हृदयनारायण दीक्षित

भ्रष्टाचार से मुक्ति भारत की राष्ट्रीय अभिलाषा है। इस मामले में ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’ वाले प्रधानमंत्री के बयान की अक्सर मिसाल दी जाती है। मोदी के तीन साल के कार्यकाल में केंद्र सरकार के स्तर पर भ्रष्टाचार का कोई मामला सामने नहीं आया, मगर इस बीच प्रशासन से जुड़े तमाम बड़े नाम भ्रष्टाचार की जद में फंसते नजर आए। सीबीआइ के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा पर भ्रष्टाचार के बड़े आरोपियों से लगातार मेल-मुलाकात के आरोप लगे। इसी एजेंसी के एक अन्य पूर्व प्रमुख एपी सिंह के खिलाफ भी प्राथमिकी दर्ज की गई। प्रवर्तन निदेशालय के पूर्व निदेशक जेपी सिंह की गिरफ्तारी का मामला ताजा है। जेपी सिंह क्रिकेट सट्टेबाजी और मनीलांड्रिंग के आरोपी हवाला कारोबारी अफरोज की जांच से जुड़े रहे जो तकरीबन 5000 करोड़ रुपये का मामला है। जेपी सिंह पर 15 करोड़ रुपये की रिश्वत लेने का आरोप है। हाल में छत्तीसगढ़ के प्रमुख सचिव बीएल अग्रवाल भी सीबीआई के हत्थे चढ़ गए। उन पर खुद से जुड़े एक मामले की जांच प्रभावित कराने के लिए 1.5 करोड़ रुपये की रिश्वत देने का आरोप है। केंद्रीय उत्पाद शुल्क विभाग के तीन बड़े अधिकारी भी इसी हफ्ते रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार हुए। तकनीकी शिक्षा एवं औद्योगिक प्रशिक्षण के संयुक्त निदेशक पर भी सीबीआइ ने शिकंजा कसा। शीर्ष नौकरशाहों का भ्रष्टाचार में लिप्त होना बेहद चिंताजनक है।
भारतीय प्रशासन तमाम संवैधानिक रक्षा कवचों से लैस है। संविधान विशेषज्ञ मंत्रिपरिषद को अस्थायी और प्रशासन को स्थायी सरकार बताते हैं। मंत्रिपरिषद का कार्यकाल पांच वर्ष का है, लेकिन प्रशासन का कोई कार्यकाल नहीं। सरकारें नीति बनाती हैं। प्रशासन उन्हें लागू करता है। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि सरकारें संसद और विधानमंडल के प्रति जवाबदेह हैं, लेकिन प्रशासन तंत्र की कोई जवाबदेही क्यों नहीं है? नौकरशाह भ्रष्टाचार करें तब भी निंदा सरकार की ही होती है। निर्वाचित सरकारें मतदाताओं से डरती हैं, लेकिन भ्रष्ट नौकरशाहों को ऐसा कोई डर नहीं सताता। भारत में प्रशासन की व्यावसायिक दक्षता और गुणवत्ता लगातार घटी है। वे ही भ्रष्टाचार करते हैं और वही जांच करते हैं। शीर्ष स्तर की नौकरशाही पर ही पहरेदारी की जिम्मेदारी है। यक्ष प्रश्न यही है कि पहरेदारों पर कौन पहरा दे?
चीन में ताकतवर भ्रष्टाचारियों को टाइगर और सामान्य भ्रष्टों को मक्खी कहा जाता है। सीधे राष्ट्रपति के मातहत आने वाली चीनी भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी सीसीडीआइ ने वर्ष 2015 में 100वां टाइगर पकड़ने की घोषणा की थी। बीते 5-6 साल में वे 139 प्रशासनिक टाइगर पकड़ चुके हैं और 180 बड़े राजनीतिक टाइगर। भारतीय एजेंसियों को उससे सबक लेना चाहिए। दूसरी ओर भारतीय प्रशासन तंत्र तरह-तरह के आरोपों से बुरी तरह जूझ रहा है। बेशक राजनीतिक तंत्र भी दूध का धुला नहीं है, लेकिन नेताओं पर कार्रवाई का अंतिम अधिकार भी प्रशासन के पास है। न्यायपालिका आरोपपत्र के आधार पर ही निर्णय करती है।
प्रशासन को राष्ट्रीय अभिलाषा से जोड़ने का समय आ गया है। संविधान की उद्देशिका और नीति निदेशक तत्व प्रशासन के मार्गदर्शक हैं। भारतीय प्रशासन संविधान के मार्गदर्शी सिद्धांतों से प्रतिबद्ध नहीं जान पड़ता। अंग्रेजी राज बेशक बुरा था, लेकिन प्रशासन को जनसरोकारों से जोड़ने में सक्रिय था। उसमें प्रशासनिक जांच के लिए कई आयोग बने। जिनमें ली-आयोग, टाटनहम आयोग और एचिसिन आयोग के नाम प्रमुख हैं। अंग्रेजों ने जर्मनी के वैदिक विद्वान मैक्समूलर से प्रशासनिक अधिकारियों को भारतीय दर्शन का प्रशिक्षण दिलाया। प्रशिक्षण भाषण ‘व्हाट इंडिया कैन टीच अस’ नाम से संकलित है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने ‘इंडोलॉजी’ नाम से भारत को समझने का पत्रक जारी किया था। इन सभी बातों के बावजूद तत्कालीन प्रशासन तंत्र का मुख्य लक्ष्य अंग्रेजीराज को ही सुदृढ़ बनाना था। स्वाधीनता संग्राम के वरिष्ठ नेता ब्रिटिश नौकरशाही से खफा थे। यह मुद्दा संविधान सभा में भी उठा था। तब सरदार पटेल ने आश्चर्यजनक बचाव किया और कहा कि ‘यदि उन्हें हटा दिया गया तो देश में अराजकता होगी।’ इस तरह भारत ने ब्रिटिश ब्रिटिश ढर्रे वाली नौकरशाही अपनाई।
स्वतंत्र भारत में ‘लोक प्रशासन पर प्रतिवेदन’ नाम से प्रशासनिक कार्यशैली पर एनडी गोरेवाला की रिपोर्ट 1951 में रिपोर्ट आई। रिपोर्ट के अनुसार ‘कोई भी लोकतंत्र निष्पक्ष प्रशासन तंत्र के अभाव में सफल नहीं हो सकता।’ मगर रिपोर्ट के सुझावों पर अमल नहीं हो पाया, फिर 1952 में केंद्र ने प्रशासनिक सुधारों के लिए पाल एपिलबी की नियुक्ति की। उन्होंने ‘भारत में लोक प्रशासन सर्वेक्षण का प्रतिवेदन’ प्रस्तुत किया। रिपोर्ट में अनेक सुझाव थे, लेकिन जड़ता नहीं टूटी। पहला प्रशासनिक सुधार आयोग 1966 में बना। मोरारजी देसाई उसके अध्यक्ष थे। बाद में वह मंत्री बन गए। आयोग ने हनुमंथैया की अध्यक्षता में काम आगे बढ़ाया। आयोग का पहला प्रतिवेदन 1966 में ‘नागरिकों की व्यथा दूर करने की समस्या’ शीर्षक से आया। प्रशासन बनाम आमजन की व्यथा के टकराव के बावजूद रिपोर्ट की उपेक्षा हुई। रिपोर्ट में आर्थिक नियोजन को आर्थिक प्रशासन के रूप में पहचानने की सिफारिश की गई थी।
पहले प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट के बावजूद प्रशासन का संचालन जस का तस बना रहा। उसके 35 साल बाद 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग बना। इस आयोग ने भी केंद्रीय प्रशासनिक ढांचे एवं राज्य प्रशासन पर सिफारिशें कीं। जिला प्रशासन को सक्षम बनाने की महत्वपूर्ण संस्तुतियां भी की गईं। रिपोर्ट पर विचार का जिम्मा मंत्रियों के समूह को सौंपा गया। आयोग ने सिफारिशों के अंत में कहा, ‘सरकार के दृष्टिकोण में आवंटन आधारित विकास कार्यक्रमों से पात्रता आधारित विकास कार्यक्रमों की ओर अंतरण हुआ है। सभी क्षेत्रों में विकास पर जोर है। केंद्रीय बजट बढ़ा है। अब संस्थागत प्रशासनिक एवं वित्तीय प्रबंधन का सुदृढ़ीकरण जरूरी है।’ विकास के सभी कार्यक्रमों के लिए प्रशासनिक प्रबंधन पर जोर दिया गया, मगर असली दिक्कत दूसरी है। विकास कार्यक्रमों को परिणति तक पहुंचाने वाले प्रशासन तंत्र की प्रथम वरीयता परिणाम देना नहीं, अपितु अपनी सेवा सुरक्षा है। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की कतिपय सिफारिशें उपयोगी हैं, लेकिन भारत की चुनौतियां सर्वथा नई हैं। चूंकि बदले माहौल में प्रशासन तंत्र का समग्र रूपांतरण जरूरी है इसलिए देश को अब तीसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की आवश्यकता है।
[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व सदस्य हैं ]