तीन लाख करोड़ रुपये की कमी आती और केंद्र सरकार इस रकम से जनकल्याण और विकास के कार्य करने में सक्षम होती। इस अनुमान का आधार यह था कि काले धन पर टैक्स और जुर्माने की दर इतनी अधिक है कि कोई भी अपने काले धन को बैंकों में जमाकर अघोषित आय की जानकारी सरकार को देने की हिम्मत नहीं कर रहा। शायद इसीलिए आयकर कानून में संशोधन किया गया। इसके तहत अगर कोई अपने काले धन की घोषणा करता है तो टैक्स और जुर्माने के रूप में उसे पचास प्रतिशत राशि अदा करनी होगी और एक चौथाई राशि चार साल तक बिना ब्याज हासिल किए बैंक में रखनी होगी। इसमें यह भी प्रावधान है कि छापेमारी में पकड़े गए काले धन पर 85 फीसद जुर्माना और टैक्स लगेगा। इस विधेयक के बाद यह माना जा रहा है कि पहले जो काला धन बैंकों में नहीं आने वाला था अब वह भी बैंकों में जमा हो सकता है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक करीब 11 लाख करोड़ रुपये की राशि बैंकों में जमा हो चुकी है और अभी पुराने बड़े नोट बैंकों में जमा करने की समयसीमा समाप्त होने में करीब 25 दिन बाकी हैं। अगर यह राशि और बढ़ती है तो फिर सवाल उठेगा कि सरकार को नोटबंदी से मिलेगा क्या? वैसे भी एक अनुमान यह भी था कि करीब एक-डेढ़ लाख करोड़ तो नकली करेंसी है। अब यदि यह सवाल उठने लगा है तो हैरत नहीं कि क्या काले धन संबंधी रिजर्व बैंक का आकलन गलत था या उसने इस आकलन में कोई गलती की?
नि:संदेह केंद्र सरकार को तब और अधिक गंभीर सवालों से जूझना होगा जब बैंकों में जमा राशि पांच सौ और एक हजार रुपये के पुराने नोटों के कुल मूल्य से अधिक हो जाएगी? यदि ऐसा हुआ तो सरकार को अपनी रणनीति पर नए सिरे से सोच-विचार करना होगा। इसमें संदेह नहीं कि नोटबंदी का निर्णय आर्थिक दृष्टि से क्रांतिकारी है और इससे दो नंबर यानी काले धन की अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी, लेकिन बैंकों में जिस तरह पैसा जमा हो रहा उससे लगता है कि बड़े पैमाने पर काला धन येन-केन-प्रकारेण सफेद कर लिया गया। यह कार्य कई जगह सरकारी तंत्र की मिलीभगत से भी होने का संदेह है और इसका मतलब है कि सरकार ने जिन लोगों को यह जिम्मेदारी दी कि वे काले धन को सफेद करने की कोशिश नाकाम करें वे सफल नहीं हुए। आयकर विभाग के जिन अधिकारियों पर काले धन के कारोबारियों की धरपकड़ की जिम्मेदारी थी उनमें से कई खुद भी भ्रष्टाचार में लिप्त जान पड़ रहे। संभवत: उनके पास इतना अधिक काला धन था कि उनका सारा वक्त उसे सफेद करने में लग गया। आखिर एक चोर से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह दूसरे चोर को पकड़ेगा। लगता है कि सरकार यह आकलन करने और उसके अनुरूप व्यवस्थाएं बनाने में चूक गई कि नोटबंदी के बाद काले धन को सफेद करने के कैसे जतन हो सकते हैं और उन पर अंकुश लगाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
बात चाहे टैक्स अधिकारियों के भ्रष्टाचार की हो या राजनीतिक भ्रष्टाचार की-इन पर अंकुश लगाने के लिए कोई ठोस कदम अभी भी नहीं उठाए गए हैं। सभी इससे अवगत हैं कि देश में काले धन का सबसे बड़ा ठिकाना राजनीतिक तंत्र है। पूरी चुनावी प्रणाली काले धन पर आश्रित है। काले धन के इस ठिकाने पर निर्णायक चोट की जानी चाहिए। अब यह धारणा भी बदल जानी चाहिए कि दो नंबर का पैसा केवल कुछ उद्योगपतियों-व्यापारियों के पास ही है। ग्रामीण इलाकों में कितना काला धन है, इसका तो कोई अनुमान ही नहीं। यह ठीक है कि किसानों की आय टैक्स से मुक्त है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आढ़ती, व्यापारी और यहां तक कि बड़े दुकानदार भी अपना सारा लेन-देन नकद में करते हैं। यह मानना सही नहीं होगा कि उनका सारा लेन-देन एक नंबर में होता है।
सरकार भले ही यह सोच रही हो कि अब तक जितनी नकदी प्रचलन में थी उसकी जरूरत नहीं पड़ेगी, लेकिन ऐसा शायद ही हो। इसका कारण यह है कि दो नंबर की अर्थव्यवस्था पर अंकुश लगाने के लिए नए नियम-कायदे अब तक लागू नहीं किए गए हैं। अगर नकदी का प्रवाह पहले की तरह हो गया तो काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था पर अंकुश लगाने की मोदी सरकार की पहल की सफलता संदिग्ध हो जाएगी। फिलहाल सरकार को भरोसा है कि वह स्थितियों को नियंत्रित कर लेगी और नकदी के प्रवाह को नियंत्रित करने के साथ ही नकदविहीन अथवा कम से कम नकद आधारित लेन-देन का लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा, लेकिन यह इतना आसान नहीं। एक तो इसके लिए उपयुक्त ढांचे के निर्माण में समय लगेगा और दूसरे यह भी समझना होगा कि नकदी को लेकर लोगों की मानसिकता में बदलाव रातोंरात नहीं हो सकता। यदि इन सब मसलों पर संसद में बहस हुई होती तो अब तक देश इससे परिचित हो गया होता कि नोटबंदी का कदम समानांतर अर्थव्यवस्था को समाप्त करने में कितना सहायक बनेगा? बहस के जरिये सरकार के इस दावे की परख भी हो गई होती कि उसके इस कदम के जरिये काले धन पर कितनी करारी चोट हुई? नि:संदेह इसका भी कुछ अनुमान बहस से ही लगता कि नकदी संकट कब तक खिंचेगा और उस पर काबू पाने के लिए सरकार क्या कर रही है? चूंकि विपक्ष ने एक जरूरी बहस नहीं होने दी इसलिए यही कहा जाएगा कि उसने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया।

[ लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]