दुनिया में जितनी आजाद और स्वायत्त उच्चतर न्यायपालिका हमारी है उतनी कहीं और नहीं है। किसी भी देश में न्यायाधीश अपने को नियुक्त नहीं करते, लेकिन हमारे यहां ऐसा ही होता है। जस्टिस कर्नन मामले से यह भी स्पष्ट है कि अब न्यायपालिका ने जजों को हटाने का भी अधिकार अपने हाथ में ले लिया। संविधान की धारा 124 और 214 के तहत सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। इसमें सुप्रीम कोर्ट की भूमिका सलाहकार के रूप में है। अक्टूबर 1993 को सुप्रीम कोर्ट बनाम भारत सरकार के मामले में यह फैसला दिया गया कि जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका अर्थात चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की भूमिका निर्णायक होगी। इस पर गौर करें कि इस मामले में पेटिशनर सुप्रीम कोर्ट एडोकेट्स ऑन रिकार्डस एसोसिएशन थी। यह फैसला संविधान की भावना के विरुद्ध था। तब देश के राजनीतिक हालात ऐसे थे कि किसी ने सवाल नहीं किया कि आखिर जज ही जज की नियुक्ति कैसे कर सकते हैं? 1998 में राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा कि संविधान की धारा 143 में कंसल्टेशन से क्या आशय है?

इस पर सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि मुख्य न्यायाधीश के अलावा वरिष्ठ न्यायाधीश कोलेजियम का हिस्सा होंगे और यही कोलेजियम जजों की नियुक्ति करेगा। इस तरह से और स्पष्ट कर दिया गया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका का अधिकार अंतिम होगा। ध्यान रहे कि अमेरिका में सीनेट और राष्ट्रपति जज की नियुक्ति करते हैं। जर्मनी में वे संसद द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। रूस में भी लगभग यही स्थिति है। हमने ब्रिटिश सिस्टम को अपनाया, लेकिन वहां भी जज को जज नियुक्त नहीं करते।

हमारे देश में उच्चतर न्यायपालिका दिन- प्रतिदिन ताकतवर बनती जा रही है और फिर भी सरकार पर यह आरोप लगता है कि वह उसकी स्वायत्ता पर आक्रमण कर रही है। परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे उच्चतर न्यायपालिका कानून बनाने के साथ प्रशासनिक और जांच का भी कार्य करने लगी। अपने अधीन टास्क फोर्स बनाकर या अन्य माध्यम से वह केवल जांच ही नहीं कराती, बल्कि अधिकारियों की तैनाती भी करती है। इतना ही नहीं, वह सरकारी कामों और योजनाओं का मूल्यांकन भी करती है और समय-समय पर कार्यपालिका एवं विधायिका को निर्देश एवं आदेश भी देती है। इस सबके अलावा वह शासन-प्रशासन को आए दिन फटकार तो लगाती ही है। जब सरकार ने नेशनल ज्युडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन बनाया तो उसे गैर संवैधानिक करार कर दिया गया। ध्यान रहे कि संसद जब संवैधानिक संशोधन करती है तो उसके पीछे देश की जनता की भी सहमति होती है। विडंबना देखिए कि लगभग सवा सौ करोड़ जनता की राय को पांच जजों ने अवैध ठहरा दिया।

संवैधानिक स्थिति यह है कि न्यायपालिका का कार्य कानून की व्याख्या करना है, लेकिन परिस्थिति ऐसी बन गई है कि वह अपने दायरे से बाहर के काम भी कर रही है। इसके चलते दादा के समय के मुकदमे पोते के जमाने में निबटाए जा रहे हैं। आम आदमी के लिए न्याय हासिल करना और मुश्किल हो गया है। 1हाल में जस्टिस खरे ने कहा आम आदमी को सोचना भी नहीं चाहिए कि वह उच्चतर न्यायपालिका से न्याय ले सकता है। बड़े वकील इतने महंगे हो गए हैं कि उनकी सेवाएं लेना आम आदमी के बस में नहीं और नए वकीलों की जिरह चाहे जितनी प्रभावी हो उसे महत्व नहीं मिलता। चूंकि न्यायपालिका की बातें बाहर नहीं आतीं इसलिए सब कुछ ढका हुआ रहता है। न्यायपालिका किस तरह विधायिका के अधिकार अपने हाथ में ले रही है, इसका ताजा उदाहरण जस्टिस कर्नन का मामला है।

कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सीएस कर्नन की गलती यह थी कि उन्होंने सरकार को अन्य जजों के भ्रष्टाचार के बारे में पत्र लिख दिया। जब सुप्रीम कोर्ट ने उनसे सवाल-जवाब किए तो उन्होंने उसकी अनदेखी की। इस पर उन्हें आपराधिक अवमानना का दंड ही नहीं दिया गया, बल्कि कार्यभार से मुक्त भी कर दिया गया, जबकि संविधान में कहीं भी नहीं लिखा कि जज के खिलाफ जज कार्रवाई कर सकता है। माना कि जस्टिस कर्नन ने गलती की तो भी सुप्रीम कोर्ट को मामले को सरकार को भेजना चाहिए था। संसद महाभियोग चलाकर उन्हें हटा सकती थी, लेकिन यह काम सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही कर दिया। किसी को पता नहीं कि किस अधिकार से? इस तरह देखें तो उच्चतर न्यायपालिका ने न केवल जजों की नियुक्ति का अधिकार अधिग्रहित किया, बल्कि उन्हें हटाने का भी।

यह समझने की जरूरत है कि संविधान में जो संतुलन था वह बिगड़ चुका है। राजनीतिक दलों की आपसी लड़ाई संतुलन को बनाए रखने में बाधक बन रही है। मान लिया जाए कि कुछ राजनीतिक लोग भ्रष्ट या जातिवादी या फिर सांप्रदायिक हैं, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि सारे अधिकार सुप्रीम कोर्ट को दे दिए जाएं? आखिर सुप्रीम कोर्ट किसके प्रति जवाबदेह बनेगा। अगर राजनीतिक लोग गलती करते हैं तो उन्हें जनता देर-सवेर सुधार ही देती है, क्योंकि वोट का अधिकार उसके पास है, लेकिन जजों को कौन सुधारे? सरकार द्वारा न्यायपालिका को सुधारने के सारे प्रयास विफल हो रहे हैं। दूसरी ओर न्याय महंगा होता जा रहा है। सब कहते और बताते हैं कि करोड़ों मुकदमे लंबित हैं, लेकिन यह कोई नहीं बताता कि वे कम कैसे होंगे और उनकी सुनवाई में देरी के लिए कौन जिम्मेदार है?

(लेखक- डॉ उदित राज, लोकसभा सदस्य हैं)